हमारा संविधान सभी नागरिकों को गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करने की आजादी देने के साथ ही समता का अधिकार भी देता है. हमारे देश का कानून दो वयस्कों को अपनी इच्छा और पसंद से जीवन साथी का चयन करने का अधिकार भी देता है. इस संबंध में अनेक न्यायिक व्यवस्थाएं भी हैं लेकिन इसके बावजूद कई बार समाज के स्वंयभू ठेकेदारों को यह पसंद नहीं आता है.
इसका नतीजा यह होता है कि संविधान में समता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्राप्त होने के बावजूद परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर अपनी पसंद से अंतरजातीय, सगोत्र या अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले युगल कई बार हिंसा का शिकार हो रहे हैं और उनकी निर्ममता के साथ हत्या तक कर दी जाती है.
झूठी शान की खातिर इस तरह से होने वाली हत्याओं पर सुप्रीम कोर्ट लगातार सख्त रुख अपना रहा है और उसने तो इसे बिरलतम अपराध की श्रेणी में रखने और इसके लिए दोषियों को मृत्यु दंड तक देने का सुझाव दिया है. इसके बावजूद ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएं हो रही हैं.
देश के विभिन्न हिस्सों में अक्सर ही अंतरजातीय, सगोत्र और अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले युगल जोड़ों की निर्ममता से हत्या करने या इस तरह के विवाह के कारण सांप्रदायिक हिंसा की खबरें सामने आती रहती हैं.
इस तरह की खबरें पढ़कर सहज ही सवाल उठता है कि देश को आजादी मिलने के 75 साल बाद आज भी इस तरह की घटनाएं क्यों और कैसे हो रही हैं. इसका जवाब भी दिमाग में कौंधता है कि आधुनिक भारत के निर्माण की ओर तेजी से बढ़ने के बावजूद हमारा समाज जातिवादी और रूढ़िवादी कट्टरता के चंगुल से अभी तक पूरी तरह बाहर नहीं निकल सका है.
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झूठी शान की खातिर होती हत्याएं
जातिवादी और रूढ़िवादी संकीर्णता और कट्टरता का ही नतीजा है कि अनेक न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद धर्म, जाति या वर्ण से इतर विवाह करने वाले युवकों और युवतियों की झूठी शान की खातिर बलि चढ़ाई जा रही है. झूठी शान की खातिर ऐसे युगल जोड़ों के साथ अमानवीय व्यवहार और हिंसा को बढ़ावा देने में खाप पंचायतों की भी अहम भूमिका है.
प्राप्त जानकारी के अनुसार देश में 2017 से 2019 के दौरान झूठी शान की खातिर 145 हत्याएं हुईं. इस तरह की घटनाओं में सबसे आगे झारखंड रहा जहां ऑनर किलिंग की 50 घटनाएं हुई जबकि इसी अवधि में उत्तर प्रदेश में 14 और महाराष्ट्र में ऑनर किलिंग की 19 घटनाएं हुईं.
इसी तरह, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2014 से 2016 की अवधि में देश में ऑनर किलिंग के 288 मामले दर्ज हुए. इनमें 2014 में 24, वर्ष 2015 में 192 और वर्ष 2016 में 68 मामले थे.
ये आंकड़े इस बात की तरफ इशारा करता है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के बहुचर्चित नारे के बावजूद झूठी शान की खातिर विजातीय या सगोत्र विवाह करने वाली नवविवाहितों की हत्या की घटनाएं जारी हैं.
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अब तक सुप्रीम कोर्ट ने इस पर क्या-क्या कहा है
ऑनर किलिंग की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 27 मार्च 2018 को Shakti Vahini vs Union Of India मामले में इस विषय पर विस्तार से चर्चा की और इस समस्या पर काबू पाने के लिए अनेक निर्देश दिये थे. यह एक जनहित याचिका थी जिसमें केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को ऑनर किलिंग की घटनाओं की रोकथाम के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर की योजनाएं तैयार करने और विजातीय या सगोत्र विवाह करने वाले युगल जोड़ों की सुरक्षा के लिए प्रत्येक जिले में विशेष प्रकोष्ठ स्थापित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था.
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सख्त लहजे में कहा था कि वयस्क पुरुष और स्त्री अगर अंतर-जातीय विवाह करते हैं तो उन पर किसी भी संगठन या खाप पंचायत का कोई भी हमला गैर-कानूनी होगा और कोई भी व्यक्ति अथवा समाज ऐसे विवाह पर कोई सवाल नहीं कर सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने Hari & Anr Vs The State of Uttar Pradesh प्रकरण में भी जाति से प्रेरित हिंसा की घटनाओं पर चिंता व्यक्त की और कहा कि यह उचित समय है कि समाज में जाति के नाम पर किए गए बर्बरतापूर्ण अपराधों के प्रति सख्त अस्वीकृति के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करें.
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि देश में ऑनर किलिंग के मामलों की संख्या में कुछ कमी आई है लेकिन यह पूरी तरह बंद नहीं हुई है और यही उचित समय है कि ऐसे अपराधों का पुरजोर विरोध किया जाए.
न्यायालय ने कहा कि जाति-आधारित प्रथाओं में ‘कट्टरता’ आज भी कायम है और यह सभी नागरिकों के लिए संविधान में समता के उद्देश्य को बाधित करती है.
जातिगत सामाजिक बंधनों का उल्लंघन करने के आरोप में दो युवकों और एक महिला पर लगभग 12 घंटे तक हमला किया गया और उनकी हत्या कर दी गई थी. यह मामला उत्तर प्रदेश के बरसाना का मार्च 1991 का था. इस घटना पर अपने फैसले में न्यायालय ने कहा था कि जाति-प्रेरित हिंसा के ये प्रकरण इस तथ्य को उजागर करते हैं कि आजादी के 75 वर्ष के बाद भी जातिवाद खत्म नहीं हुआ है.
इसी तरह के एक अन्य मामले में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्र की पीठ ने नौ मई 2011 को Bhagwan Dass vs State (NCT) Of Delhi अपने फैसले में कहा था कि किसी भी कारण से सम्मान की रक्षा के लिए की गयी हत्या बिरलमत अपराध की श्रेणी में आती है और इसके लिए दोषी को मृत्यु दंड दिया जाना चाहिए.
न्यायाधीशों ने कहा था कि यह पूरी तरह बर्बरतापूर्ण है जिसे खत्म करना होगा क्योंकि इसमें सम्मान की खातिर हत्या करने जैसा सम्मानीय कुछ नहीं है बल्कि यह घृणित और बेशर्मी के साथ की गयी हत्या है. नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन करने वाली खाप पंचायतों और संस्थाओं पर अंकुश लगाना चाहिए.
राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी अगस्त, 2010 में इस तरह की घटनाओं पर काबू पाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 300 में संशोधन कर ऑनर किलिंग को जघन्य अपराध के रूप में शामिल करने का सुझाव दिया था.
इस संवेदनशील विषय पर विधि आयोग ने भी अपनी 242वीं रिपोर्ट में ऑनर और परंपरा के नाम पर वैवाहिक स्वतंत्रता के मामले में हस्तक्षेप की रोकथाम के लिए एक कानून बनाने का सुझाव दिया था.
उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश पी वी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली विधि आयोग ने अगस्त 2012 में केंद्र सरकार को विवाह की आजादी में हस्तक्षेप से रोकथाम विषय पर एक विधेयक का मसौदा भी सौंपा था. इसमें समाज को गुमराह करने और भड़काने वाले फरमानों को कानून के दायरे में शामिल करके इसे गैर जमानती अपराध बनाने का प्रस्ताव था. लेकिन ऐसा लगता है कि यह प्रस्ताव भी राजनीति की भेंट चढ़ गया है.
इस मामले की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अप्रैल 2015 में लोकसभा के सदस्य रबींद्र कुमार जेना ने ऑनर और परंपरा के नाम पर वैवाहिक स्वतंत्रता के मामले में हस्तक्षेप की रोकथाम के लिए एक निजी विधेयक सदन में पेश किया था.
विजातीय या सगोत्र विवाह करने वाले युवक, युवतियों को समुचित संरक्षण प्रदान करने, झूठी शान की खातिर ऐसे युगल जोड़ों को प्रताड़ित करने को दंडनीय अपराध बनाने के साथ ही इसमें संलिप्त व्यक्तियों और ऐसी बिरादरी, पंचायत और समाज के स्वंयभू ठेकेदारों के लिए कठोर सजा के प्रावधान वाला कानून अब समय की जरूरत है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार तमाम न्यायिक व्यवस्थाओं और विधि आयोग की रिपोर्ट के आलोक में इस संबंध में प्रभावी कानून बनाने के लिए ठोस कदम उठायेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)
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