नागरिकता संशोधन कानून को लेकर हो रहे आंदोलन को इस बात की सचेत कोशिश करनी होगी कि बीजेपी इसे मुसलमानों के आंदोलन के तौर पर पेश न कर पाए.
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश के कई हिस्सों में और खासकर दिल्ली में जिस तरह का आंदोलन चल रहा है, क्या बीजेपी उससे परेशान है?
मेरी राय है – नहीं. देश में किसी भी किस्म की अराजकता या उत्पात बेशक भारत की अर्थव्यवस्था और देश की छवि के लिए बुरी बात है लेकिन बीजेपी की राजनीति के लिए यह खाद का काम करती है, खासकर तब जबकि उस अराजकता में कोई मुस्लिम पक्ष हो.
संयोग या दुर्योग से नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ आंदोलन ने जिन छवियों यानी इमेज का सृजन किया है, उसे मुस्लिम रंग दे देना बहुत आसान है. इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झारखंड की एक चुनावी सभा में ये कह पाए कि जो लोग नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है. प्रधानमंत्री ने बेशक किसी धर्म का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका संदेश जिस शक्ल में जहां पहुंचना था, वहां पहुंच गया होगा.
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इस आंदोलन के सबसे प्रमुख केंद्र बने- जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, देवबंद नदवा, सीलमपुर आदि. आप कह सकते हैं कि आंदोलन तो इसके अलावा और जगहों पर भी हो रहा है लेकिन उसमें तमाम धर्मों और समुदायों के लोग शामिल हैं. पर कई बार मीडिया भी वही दिखाना चाहता है, जो उसके नैरेटिव यानी विमर्श में फिट बैठता है. ऐसे समय में आंदोलन के नेताओं का दायित्व है कि अपने नैरेटिव को आगे बढ़ाएं. सवाल उठता है कि क्या ये आंदोलन संगठित रूप से चलाया जा रहा है? क्या इसका कोई नेतृत्व है, जो इसकी दिशा को बदलने की कोशिश करे? शायद नहीं. इस वजह से ऐसी किसी उम्मीद का खास मतलब नहीं है.
एक और सवाल. अगर नागरिकता संशोधन विधेयक से समस्या सिर्फ मुसलमानों को है, तो इस आंदोलन को मुसलमान प्रतीक चिन्हों से मुक्त कैसे रखा जा सकता है?
ये तो तय है कि इस एक्ट में धार्मिक तत्व और इस आधार पर पहली नज़र में भेदभाव नज़र आता है. इस एक्ट का मकसद भारतीय उप महाद्वीप के देशों से भारत आने वाले उन शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है, जो इस्लाम के अलावा किसी और धर्म के मतावलंबी हैं. इसके पीछे सरकार का तर्क ये है कि कानून का मकसद उन लोगों को भारतीय नागरिकता देना है, जिन्हें इन देशों में धार्मिक आधार पर सताया जा रहा है.
एनआरसी यानी सिटिजनशिप रजिस्टर के साथ अगर इस नए कानून को जोड़कर देखा जाए तो भारत में रह रहे इस्लाम के अलावा बाकी धर्मों के मतावलंबियों को नागरिकता मिल जाएगी. जबकि मुमकिन है कि मुसलमानों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए सबूत जुटाने होंगे. हालांकि सरकार ये कह रही है कि किसी भी भारतीय नागरिक को डरने की जरूरत नहीं है लेकिन सरकार की मुसलमानों के बीच इतनी विश्वसनीयता नहीं है कि लोग उसकी बातों को मान लें.
तो ऐसी स्थिति में गलत क्या है कि मुसलमान बराबरी के अपने अधिकार के लिए सड़कों पर हैं?
इसमें वही समस्या है, जो भारत के ज्यादातर आंदोलन के साथ है. भारत में लगभग सारे आंदोलन तबकाई यानी सेक्शनल हैं. जिस पर बात आती है, वह आंदोलन करता है और बाकी लोग खामोश रहते हैं. मिसाल के लिए, जब एससी-एसटी एक्ट को सुप्रीम कोर्ट ने कमजोर बना दिया तो एक्ट को बचाने के लिए सड़कों पर सिर्फ एससी-एसटी के लोग उतरे. उसी तरह जब यूनिवर्सिटी में शिक्षकों की नियुक्त में आरक्षण को लगभग समाप्त कर देने वाला 13 प्वायंट का रोस्टर लाया गया तो सिर्फ प्रभावित पक्ष के लोगों ने आंदोलन किया. इसी तरह जब हरियाणा में दलित बच्चियों पर अत्याचार होता है तो सिर्फ दलित संगठन आंदोलित होते हैं. किसी सांप्रदायिक दंगों के मामले में न्याय मांगना हो तो भी प्रभावित पक्ष ही आवाज उठाता है.
यानी कहने को बेशक भारत एक नागरिक समाज है, लेकिन हमारा व्यवहार दरअसल सामुदायिक है. भारत के लोग आम तौर पर सामुदायिक स्वार्थ या सामुदायिक हित के मुद्दों पर ही आंदोलित या उद्वेलित होते हैं.
एक समुदाय की दुख या उनकी शिकायत के साथ बाकी समुदायों को एकाकार न होना या सहानुभूति न होने के कारण भारत का सच्चे या क्लासिकल अर्थों में राष्ट्र बनना संपन्न नहीं हो रहा है. राष्ट्र क्या है नाम अपने चर्चित भाषण में फ्रांसिसी दार्शनिक अर्न्ट्स रेनन ने कहा था कि साझा सुख, साझा दुख और साझा सपनों से ही राष्ट्र बनता है. इन तीनों बातों में से रेनन साझा दुख को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं.
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इसलिए बेहतर होगा कि नागरिकता संशोधन कानून के प्रश्न को मुसलमानों का मसला न बनाया जाए. ये मुसलमानों का सवाल है भी नहीं. ये भारतीय संविधान के मूल विचार को नष्ट करने का मामला है. संविधान धर्म के आधार पर नागरिकता के निर्धारण का निषेध करता है. ऐसा कोई प्रावधान संविधान में कहीं है ही नहीं जिसके आधार पर किसी को धर्म के आधार पर नागरिकता दी जाए और किसी को नागरिकता न दी जाए.
इसलिए इस मुद्दे पर होने वाले आंदोलन को सेकुलर स्पेस में ले जाने की जरूरत है. इसे मुस्लिम प्रतीकों के साथ जोड़ने का मतलब इस आंदोलन को नष्ट करना होगा.
इस मामले में सबसे ज्यादा दायित्व राजनीतिक दलों का है. खासकर उन राजनीतिक दलों का, जो सेकुलरिज्म पर यकीन करने की बात करते हैं. अगर वे आगे आकर इस आंदोलन का नेतृत्व करते हैं तो सड़कों पर होने वाली अराजकता और हिंसा से मुक्ति मिल सकती है. ये अराजकता इस आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी है.
(लेखक भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय पत्रकारिता और संचार में सहायक प्रोफेसर हैं. वे इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं. इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर कई किताबें भी लिखी हैं. लेखक के ये विचार निजी हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)