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Thursday, 21 November, 2024
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अयोध्या, काशी, मथुरा- ज्ञानवापी मस्जिद पर अदालत का फैसला ‘अतीत के प्रेतों’ को फिर से जगाएगा

ज्ञानवापी मस्जिद पर वाराणसी की जिला अदालत का आदेश इस उम्मीद को तोड़ता है कि अयोध्या में जो कुछ हुआ उसे अब दोहराया नहीं जाएगा, गड़े मुर्दों को उखाड़ते रहना विनाश को बुलावा देना ही है.

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जो लोग यह मान बैठे थे कि अयोध्या-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों के सर्वसम्मत फैसले के साथ भारत में मंदिर-मस्जिद के शाश्वत विवादों का अंत हो गया है, उन्हें वाराणसी की जिला अदालत के फैसले ने झकझोर दिया है. इस उपमहादेश के विवादग्रस्त मध्ययुगीन इतिहास के प्रेत जल्दी शांत नहीं होने वाले हैं.

जज आशुतोष तिवारी की जिला अदालत ने एक दीवानी मुकदमे में दायर इस अर्जी को कबूल कर लिया कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ज्ञानवापी मस्जिद की जांच करके यह बताए कि वह काशी विश्वनाथ मंदिर को गिरा कर तो नहीं बनाई गई. यह फैसला आते ही ऐसा लगने लगा कि अयोध्या-बाबरी मस्जिद कहानी का दूसरा भाग शुरू होने वाला है और इसकी शुरुआत न्यायपालिका की ओर से की जा रही है.

मैं उन आशावादियों में रहा हूं, जो यह मानते थे कि अयोध्या कांड के साथ इस तरह के विवादों का अंत हो गया है. इसका जिस तरह निपटारा किया गया उससे हर कोई बेशक पूरी तरह संतुष्ट नहीं था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से एक फैसला किया और सभी पक्षों ने उसे मान लिया था. अब यह जो नया मोड़ आया है उसकी क्या व्याख्या की जाए?

अगर आप इस पर मुझे संपादकीय टिप्पणी लिखने को कहेंगे तो मैं बहुत बढ़िया तरीके से लिखे गए उस फैसले के एक अंश को खास तौर से उदधृत करना चाहूंगा.

सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने 1991 के उस ‘पूजास्थल (विशेष प्रावधान) एक्ट’ का हवाल दिया था जिसमें कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के समय जो धार्मिक स्थल हासिल हुए थे उनका संरक्षण किया जाएगा. इस कानून में अयोध्या को अपवाद माना गया क्योंकि उस पर पहले से विवाद चल रहा था. न्यायाधीशों ने अपने फैसले में लिखा कि किसी और मामले को अपवाद का दर्जा पाने का हक नहीं है, न ही यह वैधानिक अथवा संवैधानिक रूप से संभव है.


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अगर हम सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की सीधी नकल उतार दें, तो हमारा संपादकीय कुछ इस तरह का होगा. उपरोक्त कानून का हवाला देने के बाद कोर्ट ने आगे व्यवहार में लाए जाने वाले जो पैराग्राफ लिखे हैं वे भविष्य के लिए कानून तय कर देते हैं. न्यायाधीशों ने लिखा है- ‘पीछे की ओर न लौटना संविधान के आधारभूत सिद्धांतों में शामिल है और धर्मनिरपेक्षता भी ऐसा ही एक सिद्धांत है.’

न्यायाधीशों ने लिखा है- ‘पीछे की ओर न लौटना धर्मनिरपेक्षता के हमारे मूल्यों की एक अनिवार्य विशेषता है.’ उन्होंने आगे लिखा- ‘संविधान ने हमारे राष्ट्र के इतिहास और भविष्य के बारे में भी कहा है… हमें अपने इतिहास का बोध होना चाहिए लेकिन हमें उसका सामना करने और उससे आगे बढ़ने की जरूरत है.’ न्यायाधीशों ने उस ऐतिहासिक आदेश में साफ कहा है कि 15 अगस्त 1947 को हमें जो आज़ादी मिली वह जख्मों को भरने का महान क्षण था.

इसके बाद न्यायाधीशों ने पूजास्थल से संबंधित कानून की डोर पकड़ते हुए इस तथ्य पर ज़ोर दिया कि ‘संसद ने बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में आदेश दिया है कि वर्तमान या भविष्य को प्रताड़ित करने के लिए इतिहास या उसके भूलों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा.’ इस फैसले के सार को हम तीन बिंदुओं में प्रस्तुत कर सकते हैं-

1. 15 अगस्त 1947 को हमें जो धार्मिक स्थल हासिल हुए उन सभी की हम रक्षा करेंगे. इसमें अयोध्या विवाद को अपवाद मान जाएगा.

2. भविष्य में संसद ने अगर अपनी बुद्धि से इस कानून को रद्द या संशोधित करना चाहा, तो यह फैसला उसके लिए बाधक बनेगा. न्यायाधीशों ने ‘पीछे की ओर न लौटने’ की भावना को हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान की मूल विशेषताओं में शामिल मानते हुए इसे इसका आधारभूत केंद्रीय तत्व बताया, जिसे संशोधित नहीं किया जा सकता.

3. यह फैसला पूरे राष्ट्र, सरकार, राजनीतिक दलों और धार्मिक समूहों के लिए एक आह्वान था कि वे बीते हुए को छोड़ कर आगे बढ़ें.

इन व्याख्याओं ने मेरे जैसे कई लोगों को आश्वस्त किया और वे मान बैठे कि इस तरह के तमाम विवादों को अब दफन किया जा चुका है और उनकी अंत्येष्टि की जा चुकी है. बाबरी मस्जिद आंदोलन के दौरान दो नारे खूब लगाए जाते थे- ‘ये तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है’ , ‘तीन नहीं हैं तीन हज़ार ’.

पहला नारा मथुरा में भगवान कृष्ण के जन्मस्थल और वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के बगल में खड़ी मस्जिदों के खिलाफ था, तो दूसरा नारा यह कहता था कि यह आंदोलन उन सभी मुस्लिम इबादतगाहों के खिलाफ चलेगा जिन्हें ‘मंदिर को तोड़कर बनाया गया है.’ उनकी संख्या मोटे तौर पर तीन हज़ार है.

उम्मीद की गई थी कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इन सभी विभाजनकारी विचारों पर विराम लगेगा. तीन दशकों से ज्यादा समय तक चले विभाजनकारी, हिंसक बाबरी दुःस्वप्न से गुजरे हम जैसे लोगों ने यही आशा की थी कि अब यह सब फिर नहीं दोहराया जाएगा. लेकिन दुर्भाग्य से, वाराणसी कोर्ट ने कानून की सवालिया व्याख्या करके इस आशावादिता पर प्रश्न खड़ा कर दिया है. जाहिर है कि न्यायमूर्ति तिवारी ने या तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नहीं पढ़ा है या उसके आशय की बिल्कुल अलग व्याख्या की है.


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किसी भी ऊपरी अदालत, खासकर हाई कोर्ट का विवेकी न्यायाधीश वाराणसी कोर्ट के इस आदेश को खारिज कर सकता है.

एक तो सवाल यह है कि अचानक यह कैसे हो गया? मथुरा के मामले को लेकर भी हाल में एक मामला दायर किया गया था. तो क्या ये सभी कदम एक साझा मंशा से एक साथ उठाए जा रहे हैं? अगर ऐसा है तो क्या यह विहिप-आरएसएस और भाजपा में ऊपर की हस्तियों की शह से हो रहा है? और अंततः, ऐसा भी है तथा उनकी मंशा सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मूल भावना का अनादर करना है, तो क्या ऊपरी अदालत जब इस आदेश को खारिज कर देगी तो वे रुक जाएंगे?

उन्हें अयोध्या आंदोलन के नक्शे-कदम पर चलने से कोई नहीं रोक पाएगा. और जब एक प्रयोग किया जा चुका है तब अगले प्रयोग में दो शताब्दी नहीं लगेगी. इस मामले में बहुमत की चलेगी और क्या हुआ जो इसके कारण एक दशक से ज्यादा तक खूनखराबा और विध्वंस चले? ‘इतिहास की भूलों को सही करने’ के लिए भला कौन-सी कीमत बड़ी मानी जाएगी? 21वीं सदी के भारत में 16वीं-17वीं सदी की वापसी विनाश को बुलावा देना ही होगा. और यह भावी पीढ़ियों के भविष्य को बंधक बना देगा.

इतिहास को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए. इसीलिए इसे इतने व्यापक तौर पर पढ़ाया जाता है और इसका इतना राजनीतिकरण होता है. लेकिन इतिहास की अपनी समझ के आधार पर अपने भविष्य को प्रभावित करने वाले फैसले करना एक्सप्रेस-वे पर सामने देखकर नहीं बल्कि पीछे देखने वाले शीशे पर नज़र टिका कर गाड़ी चलाना है. जाहिर है, तब आप ऐसे भयानक हादसे के शिकार होंगे जो आपको ही नहीं दूसरों को भी बुरी तरह घायल कर देगा.

प्रसिद्ध स्तंभकार टॉम फ्रीडमैन की 2005 में आई किताब ‘द वर्ल्ड इज़ फ्लैट ’ के जिस अंश का सबसे ज्यादा उल्लेख किया जाता है उसमें कहा गया है कि वही देश, कंपनियां और संगठन बेहतर रहते हैं जो अपने सपनों और यादों में तुलनात्मक संतुलन बनाकर चलते हैं.

उन्होंने लिखा है- ‘मुझे इस बात की खुशी है कि 14वीं सदी में आप महान थे लेकिन यह तब की बात थी और यह आज है. जो समाज सपनों से ज्यादा यादों में जीते हैं उनमें ज्यादा लोग पीछे की ओर देखने में ही ज्यादा समय गंवाते रहते हैं. उन्हें वर्तमान का पूरा फायदा उठाने में नहीं बल्कि बीते हुए की जुगाली करने में ही अपनी शान और अपना स्वाभिमान नज़र आता है और प्रायः वह वास्तविक अतीत नहीं होता बल्कि काल्पनिक और महिमामंडित अतीत होता है. और वे बेहतर भविष्य की कल्पना करने और उसे साकार करने की कोशिश करने की बजाय उस अतीत से चिपके रहते हैं.’

अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हमें इसी दिशा की ओर, भविष्य में मोड़ता है. वाराणसी की अदालत और उसके आदेश का जश्न मनाने वाले हमें उलटी दिशा की ओर मुड़ने का प्रलोभन दे रहे हैं. अब फैसला हमें करना है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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