scorecardresearch
Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टUPSC रिफॉर्म, चीन-पाक खतरे से निपटना और कृषि सुधार को लागू करना; तीसरे कार्यकाल में मोदी को क्या करना चाहिए

UPSC रिफॉर्म, चीन-पाक खतरे से निपटना और कृषि सुधार को लागू करना; तीसरे कार्यकाल में मोदी को क्या करना चाहिए

ओबीसी का मुद्दा, चुनाव सुधार, दल-बदल विरोधी कानून का खात्मा और यूनिवर्सल बेसिक इनकम की शुरूआत उन प्रमुख लक्ष्यों में से हैं, जिन्हें पीएम को तीसरा कार्यकाल जीतने पर अपनाना चाहिए.

Text Size:

आजकल बातचीत में एक सवाल प्रायः पूछा जाता है– ‘तो, इस बार चुनाव कौन जीत रहा है? और कितने बहुमत से?’ इस सवाल के जवाब में चलिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे को ही मान लेते हैं. तब हम उन्हें अपनी ख़्वाहिशों की 10 सूत्री लिस्ट प्रस्तुत कर सकते हैं कि हमारी नजर से वे अपनी तीसरी पारी में क्या-क्या कर सकते हैं.

मोदी 2024 के आम चुनाव में अपनी जीत न केवल पक्की मान चुके हैं बल्कि वे बार-बार इसका दावा भी कर रहे हैं. वे इस तरह व्यवहार कर रहे हैं मानो अगले चुनाव के बाद उनका तीसरी बार सत्ता में आना तो तय ही है, फासला बस इस चुनावी प्रचार में लगने वाले समय का है.

उदाहरण के लिए, इस सप्ताह केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक असामान्य रूप से ज्यादा लंबी चली. उन्होंने एक महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन करते हुए अंतरिक्ष सेक्टर में 100 फीसदी एफडीआइ (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की मंजूरी की घोषणा की. उन्होंने अपने मंत्रियों से कहा कि वे अपने अगले कार्यकाल के पहले 100 दिनों के लिए एजेंडा तैयार करना शुरू कर दें. इसलिए हमें लगता है कि यही मौका है कि हम उनके तीसरे कार्यकाल में उनसे अपनी मांगों की लिस्ट तैयार कर लें. पहली तीन मांगें फिलहाल जो राजनीतिक मसले हावी हैं उनसे उभरी हैं.

‘ओबीसी’ को आरक्षण देने के सवाल पर अंतिम फैसला कर लेना चाहिए. एक विकल्प तो यह है कि वे एक सीमा तय कर दें कि यथास्थिति बनी रहेगी और 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का उल्लंघन नहीं किया जाएगा. इसके लिए जरूरी है कि उनकी पार्टी और उसके सहयोगी दल मराठों, जाटों को आरक्षण देने के सवाल को उछालना बंद करें या ऐसे कदम उठाने से परहेज करें जिससे कर्नाटक में जो बेमानी गणित बनाया गया है वह और जटिल होता हो. इसकी जगह वे पूरे देश में जातीय जनगणना करवाएं ताकि साफ हो जाए कि ‘ओबीसी’ में कौन-कौन जातियां हैं, और विवाद बंद हो. अगर इसके लिए आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा करनी पड़े तो वह भी कर दिया जाए. हमारी राजनीति को बंधक बनाकर रखने वाले इस मसले का स्थायी निबटारा कर दिया जाए. फिलहाल जो स्थिति है उससे तो अनिश्चितता, टकराव, रेलवे व हाइवे पर जाम, दंगे और लूटपाट के सिवा कुछ हासिल नहीं है.

मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में कृषि सुधारों की गंभीर कोशिश की लेकिन विफल रहे. अब तीसरे कार्यकाल में उन्हें भारत के लिए सबसे जरूरी इन सुधारों के वास्ते माहौल बनाने में वास्तविक राजनीतिक पूंजी और समय लगाने की जरूरत होगी. पी.वी. नरसिंहराव ने लाइसेंस-कोटा राज वाली पुरानी उद्योग नीति को तो आसानी से दफन कर दिया था लेकिन कृषि और किसानों को बाजार से जोड़ना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इनके साथ राजनीतिक ताकत जुड़ी है. लेकिन यह भी याद रहे कि राव ने ये सुधार अल्पमत वाली सरकार चलाते हुए किए थे. मोदी में अब इतना साहस तो पैदा होना चाहिए कि वे ‘एमएसपी’ वाली व्यवस्था को खत्म करें.

60 साल पहले यह जब लागू की गई थी तब इसे सुधार माना गया था, लेकिन आज यह किसान विरोधी है और बाजार को खराब तथा नष्ट कर रही है. अगर सरकार को अपनी खाद्य सुरक्षा भंडार के लिए अनाज चाहिए, तो वह खुले बाजार से खरीदे और निजी व्यापार से मुक़ाबला करे. व्यापार को मुक्त कर देना चाहिए ताकि मौसम की वजह से फसलों पर होने वाले प्रभावों, उनके अभाव और जमाखोरी जैसी चुनौतियों का सामना निर्यात तथा आयात के जरिए किया जाए.

भारतीय किसानों का छोटा हिस्सा ही सरकारी खरीद के लायक सरप्लस फसल उगाता है. आज सभी जमींदार किसान ‘पीएम किसान’ का लाभ ले रहे हैं. इसके अलावा अरबों रुपये खाद, बिजली, पानी के लिए सब्सिडी पर खर्च किए जा रहे हैं. यह सब बंद होने चाहिए और इनकी जगह कृषि क्षेत्र को एक बड़ी नकदी सहायता दी जाए, भले ही इसकी कुल मिलाकर लागत ज्यादा हो. खेती की सभी लागतों की कीमत बाजार के हिसाब से तय हो. ऐसा करने से तमाम तरह की एजेंसियां खत्म होंगी, कार्यकुशलता बढ़ेगी और सबसे महत्वपूर्ण यह कि पर्यावरण, खासकर भूजल के स्तर का जो विनाश हो रहा है वह रुकेगा.


यह भी पढ़ेंः पाकिस्तान ने पहली बार सेना के खिलाफ वोट किया है, लोकतंत्र जिंदा तो है पर मर भी चुका है


गरीबों के लिए जारी सभी सहायता कार्यक्रमों को बंद करके सबके लिए एक मूल आय की व्यवस्था की जाए. इन कार्यक्रमों में ‘मनरेगा’, ‘एनएफएसए’ के तहत मुफ्त अनाज, रसोई गैस सब्सिडी आदि सभी शामिल हैं. तीसरी बार बहुमत से सत्ता में आने वाली सरकार को यह तो करना ही चाहिए. ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ का वादा तो याद रहना ही चाहिए.

अब मैं अगर यह कहूं कि यूपीएससी आज जिस रूप में है उसे खत्म कर देना चाहिए, तो आप चीखने लगेंगे. मगर यह शीर्ष स्तर की सरकारी नौकरियों में भर्ती की यांत्रिक रटंतु व्यवस्था बनकर रह गई है. प्रतियोगिता तो साफ-सुथरी है, लेकिन इस सिस्टम पर सैकड़ों करोड़ वाली दर्जनों कोचिंग एकेडमियों का ग्रहण लगा है, जिनमें कुछ तो ‘यूनिकॉर्न’ कंपनियों जैसी बड़ी हो गई हैं.

मध्यवर्ग, निम्न-मध्यवर्ग, और मोदी जिसे नव-मध्यवर्ग कहते हैं उन सभी वर्गों के परिवार मांग कर-उधार लेकर अपने बच्चों को बड़े शहरों की झोपड़पट्टीनुमा पीजी में रहने के लिए भेज रहे हैं. और ये बच्चे लगभग असंभव हालात का सामना करते हुए परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. उनमें से हजार-दो हजार ही कामयाब हो पाते हैं और बाकी के लाखों परिवार कर्ज के जाल में फंसकर तबाह होते रहते हैं. कुल मिलाकर यह निम्न-मध्यवर्ग परिवारों द्वारा मांग कर-उधार लेकर जुटाए गए पैसे का निजी निवेश से शुरू किए गए कोचिंग व्यवसाय में विशाल पैमाने पर स्थानांतरण ही है.

इसमें सुधार से केवल परिवारों की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं होगा. यह रटकर इम्तहान पास करने, और नया कुछ करने की प्रवृत्ति को मार डालने वाली जड़ हो चुकी व्यवस्था में सुधार का मामला है. नौकरी में भर्ती की एक नयी व्यवस्था बनाना बेहद जरूरी है, जिससे रटंत विद्या पर आधारित ‘जेईई’ और ‘नीट’ जैसी प्रतियोगिताओं में भी सुधार का विचार उभरे.

अगर मोदी अपने पहले कार्यकाल में योजना आयोग और रेल बजट को खत्म कर सकते हैं और दूसरे कार्यकाल में सेना में भर्ती की व्यवस्था को बदलकर ‘अग्निवीर’ व्यवस्था लागू कर सकते हैं तो उनके तीसरे कार्यकाल के लिए हम उनके पैमाने को और ऊंचा कर सकते हैं.

अब हम कुछ राजनीतिक सुधारों की बात करते हैं. दलबदल विरोधी कानून को खत्म किया जाए. हम जिस तरह के भ्रष्टाचार और तिकड़म देख चुके हैं उससे साफ है कि क़ानूनों से फर्क नहीं पड़ रहा, वे खरीद-फरोख्त को रोकने की जगह उसे बढ़ावा ही देते हैं. दलों पर ही छोड़ दिया जाए कि वे अपना घर संभालें. इसी के साथ ‘सचेतक’ वाली व्यवस्था को भी केवल वित्त विधेयकों और विश्वास प्रस्ताव के लिए लागू किया जाए. मैंने पहले भी इसकी मांग इसी कॉलम (‘नेशनल इंटरेस्ट’) में की थी.

इसके साथ चुनाव सुधार भी किए जाएं, जिनके चलते वे कदम भी रद्द किए जा सकते हैं जिन्हें पहले कभी सुधार का कदम बताया गया था. चुनाव में पार्टी चाहे जितना भी खर्च करे लेकिन उसके उम्मीदवार के चुनावी खर्च की सीमा तय करना बेमानी है. इसी तरह ‘आदर्श आचार संहिता’ का भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि कोई इसकी परवाह नहीं करता.

उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री मोदी ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार करते हुए घोषणा कर डाली थी कि देश भर में मुफ्त अनाज देने की स्कीम को आगे भी जारी रखा जाएगा. इसी तरह, मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार बंद कर देने वाली व्यवस्था भी बिलकुल बेकार हो चुकी है. हर कोई इसका उल्लंघन करता है, और डिजिटल तथा सोशल मीडिया के इस युग में यह वैसे भी निरर्थक हो चुकी है. इसे लागू करना अधिकतम सरकार और शून्य शासन का मामला ही माना जाएगा.

अपनी दो पारियों में मोदी ने अब तक तीन सुधारों से कदम वापस खींचे हैं— भूमि अधिग्रहण, कृषि, और श्रम सुधारों से. उन्होंने इन पर वास्तविक चर्चा करवाए बिना इन्हें लागू करने की जल्दबाज़ी की. पहले दो सुधारों के लिए अध्यादेश का रास्ता अपनाया. जमीन बिक्री को आकर्षक बनाकर और डिफेंस आदि के लिए छूट देकर सरकार ने पहले वाले सुधार को आंशिक रूप से बचाने की कोशिश की. अब बाकी दो सुधारों को एजेंडा में शामिल किया जाना चाहिए.

थिएटरीकरण सेना में एक बड़ा सुधार है, जिसे करने में चार दशक की देरी हुई है. अफसोस की बात यह है कि मोदी के दो कार्यकालों में भी इसे पूरा नहीं किया जा सका है. इसका नतीजा दिखावटी बदलाव के तहत नये आर्मी कोर रूप में हमारे सामने है जिसे मिडल सेक्टर में चीन से भिड़ने के लिए तैनात किया गया है.

हमारी इस लिस्ट का अंतिम मुद्दा सबसे चुनौतीपूर्ण है. अब करीब 65 साल से भारत की बाह्य सुरक्षा दो मोर्चों की चुनौती से जूझ रही है. चीन भारत को घेरने के लिए पाकिस्तान का सस्ते औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है. मोदी ने भारत के विदेशी संबंधों और रणनीतिक स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में काफी प्रगति की है. क्या वे भारत को इस दो मोर्चों की चुनौती के अभिशाप से मुक्ति दिला सकते हैं?

इसके लिए भारत को परमाणु शक्ति से लैस अपने दो में से एक पड़ोसी देश से झगड़ा सुलटाना होगा. यह मुश्किल है और इसके साथ राजनीतिक जोखिम भी जुड़ा है. लेकिन मोदी अगर वास्तव में अपनी कोई विरासत छोड़ना चाहते हैं, तो भारत को त्रिशूलनुमा रणनीतिक चुनौती के चंगुल से मुक्त कराना एक सच्चा उपहार होगा. वैसे, वे नये मंदिर बनाते, पुरानों का जीर्णोद्धार तो करते ही रह सकते हैं.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः इंदिरा, राजीव, वाजपेयी-आडवाणी की वह तीन भूलें जिसने बदली भारतीय राजनीति की दिशा


 

share & View comments