ओस्लो समझौते पर दस्तखत करने वाले दिवंगत इजरायली नेता शिमोन पेरेज ने एक बार कहा था कि दुश्मन से बातचीत शुरू करते ही आपको एहसास होने लगता है कि पहले आपको अपने लोगों से ही बात करनी चाहिए. व्यापारिक वार्ताएं दुश्मन के साथ नहीं की जातीं, क्योंकि व्यापार को सबके लिए जीत का मामला माना जाता है. जबकि क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) पर यातनादायी वार्ताओं का दौर लंबा खिंच रहा है, यह साफ होता जा रहा है कि सरकार को असली वार्ता तो भारतीय व्यापार जगत से करनी होगी क्योंकि यह लगभग निरपवाद रूप से एक और मुक्त व्यापार समझौते के प्रति शंकालु है.
आगामी महीनों में सरकार को यह एक अहम फैसला करना होगा कि आरसीईपी पर दस्तखत करना है या नहीं. इस समूह से, जिसमें पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलेशिया की हरेक अर्थव्यवस्था शामिल होगी, अलग रहना महंगा साबित होगा. यह क्षेत्र आज दुनिया का अग्रणी आर्थिक पावरहाउस (वैश्विक जीडीपी के 40 प्रतिशत हिस्से के साथ) बन गया है और विश्व व्यापार में सबसे बड़ी हिस्सेदारी करने के साथ ही सबसे ऊंची आर्थिक वृद्धि दर दर्ज करा रहा है. इससे अलग रहने का मतलब यह होगा कि इस अहम बाज़ार को निर्यात करने वाले भारतीय निर्यातकों को शुल्कों की दीवारों और शुल्क से इतर बाधाओं का सामना करना पड़ेगा. बाद में जाकर इसमें शामिल होना जोखिम भरा होगा क्योंकि चीन निश्चित ही इसका विरोध करेगा.
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क्या इससे अलग रहने की कीमत घरेलू उत्पादकों को चीन और दूसरे क्षेत्रीय खिलाड़ियों की तरफ से अनियंत्रित आयातों की बाढ़ में डूब जाने देने की कीमत से सस्ती नहीं होगी? इस पेचीदा सवाल का सरकारी जवाब यह होगा कि वह रोटी खाने और बचाकर रखने की भी कोशिश करेगी. वह दस्तखत करना चाहती तो है मगर घरेलू उत्पादकों को अनियंत्रित आयातों की बाढ़ में डूबने से बचाने के उपाय भी जोड़ना चाहती है. ऐसे सुरक्षा उपाय की व्यवस्था हो पाएगी या नहीं, यह आगे पता चलेगा. लेकिन असली इम्तहान तो तब होगा जब उसे बिना इन उपायों के दस्तखत करने को कहा जाएगा. वैसे, असली मसला तो इस दोहरे विकल्प से इतर का है कि या तो दस्तखत करो या अलग रहो. बल्कि मसला यह है कि आरसीईपी का सदस्य बनने के बाद भी देश किस तरह फायदे में रहे.
दूसरे शब्दों में, घरेलू अर्थव्यवस्था को आयातों से मिलने वाली चुनौती के लिए तैयार करना होगा— ज्यादा कुशलता हासिल करके (मसलन परिवहन में); बिजली की उपयुक्त कीमत तय करके (किसानों को रियायत देने के लिए औद्योगिक उपभोक्ताओं पर बोझ न डालें); उत्पादकता बढ़ा कर (अगर घरेलू डेरी न्यूजीलैंड से प्रतिस्पर्धा में नहीं टिक पाती तो प्रति मवेशी दूध उत्पादन बढ़ा कर); मानकों और प्रमाणीकरण में सुधार करके ताकि शुल्क से इतर बाधाओं को पार किया जा सके; जरूरत से ज्यादा वित्त की लागत को घटा कर. अंततः, उस मुद्रा नीति से छुटकारा पाना होगा, जो रुपये की कीमत को जरूरत से ज्यादा बढ़ाती है और इस तरह आयातों को सस्ता करके सभी निर्यातों पर टैक्स लगाती है.
जाहिर है, इस सबके लिए व्यवस्थागत परिवर्तन जरूरी है और ये रातोरात नहीं हो सकते. दरअसल इन पर सात साल पहले ही काम शुरू हो जाना चाहिए था, जब आरसीईपी के लिए वार्ता शुरू ही हुई थी. आखिर, इस क्षेत्र की हरेक अर्थव्यवस्था— चाहे वह वियतनाम हो या कंबोडिया, फिलीपींस हो या म्यांमार— अगर खुले क्षेत्रीय व्यापार माहौल में बनी रह सकती है तो साफ है कि समस्या आरसीईपी या दूसरा कोई मुक्त व्यापार समझौते की वजह से नहीं है जिस पर देश ने पहले ही दस्तखत कर रखा है, बल्कि समस्या घरेलू अर्थव्यवस्था की कमजोरियों की वजह से है. इसलिए, भारत को बदलना होगा, और फिलहाल जिस सबसे महत्वपूर्ण सुरक्षात्मक उपाय के लिए बात करने की जरूरत है वह यह है कि आवश्यक परिवर्तनों के लिए समय मांगा जाए. चीन ने नई सदी की शुरुआत पर विश्व व्यापार संगठन में शामिल होते समय यही किया था और बाद के वर्षों में नाटकीय सफलताएं दर्ज़ की थी. भारत चीन से सीख ले सकता है.
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इसलिए, वार्ताओं का सचमुच में चिंताजनक पहलू यह है कि अर्थव्यवस्था को अधिक खुले व्यापारिक माहौल के लिए तैयार करने के बारे में एक भी शब्द नहीं सुनाई देता. हानिकारक क्रॉस-सब्सिडी को खत्म करने के लिए बिजली की दरों में सुधार का कोई प्रस्ताव नहीं किया जाता; गायों के संरक्षण का शोर तो मचाया जाता है मगर कुशल डेरी व्यवस्था की कोई बात नहीं करता; सरकार में बैठे कई प्रभावशाली रुपये की बढ़ी कीमत की लागत से अनजान हैं; और रिजर्व बैंक दरों में जो कटौती करता है उसका कोई असर नहीं होता. यह सब नहीं बदला तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि भारत आरसीईपी पर दस्तखत करता है या नहीं. दोनों ही स्थितियों में अर्थव्यवस्था आधी-अधूरी सफलता ही हासिल करती रहेगी.
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