scorecardresearch
Saturday, 27 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टपाकिस्तान ने पहली बार सेना के खिलाफ वोट किया है, लोकतंत्र जिंदा तो है पर मर भी चुका है

पाकिस्तान ने पहली बार सेना के खिलाफ वोट किया है, लोकतंत्र जिंदा तो है पर मर भी चुका है

इतिहास में पहली बार 70 फीसदी से ज्यादा मतदान करके पाकिस्तानी वोटर्स ने फौज के खिलाफ वोटिंग करके शिकस्त दी है, इसे जम्हूरियत की जीत नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे?

Text Size:

पाकिस्तान में चुनाव के नतीजे आए एक सप्ताह से ज्यादा हो गया है लेकिन अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि जीता कौन और हारा कौन. न ही यह कहा जा सकता है कि नयी सरकार कौन बनाएगा— चुनाव जीतने वाला, या हारने वाला, या जीतने तथा हारने वालों के कुछ नेताओं का गठबंधन, या सारे हारने वाले? ज्यादा संभावना तो यही लग रही है कि जीतने तथा हारने वालों का कोई गठबंधन ही सरकार बनाएगा.

जब तक यह तमाशा जारी है, आइए हम इस अहम सवाल पर विचार करें कि पाकिस्तान में हुए इस चुनाव में लोकतंत्र की जीत हुई या हार.

आमतौर पर यही माना जाता रहा है कि हर चुनाव पाकिस्तान में जम्हूरियत के जज्बे को मजबूत करता है. बेशक इनमें कुछ ‘दल-विहीन’ चुनावों को हम नहीं गिनते हैं, हालांकि ऐसे चुनावों में कथित बादशाहों की पार्टी जरूर शामिल होती थी, जैसे 2002 के चुनाव में जनरल परवेज़ मुशर्रफ की पार्टी शामिल हुई थी.

यह पाकिस्तान का आविष्कार ही था कि तानाशाह खुद को वैधता और यह दावा करने का अधिकार जताने के लिए चुनाव का तमाशा किया करते हैं कि ‘देखो, मैं कोई तानशाह नहीं हूं’, ‘देखो रायशुमारी में मुझे 98.5 फीसदी वोट मिले!’ 1984 में इस्लामी रायशुमारी करवाने के बाद जनरल ज़िया-उल-हक़ ने यही दावा किया था.

उनके बाद बने औपचारिक तानाशाह जनरल मुशर्रफ ने खुद को ‘चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर’ या ‘प्रेसिडेंट’ तक कहने से परहेज किया और ‘चीफ एक्ज़ीक्यूटिव’ के रूप में बागडोर संभाली थी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

मुशर्रफ के बाद पाकिस्तानी फौजी हुक्मरानों में खुद को बाजाप्ता तानाशाह कहने से परहेज करने का चलन चला, और एक बिलकुल अनूठा सिद्धांत यह चला कि वे कुर्सी पर बैठे बिना हुकूमत की लगाम अपने हाथ में रखने लगे, चाहे चुनाव में कोई भी जीता हो. फौज अब मंच पर आकर नाटक का संचालन नहीं करने लगी बल्कि पर्दे के पीछे कठपुतली नचाने वाले की भूमिका में आ गई.

यह मिश्रित सरकार भी वैश्विक राजनीति में पाकिस्तान का अनूठा आविष्कार था. इस ताजा चुनाव तक, या 2018 में इमरान ख़ान को अपनी चहेती कठपुतली बनाने की पाकिस्तानी फौज की भारी भूल तक तो यही स्थिति रही.

इसलिए हमारा सवाल यह है कि पाकिस्तान में अब चाहे जिस पार्टी की सरकार बने, इस चुनाव में लोकतंत्र की जीत हुई या हार? मैं दोनों विकल्प खुला रखते हुए दोनों के पक्ष में तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं.

सबसे पहले, यह तर्क देना काफी आसान है कि लोकतंत्र की जीत हुई है. बदकिस्मती से वहां की न्यायपालिका ने फौज के साथ मिलीभगत करके सत्ता के प्रमुख दावेदार और उनके साथियों को जेल भेज दिया और उनकी पार्टी के चुनावचिह्न को स्थगित कर दिया. वे अपने नये चहेते मोहम्मद नवाज़ शरीफ को फिर से आगे ले आए, जिन्हें उन्होंने 2018 में तानाशाही तरीके से जेल में डाल दिया था और किसी सार्वजनिक पद के लिए नाकाबिल ठहरा दिया था. दिलचस्प बात यह है कि जिस न्यायपालिका ने शरीफ को सजा देकर जेल भेजा और किसी सार्वजनिक पद के लिए नाकाबिल ठहरा दिया था, अब उसी ने सब कुछ उलट दिया है.

लेकिन यह पाकिस्तान है, यहां कुछ भी मुमकिन है. वोटरों ने भी चौंकाने वाला फैसला सुना दिया, उन्होंने फौज और हुक्मरानों की पसंदीदा पार्टियों को बड़ी हिकारत से खारिज करते हुए उन ‘निर्दलीय’ उम्मीदवारों के पक्ष में वोट दिए जिन्हें जेल में बंद इमरान ने अलग-अलग चुनावचिह्नों पर चुनाव में खड़ा किया था.

यह फौज की करारी राजनीतिक तथा नैतिक हार है. अब हमें पता चल रहा है कि वहां के फौजी जनरल ‘नैतिकता’ की कभी परवाह नहीं करते और ‘राजनीति’ को अपनी मर्जी से ‘फिक्स’ करते रहे हैं, और यही वे आज भी कर रहे हैं. लेकिन इस सब से यह तथ्य बदल नहीं जाता कि इतिहास में पहली बार पाकिस्तानी अवाम ने फौज के खिलाफ जनादेश दिया है. इस चुनाव में 70 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ, जबकि अब तक 40-42 फीसदी मतदान ही होता रहा है. यह जम्हूरियत की जीत ही है.

इमरान अपनी फौज के दुलारे बेटे जैसे थे, जो जल्दी ही उसकी मर्जी के खिलाफ मनमानी करने लगे थे. उन्होंने उसके खिलाफ एक नया वाद शुरू कर दिया—इमरानवाद, जो रूढ़िपंथी इस्लाम, असामान्य राष्ट्रवाद, आर्थिक लोकलुभावनवाद, और ‘सिस्टम’ के खिलाफ बगावत का घातक घालमेल था. इसने ‘जीएचक्यू’ यानी फौजी मुख्यालय को सकते में डाल दिया.

अब तक तो फौजी हुक्मरानों का वास्ता ऐसे राजनीतिक नेताओं से पड़ता रहा था, जो अपनी सत्ता बचाने की हद तक तो समझदारी की बात करते थे लेकिन इन हुक्मरानों में इमरान से निबटने की तैयारी नहीं थी इसलिए वे उन्हें दबा ही सकते थे. इस चुनाव ने साबित कर दिया कि वे इसमें कितनी बुरी तरह नाकाम रहे. पाकिस्तान की जनता जिस फौज को इतने दशकों से इज्जत बख्शती रही उसे उसने ठेंगा दिखा दिया. यह जम्हूरियत की ही जीत है. मैं कहूंगा कि इमरान चाहे जितने भी गलत रहे हों, उनकी सियासत उनके मुल्क के लिए चाहे जितनी भी नुकसानदायक रही हो और वह उनके पड़ोसी देशों तथा खासकर भारत के लिए जितनी भी खतरनाक रही हो, असली बात यह है कि उन्होंने जेल में बंद होते हुए भी फौज को हरा दिया है.

अब यह तर्क कैसे दिया जाए कि इस चुनाव में वास्तव में पाकिस्तान की जम्हूरियत की हार हुई है? सीधी-सी बात यह है कि जिस पक्ष की जीत हुई है उसे दरकिनार कर दिया गया है और ऐसा लग रहा है कि हारने वालों के गठजोड़ को सत्ता सौंप दी जाएगी. वैसे, यह इस कहानी का केवल एक हिस्सा है.


यह भी पढ़ेंः बीजेपी सरकार को समझना आसान है, बस आप वह किताबें पढ़ लीजिए जो कभी मोदी-नड्डा-शाह ने पढ़ी थीं 


बड़ी बात यह है कि फौज अभी भी इतनी ताकतवर है कि वह चुनाव में मुंह की खाने के बाद भी वोटरों के फैसले को खारिज कर सकती है.

आमतौर पर वह किसी निर्वाचित सरकार को गिराने से पहले दो-तीन साल तक इंतजार करती रही है. लेकिन इस बार तो उसने मतदानपत्रों पर लगाई गई मुहर की स्याही सूखने का भी इंतजार नहीं किया.

चुनाव में वह हार गई बावजूद इसके कि उसने चुनाव में घालमेल किया, नियमों में हेरफेर किए, वोटों की गिनती की प्रक्रिया में ऐसा कुछ किया जो क्रिकेटर इमरान खान के जमाने में गेंद से छेड़छाड़ से भी सौ गुना बदतर हो. लेकिन इस सबसे भी बहुत फर्क नहीं पड़ता.

अगर हम यह भी मान लें कि जम्हूरियत की जीत इसलिए मानी जाएगी क्योंकि वोटरों ने फौज को हरा दिया, तब भी हम इस ठोस हकीकत को कैसे इनकार करेंगे कि जो नयी सरकार बनेगी वह पिछली सरकारों के मुक़ाबले फौज की और ज्यादा पिछलग्गू होगी?

पाकिस्तान में जो उलटफेर होगा उसकी तुलना मध्य-पूर्व के कई इस्लामी मुल्कों में ‘अरब स्प्रिंग’ आंदोलन के दौरान हुए फेरबदल से आसानी से की जा सकती है. इन कई मुल्कों में चुनाव हुए थे, कई मुल्कों के आधुनिक इतिहास में तो पहली बार चुनाव हुए थे लेकिन हर एक मुल्क में ऐसी विचारधारा वाली राजनीतिक ताकतें सत्ता में आईं जिन्हें ‘सिस्टम’ ने मंजूर करने के काबिल माना.

ये ताक़तें पूरी तरह इस्लामवादी, लोकलुभावनवादी, पश्चिम विरोधी, और कट्टरपंथी थीं. हर एक मुल्क में या तो फौज ने, या पुराने फौजी तंत्र ने इन सरकारों को उखाड़ फेंका और वापस तानाशाही थोप दी. मिस्र, सीरिया, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया के बारे में सोचिए. इस इस्लामी दुनिया के हर मुल्क में फौज को आधुनिकता और संतुलन की ताकत के तौर पर देखा जाता है. पाकिस्तान में भी यही दोहराया जा रहा है.

तथ्य यह है कि लोकतंत्र के इस विनाश की चाहे जितनी निंदा की जाए, यह पाकिस्तान और उसकी जनता के हितों के लिए मुफीद साबित हो सकता है. इमरान जिन इस्लामवादी, लोकलुभावनवादी तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्हें अगर सत्ता से दूर रखा जाता है, तो अमेरिका और चीन तक को मिलाकर पूरी दुनिया राहत महसूस कर सकती है. और पाकिस्तान के पड़ोसी देश तो निश्चित ही राहत महसूस करेंगे. पाकिस्तान में अगर फौज की घेराबंदी में शरीफ के कुनबे के नेतृत्व वाली सरकार बनती है तो भारत को खुशी ही होगी. यह कम-से-कम समझदारी भरी होगी और इमरान ख़ान की तरह फिदायीन वाली मुद्रा में तो नहीं रहेगी.

यह हमें लोकतंत्र की जीत-हार के सवाल पर बहस करने के अलावा तीसरे सवाल के सामने ला खड़ा करता है. क्या किसी देश को सिर्फ इसलिए लोकतंत्र के लिए तैयार माना जा सकता है कि वह अपने यहां चुनाव करवा सकता है, भले ही उसके यहां की संस्थाएं इतनी मजबूत न हुई हों कि वे अपने लोकतंत्र की रक्षा कर सकें? अगर उसकी संस्थाएं सेना की पिछलग्गू ही बनी रहीं और उसके फरमानों का विनीत भाव से पालन करती रहीं तो उस देश को लोकतंत्र के लिए तैयार नहीं माना जा सकता है. पाकिस्तान की न्यायपालिका और चुनाव आयोग का यही हाल है. वास्तविक लोकतंत्र ऐसी संस्थाओं के ऊपर टिका होता है जिन्हें दशकों तक धैर्य और प्रायः कष्ट सहकर मजबूत बनाया जाता है. इस बीच किसी चुनाव में लोकतंत्र की जीत होती है या हार, यह ज्यादा-से-ज्यादा अकादमिक बहस का ही सवाल बना रहेगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ेः इंदिरा, राजीव, वाजपेयी-आडवाणी की वह तीन भूलें जिसने बदली भारतीय राजनीति की दिशा


 

share & View comments