सेवा प्रदाताओं की उपकरण ख़रीद के लिए, एक भरोसेमंद स्रोत तय करके, दूर संचार इनफ्रास्ट्रक्चर को सुरक्षित करने का फैसला, नरेंद्र मोदी सरकार का पहला बड़ा क़दम है, जो मई में लद्दाख़ में सैन्य गतिरोध शुरू होने के बाद से, चीन को गहरी चोट पहुंचा सकता है.
पिछले कुछ महीनों में, 200 से अधिक चीनी एप्स पर सरकार की पाबंदी, बिल्कुल सतही थी.
लेकिन इस नए क़दम के साथ, चीन के लिए परेशानी पैदा हो सकती है, क्योंकि दूरसंचार क्षेत्र पर राष्ट्रीय सुरक्षा निर्देश, बदले हुए दृश्य को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है.
इससे पहले अगस्त में, मैंने तर्क दिया था कि अब समय आ गया है, कि भारत अपने पड़ोसी पर दबाव बनाए, और चीन पर उस जगह चोट करे, जहां उसे सबसे ज़्यादा कष्ट होगा- अर्थव्यवस्था.
विशेषज्ञों का कहना है कि मोदी सरकार ने एहतियात बरतते हुए, अपनी नई दूरसंचार नीति में चीन का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन हर कोई जानता है कि इसके निशाने पर कौन है- अन्य चीनी कंपनियों के अलावा हुआवे और ज़ेडटीई.
हालांकि अभी इंतज़ार करते हुए देखना होगा, कि क्या सरकार अपनी कथनी पर अमल करेगी, और चीनी कंपनियों को ‘भरोसेमंद स्रोत’ की सूची में नहीं रखेगी.
लेकिन, ये नया क़दम उसी दिशा में है जो हाल ही में, एक शीर्ष सरकारी सूत्र ने मुझे बताया था, कि सरकार सिर्फ रक्षा ही नहीं, बल्कि तमाम क्षेत्रों में, चीन के साथ ‘दृढ़’ रहेगी.
सरकार को ये बात समझ आती जा रही है, कि मई के शुरू में लद्दाख़ में चीन की हरकत, जिसमें उसने कई बार भारतीय साइड पर अतिक्रमण किया है, राष्ट्रपति शी जिंपिंग की अपने आप और चीन को, एक वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने, और प्रधानमंत्री नरेंद्र को नीचा दिखाने की एक कोशिश है.
लेकिन फिर 1962 की लड़ाई भी ऐसी ही थी, जब चीन का राजनीतिक-रणनीतिक उद्देश्य, ‘भारत को सबक़ सिखाना’ और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को झुकाना था.
मोदी ने चीन से रिश्तों में निवेश किया
गुजरात सीएम के दिनों से ही, मोदी ने चीन के साथ रिश्ते विकसित करने में निवेश किया है. 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से, वो शी जिंपिंग से 18 बार मिल चुके हैं.
बेशक, इनमें आमने-सामने की वो बैठकें शामिल हैं, जो एक दूसरे के देशों में, और बहुपक्षीय शिखर सम्मेलनों में रहीं हैं. लेकिन फिर, जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस में कहा गया है, मोदी बतौर पीएम पांच बार चीन जा चुके हैं, जो पिछले 70 वर्षों में किसी भी भारतीय पीएम के, सबसे ज़्यादा दौरे हैं.
इसलिए ख़ुशमिज़ाजी तो जारी रही, लेकिन 2017 के डोकलम गतिरोध ने चीन को दिखा दिया, कि भारत यदि तय कर ले, तो वो गंभीर हो सकता है. कोई व्यक्ति चाहे किसी भी सियासी सोच का हो, वो इस बात को ज़रूर मानेगा, कि भूटान में भारत का चीन के खिलाफ डटकर खड़ा होना अप्रत्याशित था.
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मोदी का अपने किए को नष्ट करना
दूरसंचार क्षेत्र पर राष्ट्रीय सुरक्षा निर्देश को, दरअस्ल इस तरह भी देखा जा सकता है, कि मोदी उस सब को ख़त्म कर रहे हैं, जो उन्होंने 2015 के बाद चीन के साथ किया है.
2015 में मोदी के तीन-दिवसीय चीन दौरे के दो महीने बाद, हुआवे के क़रीब दो साल से लंबित पड़े एक प्रस्ताव को स्वीकृति मिल गई, जिससे चीनी फर्म को भारत में एक निर्माण इकाई स्थापित करने की, सुरक्षा मंजूरी हासिल हो गई.
फोर्ब्स की रिपोर्ट में कहा गया, कि ‘दौरे से अंत में 22 बिलियन डॉलर्स से अधिक के व्यापार समझौते हुए, जिनमें से एक वो था, जिसमें भारत की भारती एयरटेल ने, हुआवे और ज़ेडटीई से टेलिकॉम उपकरण ख़रीद की फाइनेंसिंग के लिए, चाइना डेवलपमेंट बैंक के साथ डील पर दस्तख़त किए’.
डोकलम गतिरोध के बाद भी, अमेरिकी दबाव के बावजूद, भारत 5जी की दौड़ में हुआवे का स्वागत करता रहा.
चीनी कंपनी का विश्वास इतना मज़बूत था, कि सितंबर 2019 में हुआवे के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, कि उसके 5जी इनफ्रास्ट्रक्चर पर फैसला तब लिया जाएगा, जब मोदी और शी अक्तूबर में मिलेंगे.
और दिसंबर में, मोदी सरकार ने हुआवे टेक्नोलॉजीज़ को, भारत में 5जी के ट्रायल्स में हिस्सा लेने की, अनुमति देने का फैसला कर लिया.
इत्तेफाक़ से, हर एक सिक्योरिटी एजेंसी ने चीन को, 5जी में शामिल करने पर, बहुत सी चिंताएं ज़ाहिर कीं थीं.
और जैसा कि मैंने इस साल जनवरी में ख़बर दी थी, रक्षा सेवाओं ने भी देश में चीन की 5जी सेवाएं शुरू किए जाने की संभावना जताई थी, और कहा था कि इससे सुरक्षा को भारी ख़तरा है, और ऐसी सेवाएं भारतीय सेना के कमांड और कम्यूनिकेशन के, पूरे ढांचे को जोखिम में डाल सकती हैं.
लेकिन, लद्दाख़ में चीन के पीठ में छुरा घोंपने की हरकत ने, पूरा मामला बदलकर रख दिया.
इसमें कोई शक नहीं कि भारत को चीन के साथ, दृढ़ता से पेश आना चाहिए. लेकिन साथ ही, उसे सतर्क भी रहना होगा. चीन को धीरे धीरे संचार क्षेत्र से बाहर, या एक कोने में करते हुए, भारत को याद रखना चाहिए कि ग़ैर-चीनी कंपनियों के पास जाने से, लागत में भारी इज़ाफा हो सकता है.
जैसा कि वकील पूर्णिमा आडवाणी ने हाल ही में दलील दी, ‘स्थानीय तकनीकी क्षमताएं निर्मित करना कोई आसान काम नहीं है, चूंकि भारत के सामने न सिर्फ हार्डवेयर के क्षेत्र में चुनौतियां हैं, बल्कि चीन के मुक़ाबले, उसकी नेटवर्क निर्माण की क्षमताएं भी अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं’.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने केलिए यहां क्लिक करें, उक्त विचार निजी हैं.)
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