पीढ़ियों लम्बे स्वतंत्रता संघर्ष ने हमारे देश को कई महानायक दिये हैं. नेताजी सुभाषचंद्र बोस को उनमें इस दृष्टि से सबसे अलग रेखांकित किया जा सकता है कि देशवासियों ने जिस तरह उनके शौर्य को अप्रतिम माना, उसे लेकर नाना प्रकार के मिथ रचे, यहां तक कि 18 अगस्त, 1945 को ताइपेई में हुई विमान दुर्घटना में उनके निधन की खबर को सिरे से खारिज कर दिया और अपनी उम्मीदों में उन्हें अभी भी ज़िन्दा रखा है, उस तरह का ‘सौभाग्य’ दूसरे बहुत से नायकों को नसीब नहीं हुआ. हाल के दशकों तक नेता जी के कहीं रहस्यमय ढंग से रहने या ‘प्रगट’ होने की ‘खबर’ मिलते ही अनेक श्रद्धाविह्वल लोग उन्हें निकट से निहारने की लालसा लिये वहां पहुंच जाते रहे हैं. इस चक्कर में कई बार ठगे जाने के बावजूद उनका दिल किसी भी जतन से यह नहीं मानता था कि देश के दुश्मनों से अपने अद्भुत पराक्रम का लोहा मनवा लेने वाले नेता जी अब इस संसार में नहीं हैं. यह भी नहीं कि ज्ञात अज्ञात किसी भी तरह के डर से, महज अपनी जान बचाने के लिए, नेता जी इतना लम्बा अज्ञातवास किसी भी हालत में गवारा नहीं कर सकते थे.
यकीनन, जीवन भर मौत से दो-दो हाथ करते रहने वाले नेता जी जैसे महानायक के लिए इस तरह की कायरतापूर्ण लुकाछिपी की कल्पना भी उनकी वीरता का अपमान ही है. फिर भी, जब आप ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, कुछ लोगों का विश्वास है कि गत शताब्दी के नवें दशक में नेता जी ने गुमनामी बाबा के रूप में अपने अंतिम दिन उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद शहर में बिताये और वहीं गुमनाम मृत्यु के शिकार हुए.
इन लोगों की इस मान्यता का एकमात्र आधार यह है कि गुमनामी बाबा के देहावसान के बाद उनके निवास ‘राम भवन’ से अनेक ऐसी चीजें प्राप्त हुई थीं, जिनका सम्बन्ध नेता जी से जोड़ा जा सकता था. इसी कारण ये लोग नेता जी के साथ जुड़े रहस्यों की जांच के लिए गठित जस्टिस मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट के इस दो टूक निष्कर्ष से कतई इत्तेफाक नहीं रखते कि गुमनामी बाबा के नेता जी होने के कोई ठोस सबूत नहीं है.
फिलहाल, अदालती आदेश से गुमनामी बाबा की चीजें अयोध्या सिथत रामकथा संग्रहालय सुरक्षित और प्रदर्शित हैं, जबकि जस्टिस विष्णु सहाय आयोग द्वारा 19 सितम्बर, 2017 को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को सौंपी गई रिपोर्ट में भी गुमनामी बाबा की पहचान का काम मुकम्मल नहीं हो पाया है. 2015 में देश की सरकार ने नेता जी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक सार्वजनिक करना शुरू किया तो गुमनामी बाबा को नेता जी मानने वालों को उम्मीद थी कि उन फाइलों में से कोई न कोई ऐसा सूत्र ज़रूर निकलेगा, जो गुमनामी बाबा को नेता जी सिद्ध करने की उनकी मुहिम में मददगार होगा. लेकिन उक्त फाइलों ने भी उन्हें निराश ही किया.
बहरहाल, 1897 में आज ही के दिन कटक में धर्मपरायण माता श्रीमती प्रभावती देवी और वकील पिता जानकीनाथ बोस के पुत्र के रूप में जन्मे सुभाष के व्यक्तित्व व कृतित्व में बचपन से ही वीरता व बुद्धिमत्ता का मणिकांचन संयोग था. मैट्रिक परीक्षा में उन्होंने तत्कालीन कल्कत्ता सूबे में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था, जबकि दर्शनशास्त्र के साथ स्नातक डिग्री कल्कत्ता के ही स्काटिश चर्च कालेज से प्रथम श्रेणी में पाई थी. तभी से वे स्वामी विवेकानंद के जीवन व दर्शन से गहराई से प्रभावित थे. 1920 में इंग्लैंड में उन दिनों की सर्वाधिक प्रतिष्ठित आइसीएस परीक्षा में चैथे स्थान पर आकर वे उज्ज्वल भविष्य के सपने संजो ही रहे थे कि जनरल डायर द्वारा अंजाम दिये गये नृशंस जलियांवाला बाग कांड ने देश के अनेक नौजवानों के साथ उनको भी हिला कर रख दिया.
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फिर तो अंग्रेज़ों के प्रति बदले की आग उनके हृदय में ऐसी भड़की कि वे आइसीएस की एप्रेंटिसशिप छोड़कर देश वापस लौट आये और स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े. देशबंधु चितरंजनदास को उन्होंने अपना राजनीति गुरू माना और सालों-साल कांगे्रस की गतिविधियों का हिस्सा रहने के बाद अपने दृष्टिकोण का पहला बड़ा परिचय 1928 में कांग्रेस द्वारा नियुक्त मोतीलाल नेहरू समिति के बहुचर्चित ‘डोमिनेशन स्टेटस’ के सुझाव को खारिज करके दिया. तब उन्होंने कहा था कि अब पूर्ण स्वराज्य से कम कुछ भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में वे जेल गये तो गांधी-इरविन समझोते के बाद ही छूटे.
इस समझौते और आंदोलन के स्थगन का तो उन्होंने मुखर विरोध किया ही, भगत सिंह को फांसी के वक्त भी गांधी जी से अलग स्टैंड लिया.
1938 में हरिपुरा महाधिवेशन में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये तो उनकी सेवाएं अगले अध्यक्ष चुनाव में इतनी अतुलनीय सिद्ध हुईं कि गांधी जी द्वारा समर्थित पट्टाभिसीतारमैया उनके सामने नहीं टिक सके. यह और बात है कि आगे यह अध्यक्षी उन्हें रास नहीं आई. इसके दो कारण थे. पहला यह कि गांधी जी पट्टाभिसीतारमैया की हार को अपनी निजी हार की तरह ले रहे थे और दूसरा यह कि दूसरे विश्वयुद्ध की आशंकाओं के बीच नेता जी द्वारा अंग्रेज़ों को दिये गये छः महीने में भारत छोड़कर चले जाने अथवा परिणाम भुगतने को तैयार रहने के अल्टीमेटम का नरमदली कांग्रेसी विरोध करने लगे थे.
आगे चलकर अंग्रेज़ों को सशस़्त्र संघर्ष में पटखनी देकर बलपूर्वक देश से बाहर करने का सपना देखते हुए नेता जी ने कांग्रेस छोड़ दी, फारवर्ड ब्लॉक बनाया और देशवासियों को नया नारा दिया-तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा! गोरी सत्ता द्वारा दिये गये देश निर्वासन जैसे क्रूर दंड को तो वे पहले ही बेकार कर चुके थे, 1941 में भूमिगत होकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी जा पहुंचे और ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ की रणनीति के तहत भारत की स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के जर्मनी व जापान जैसे श़त्रु देशों का सहयोग सुनिश्चित करने में लग गये. इसी क्रम में सिंगापुर पहुंचकर उन्होंने रास बिहारी बोस से भेंट की और 21 अक्टूबर, 1943 को आजाद हिन्द सेना व सरकार गठित करके अपना सशस्त्र अभियान आरम्भ किया. उन्हें विश्वास था कि वे जल्दी ही अंग्रेजों को हराकर भारत को मुक्त करा लेंगे.
देश विदेश में भारी सहयोग व समर्थन के बीच अंडमान निकोबार को मुक्त कराते हुए 18 मार्च, 1944 को वे भारतभूमि तक पहुंच गये थे. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. विश्वयुद्ध में उनके सहयोगी देशों की हार के साथ ही बाजी पलट गई और उनका मिशन अधूरा रह गया.
लेकिन यह अधूरापन उनके अभियान की महत्ता को कम नहीं करता. अब तो ब्रिटेन का नेशनल आर्मी म्यूज़ियम भी मानता है कि नेता जी की आजाद हिन्द सेना द्वारा इंफाल व कोहिमा में लड़ी गई लड़ाई लड़ाइयों के इतिहास में महानतम थी. इस लड़ाई में उसके व सहयोगी सेनाओं के तिरेपन हजार सैनिकों ने शहादत दी थी. जो अनेक घायल और बंदी होकर मौत से भी त्रासद जिन्दगी जीने को मजबूर हुए, वे इनके अतिरिक्त हैं.
विडम्बना है कि आज़ादी की चमक फीकी पड़ते ही हमारी सरकारों ने नेता जी समेत इस महानतम लड़ाई के प्रायः सारे नायकों को भुला दिया. न उसके शहीदों को समुचित सम्मान दिया, न ही उन्हें, जो घायल होने व पकड़े जाने के बाद बदली हुई भूमिकाओं में देश की सेवा की प्रतिज्ञा पूरी करते रहे. अदम्य साहस के धनी कैप्टन राम सिंह ठाकुर तक, जिन्होंने आज़ाद हिंद सेना के प्रयाणगीत और ‘जनगणमन…’ की धुनें बनाईं, किसी सम्मान के पात्र नहीं समझे गये.
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यह तब है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भूलाभाई देसाई, कैलाशनाथ काटजू और आसफ अली जैसे राष्ट्रवादी वकीलों के साथ मिलकर नवम्बर, 1945 से मई, 1946 तक लाल किले में हुए ऐतिहासिक कोर्टमार्शल में आजाद हिंद सेना के गिरफ्तार कर्नल प्रेमकुमार सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाहनवाज खान का बचाव किया था. नेहरू के ही प्रयासों से उसके 1100 बंदी सैनिकों को भी मुक्ति मिली थी. दूसरी ओर अनेकों अन्य की ट्रेजेडी ऐसी कि कालापानी तक की सजाएं भोगकर वे लौटे तो पता चला कि घरवालों ने उनको वीरगति को प्राप्त हुआ मान लिया था. उनके ज़िंदा या मुर्दा होने की सूचना जो नहीं थी.
लेकिन यह कृतघ्नता भी न आम लोगों के दिल व दिमाग में बसी नेता जी की तस्वीर को खंडित कर सकी, न ही उनसे जुड़े मिथकों को. यह और बात है कि कई आयोगों की जांच-पड़ताल के बावजूद हम आज भी उनके ‘अंतिम दिनों’ के पूरे सच से महरूम और उम्मीदों के आकाश में उनकी अनंतकालिक प्रतीक्षा को अभिशापित हैं. काश कि सत्ताएं समय रहते इस रहस्य से पर्दा उठाने का अपना कर्तव्य निभातीं!
(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)