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Thursday, 26 December, 2024
होममत-विमतनेहरू बनाम RSS का आर्गेनाइज़र: एक जंग जिसने हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया

नेहरू बनाम RSS का आर्गेनाइज़र: एक जंग जिसने हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया

आर्गेनाइज़र  में लगातार छप रही खबरों और आलेखों से त्रस्त नेहरू सरकार के अंतर्गत आने वाली एक मीडिया नियामक संस्था सेंट्रल प्रेस एडवाइज़री ने 2 मार्च, 1950 को आर्गेनाइज़र पर नकेल कसने का फैसला लिया.

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भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  को लेकर इन दिनों फिर से बहस चल पड़ी है. ये बहस पिछले कुछ सालों से गाहे-बगाहे चलती रही है. खासकर केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा नीत एनडीए सरकार आने के बाद और देश भर में भाजपा के राजनीतिक विस्तार के बाद ये चर्चाएं और भी प्रबल हो गई हैं.

दिलचस्प बात यह है कि इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि जिस विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों और संगठनों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के आरोप लग रहे हैं, उन्होंने इसे बचाने की जंग लड़ी और जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार बन रहे हैं उन्होंने इस पर अंकुश लगाने के कदम उठाए जिनके कारण ये बहस आज आज़ादी के लगभग साढ़े सात दशक बाद भी चल रही है.

इस घटनाक्रम की शुरुआत एक दिलचस्प टकराव के साथ सात दशक पहले हुई.


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विवाद

बात 1950 की है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की प्रेरणा से चलने वाला एक अंग्रेजी साप्ताहिक ‘आर्गेनाइज़र ‘ उन दिनों केंद्र में जवाहरलाल नेहरू की सरकार को लेकर तीखे तेवरों के साथ कई सवाल उठा रहा था. इस साप्ताहिक ने खासकर जनवरी और फरवरी 1950 में नेहरू सरकार की नीतियों को लेकर कई तीखे लेख और व्यंग्यात्मक कार्टून प्रकाशित किए.

आलोचना का मुख्य विषय यह था कि पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमानों पर दंगों के कारण बड़ी संख्या में वहां के हिंदू, शरणार्थी के रूप में भारत में आ रहे थे. वैसे तो विभाजन के जख्म भी अभी भरे नहीं थे. आर्गेनाइज़र  लगातार अपने लेखों के माध्यम से नेहरू सरकार की आलोचना करते हुए उसकी पाकिस्तान संबंधित नीतियों पर सवाल उठा रहा था.

उसके लेखों में हिंदुओं की दयनीय व अमानवीय परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बताया गया कि दो वक्त की रोटी के लिए पाकिस्तान से उजड़ कर आए हिंदू ‘रक्त बैंकों’ में अपना खून बेचकर पैसा कमाने को मजबूर हैं. उधर नेहरू ऐसे समय में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत खान को भरोसे में लेने की नीति अपना रहे थे. देश के हालात और पाकिस्तान को लेकर नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना कई हलकों में हो रही थी जिससे उन पर भारी दबाव था.


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आर्गेनाइज़र पर अंकुश

आर्गेनाइज़र  में लगातार छप रही खबरों और आलेखों से त्रस्त नेहरू सरकार के अंतर्गत आने वाली एक मीडिया नियामक संस्था सेंट्रल प्रेस एडवाइज़री  ने 2 मार्च, 1950 को आर्गेनाइज़र  पर नकेल कसने का फैसला लिया. इसी दिन हुई एक बैठक में संस्था ने इस अंग्रेजी साप्ताहिक में प्रकाशित सामग्री की समीक्षा की.

आलोचनात्मक मीडिया पर अंकुश लगाने की नेहरू सरकार को इतनी जल्दी थी कि उसी दिन दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने एक आदेश जारी किया जिसका सार यह था कि पाकिस्तान या दंगों में प्रभावित हिंदुओं के बारे में कोई भी सामग्री प्रकाशित करने से पहले सरकार से उनके प्रकाशन की अनुमति लेनी होगी. इस आदेश के दायरे में केवल लेखन सामग्री ही नहीं बल्कि कार्टून्स को भी शामिल किया गया. ये आदेश जिस ‘पूर्वी पंजाब सुरक्षा अधिनियम ‘ के तहत जारी किया गया, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस अधिनियम की आलोचना एक दमनकारी कानून के तौर पर खुद नेहरू कर चुके थे. पर उनकी ही सरकार ने अपने आलोचक मीडिया को दबाने के लिए इस कानून का सहारा लिया.

उस समय आर्गेनाइज़र  के संपादक के.आर. मल्कानी थे जो आगे चलकर भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के सबसे कद्दावर नेताओं में शुमार हुए. मल्कानी दबने वालों में से नहीं थे, उन्होंने 13 मार्च को फिर एक तीखा संपादकीय लिखकर नेहरू सरकार से कहा कि मीडिया पर अंकुश लगाने से बंगाल त्रासदी पर पर्दा नहीं डाला जा सकता और तथ्यों को जनता के सामने आने से रोकने के बजाए वे अपनी नीतियों को दुरूस्त करें.

इसके बाद 10 अप्रैल, 1950 को मल्कानी और इस साप्ताहिक के प्रकाशक बृज भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में नेहरू सरकार के इस ‘प्री-सेंसरशिप’ आदेश को चुनौती दी. न्यायालय में आर्गेनाइज़र के पक्ष में वकालत करने के लिए प्रख्यात कानूनविद एन.सी. चटर्जी ने मोर्चा संभाला. चटर्जी हिंदू महासभा के पूर्व अध्यक्ष थे.

दिलचस्प बात यह है कि चटर्जी उन्हीं सोमनाथ चटर्जी के पिता भी थे जिन्होंने आगे चलकर लंबे समय तक वामपंथी राजनीति के अग्रणी नेता की भूमिका निभाई.

सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई के दौरान देश भर में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘ पर अंकुश लगाने के नेहरू सरकार के प्रयासों पर बहस छिड़ गई. समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, बंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम.सी.छागला, पश्चिम बंगाल के तत्कालीन गवर्नर कैलाश नाथ काटजू सहित सभी कई सार्वजनिक हस्तियों, प्रमुख विपक्षी दलों और मीडिया संगठनों ने नेहरू सरकार की इस ‘अधिनायकवादी प्रवृत्ति’ की कड़ी आलोचना की.


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निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में 26 मई, 1950 को ऑर्गेनाइज़र के पक्ष में फैसला सुनाया. नेहरू सरकार की हार हुई.

न्यायालय के आदेश में कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत केवल कुछ मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है जो अनुच्छेद के खंड 2 में दिए गए थे. लेकिन ‘पब्लिक ऑर्डर’ ‘इन कारणों में शामिल नहीं था, इसलिए इसके आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता.

ऑर्गेनाइज़र के खिलाफ न्यायालय में अपनी सरकार की इस हार के बाद, नेहरू ने भारतीय संविधान में पहले संशोधन के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर और अधिक प्रतिबंध लगाने के प्रावधान जोड़े. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर अपनी पार्टी के साथ-साथ संसद और मीडिया में जबरदस्त विरोध के बावजूद, नेहरू ने 10 मई 1951 को संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 को संसद में प्रस्तुत किया और इसे 18 जून 1951 को संसद द्वारा पारित कर दिया किया गया.

नेहरू एक प्रकार से एक अंतरिम सरकार चला रहे थे, पहले आम चुनाव अभी नहीं हुए थे, उनके पास संविधान में संशोधान का क्या कोई नैतिक आधार था? लेकिन इसके बावजूद उन्होंने भारतीय संविधान लागू होने के लगभग 16 महीने के भीतर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर मूल संविधान में दिए गए प्रावधानों को बदल कर इसका दायरा सीमित कर दिया और उस बहस को जन्म दिया जो आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी चल रही है.

(संदर्भ:  1. सिक्स्टीन स्टार्मी डेज़, लेखक: त्रिपुरदमन सिंह, प्रकाशक, पेंग्विन रेंडम हाउस इंडिया, 2020, सेलेक्टिड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू (नई दिल्ली, जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड) और साप्ताहिक ‘आर्गेनाइज़र’ के आर्काइव्स से लिया गया है.)

(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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