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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतनेटफ्लिक्स की 'लस्ट स्टोरीज' ने तोड़ी सेक्स पर भारतीयों की चुप्पी

नेटफ्लिक्स की ‘लस्ट स्टोरीज’ ने तोड़ी सेक्स पर भारतीयों की चुप्पी

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ज़ोया अख्तर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी और करण जौहर वाली यह कहानी  सेक्स को लेकर की जाने वाली हिचक भरी (भद्दी) बातचीत और चुप्पी तोड़ती हैं।

सके लिए सही शब्द क्या है? एक शब्द जो कि जरूरत, सुरक्षित, सरल और शरीर को विद्युत प्रवाह (यौन उत्तेजना को शांत करना) की सही मात्रा देता है।

उनका कहना है कि, “मैं सोचता हूँ मुझे फॉर्निकेट (शादी से पहले एक कुँवारी लड़की से सेक्स ) करना चाहिए।“ वह पूछती है, ”तुम्हारा मतलब सेक्स?।“ बत्तियाँ बुझ जाती हैं लेकिन कुछ शब्द रह जाते हैं।

नेटफ्लिक्स पर आई नई फिल्म “लस्ट स्टोरी” चार कहानियों का एक गुलदस्ता है, हर कहानी इच्छा (सेक्स की चाहत), प्यार और वासना तथा अधिकतर उन लहरों के बारे में है जो किरदारों के जीवन में उत्पन्न होती हैं। टेक्नोलॉजी और हाइपर-कम्यूनिकेटिंग की दुनिया में सेक्स्टिंग (कामोत्तेजक संदेशो का आदान-प्रदान) और नेटफ्लिक्स पर निजी चीजें देखने के बावजूद सेक्स के प्रति भारतीय असमंजस में रहते हैं, हमारे समाज में सेक्स को लेकर किए जाने वाले संवाद और इस पर साधी जाने वाली चुप्पी के बीच जंग छिड़ी हुई है जो कि हमारे समाज का मूल तत्व है।

ज़ोया अख्तर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी और करण जौहर की इन चारों कहानियों ने दर्शकों के लिए बॉलीवुड के इच्छाओं (वासना) के प्रति भद्दे रवैये पर आधुनिक संबंधों की चुप्पी और अजीब अभिव्यक्ति दोनों को तोड़ दिया है।

इस (सेक्स) पर बात करने की पाबंदी की समस्या हमारी मुख्यधारा की संस्कृति में भाषा के साथ अपने मूल पर एक झुकाव है। सिनेमा, गानों और जिंदगी में इसे अक्सर रूपकों में व्यक्त किया जाता है। आप उन शब्दों का उपयोग कैसे करेंगे जो व्यावहारिक हैं लेकिन सेक्सी नहीं? किसी शब्द की कामुकता को स्पर्श किए बिना इसको सही-सही कहने की समस्या और इस तरह से इसको कहना कि इसकी सहमति पर कोई अस्पष्टता न हो, कुछ ऐसा है जो भविष्य में परेशानी का कारण बन सकता है।

राधिका आप्टे का किरदार पूछता है कि “यह अच्छा था या नहीं?”, जो कि एक प्रोफेसर है और लगातार अपनी यौन इच्छा यात्रा को दर्शाती हैं।

कश्यप की कहानी में एक मराठी भाषी कॉलेज का छात्र जवाब देता है कि ’इसके बारे में बात करके इसको बेकार कर रहे हो, ’ उनके यौन संबंधों पर पाबंदी लगी हुई है, जो कि उनकी यौन संतुष्टि के लिए एक समस्या है। वह एक शिक्षिका हैं और वह उसका एक छात्र है। वह उससे कहलवाती हैं कि सेक्स दो लोगों की आपसी सहमति से किया जाने वाला कार्य है, इन शब्दों को कहने में वो झिझकता है, जैसे कि पूरी दुनिया अभी भी सहमति के विचार पर झिझकती है। जब तक पारंपरिक शब्दों का उपयोग नहीं होता है तब तक वे अपने संबंध को अच्छे तरीके से जाहिर नहीं कर पाते हैं। यह पारंपरिक शब्द उनके माहौल की मादकता को और कम कर देते हैं। उनकी बातचीत यहीं पर समाप्त हो जाती है और हम अगली कहानी की ओर बढ़ जाते  हैं।

अख्तर की कहानी अलग ही तरीके की है जहाँ नौकरानी और पुरुष नियोक्ता दिन की शुरुआत सेक्स के साथ करते हैं, लेकिन अपने परिवार के सामने शायद ही कभी आपस में बात करते हैं। उनके रिश्ते की वर्जित प्रकृति उनके शरीर तक ही सीमित रहती है और कभी भी उनके बीच बातचीत तक नहीं पहुँचती है। उनकी कहानी को कभी वर्गीकृत नहीं किया जाता है लेकिन भ्रामक रूप से सत्ता और सहमति के अंधेरे क्षेत्र में निहित रहती है।

आधुनिक समय में सहमति पर उग्र बहस देखी गई है। कानूनों में संशोधन किया गया है, भाषा को उचित श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है और आत्म-मूल्य की भावनाओं को खाली छोड़ दिया गया है।

‘हम एक दूसरे को कोई व्हाट्सएप, कोई टेक्स्ट संदेश, कोई फोन-कॉल और कोई ईमेल नहीं करते। यह दिबाकर बनर्जी की कहानी में रीना (मनीषा कोइराला) ने अपने यदा-कदा मिलने वाले प्रेमी को बता रही हैं जो कि सप्ताहांत में समुद्र तट पर बने एक खाली घर में मिलते हैं। इन प्रेमियों ने कोई शब्द या निशान नहीं छोड़े हैं जिससे कोई कल्पना भी न कर सके वे कभी एक साथ थे। उन्होंने ना ही कोई लिखित या तकनीकी प्रमाण छोड़ा  हैं। जब वह एक संकट में आते हैं तो उन्हें अपनी घनिष्ठता के बारे में बताना पड़ता है, जिसमें तीन वक्तियों को धमकी मिलती है की उनको फँसा दिया जाएगा। यह एक-दूसरे को बहुत समय से जानते हैं और इनको एक ऐसे वार्तालाप के ख़ुलासे की धमकी मिलती है जो दोस्ती और शादी दोनों को प्रभावित करेगा।

कहानी में एक औरत उसके पति और उसके सबसे अच्छे दोस्त के बारे में, कहने और न कहने का एक सशक्त इंटरप्ले है। महिला (कोइराला) स्थिति का पूरा ज्ञान रखने वाली एकमात्र किरदार हैं और दोनों पुरुषों के पास उनके शब्दों और उनकी चुप्पी पर विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह कुछ ऐसा प्रतीत होता है की यदि वह अपनी  ऐयाशी की स्वतंत्रता के बारे में बात करती हैं तो यह उन दोनों पुरुषों को आतंकित करती हैं। वह दो सहमत वयस्क हैं जो कि एक अपरिभाषित क्षेत्र है जहाँ सारे नियम तोड़ दिए गए हैं और दोस्ती का अर्थ बदल गया है। पुरुषों के लिए, मौन आवश्यक है, उन्हें इसके बारे में बात नहीं करनी चाहिए। पुरुषों की चुप्पी और महिला द्वारा शब्दों के नियंत्रण ने इस कहानी में उन्हें (मनीषा कोइराला को) शक्तिशाली बना दिया है।

साहित्य के शब्धों के साथ सेक्सी और इच्छा रखने वाली महिलाओं का एक उचित प्रतिनिधित्व रहा है, लेकिन हमारे सिनेमा में ऐसा नहीं है। हमारे सिनेमा में, आनंद से संबंधित डॉयलाग सीमित रहे हैं जैसे हमारे जीवन में भी यह सीमित होते हैं, जहां इसके आसपास वार्तालाप करने की बजाय यौनानंद खोजने की दिशा में कार्य करना आसान है। आनंद एक अविश्वसनीय विचार है, आप यह ही नहीं जानते हैं कि इसका मतलब क्या है तो सही शब्दों में इसको बायाँ करना तो दूर की बात है। दूसरे लोगों के अंतरंग दृश्यों को अन्य लोगों द्वारा देखे जाने के अलावा यौनानंद के लिए अभियान करना मुश्किल है।

वीरे दी वेडिंग इंडिया के बाद, जौहर की कहानी ने मध्यम-वर्गीय घरों के ड्राइंग रूम में वाइब्रेटर और आत्मरंजन को जगह दी है। अपने पति की हर चीज की तुलना में नव विवाहित स्कूली शिक्षिका मेघा के लिए यौनानंद अधिक मायने रखता है। वह अनुरूपता और रूपकों के माध्यम से सेक्स के बारे में और बराबर यौनआनंद की जरूरत के बारे में बात करने की कोशिश करती है लेकिन वह उनके पति को  समझ में नहीं आता है। यहाँ एक कठिन परिस्थिति थी, मेघा को अपने पति को  बिना जाहिर किए अपने यौनआनंद की कमी व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे। मध्यम वर्ग की शब्दावली एक महिला के मामले में सही या गलत के रूप में आत्मरंजन को वर्गीकृत करती है।

‘मैंने कोई गलती नहीं की।’

‘आप अब क्या करना चाहते हो?’

‘मुझे अब थोड़ी आइस क्रीम खनी हैं।’

उपभोग का कार्य वह कर गया जो जोड़े के लिए शब्द नहीं कर पाए। वेनिला आइसक्रीम को चाटने के तरीके को वे भाषा में व्यक्त नहीं कर पाए।

हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जो वास्तव में सेक्स के बारे में बात नहीं करता है। अब हम सहमति की बात करना सीख रहे हैं, लेकिन जब भी यौनआनंद की बात आती है तब हम अब भी शब्दों को टटोलने लगते हैं। हमारे साहित्य ने हमें सिखाया है कि जब सेक्स और भी सेक्सी हो जाता है जब वह एक बताए और परखे हुए नुस्खे के तौर पे सामने आता है। कभी-कभी, मनगढ़ंत कहानी खतरनाक होती हैं। लेकिन लस्ट स्टोरीज जैसा भारत में कुछ ही फिल्में करती हैं – यह वर्जित कल्पनाओं के आसपास वार्तालाप को खोलती है और हमें ऐसे संभावित पात्रों के करीब ले जाती हैं जो इस पर एक शब्द या उंगली डालने का प्रयास करते हैं।

रूपलीना बोस दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाती हैं। बाकी समय में, वह फिल्में लिखती हैं। उन तक rupleena.bose@gmail.com के माध्यम से पहुँचा जा सकता है।

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