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गुरूवार, 24 अप्रैल, 2025
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टट्रंप भले ही हार जाएं लेकिन अमेरिका में ट्रंपवाद का उभार हो चुका है, यह प्रदर्शन से ज्यादा पॉपुलिज्म पर निर्भर है

ट्रंप भले ही हार जाएं लेकिन अमेरिका में ट्रंपवाद का उभार हो चुका है, यह प्रदर्शन से ज्यादा पॉपुलिज्म पर निर्भर है

भारत में जैसे मोदीत्व चल रहा है वैसे ही अमेरिका में ट्रंपवाद शुरू हो गया है. नस्लीय या सामाजिक अधिकारों के लिए बढ़ती सजगता जनता को उकसाने की राजनीतिक कला को बढ़ावा दे रही है.

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अमेरिकी राष्ट्रपति के इस चुनाव की राजनीतिक उपलब्धि यह नहीं होगी कि कौन जीता. यह तो तय है कि चुनाव वही जीतने जा रहा है, जो जीत का हकदार है. लेकिन इससे भी आगे जाकर देखें तो भविष्य में अमेरिका और भारत समेत दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों की राजनीति पर इस तथ्य का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने वाला है कि डोनाल्ड ट्रंप ने लगभग 50 फीसदी पॉपुलर वोट हासिल कर लिये. आखिर यह कैसे हुआ?

इसके अलावा भी कई सवाल हैं- करीब 7 करोड़ अमेरिकी लोगों ने उस आदमी को वोट कैसे दे दिया जिसे मसखरा, सनकी, लालची, कुर्सी का भूखा, भ्रष्ट, सेक्स से संबंधित कई कांड करने वाला, टैक्स चोरी करने वाला और एक ऐसा शख्स माना जाता है जिसने अपने देश को दुनिया में कमजोर किया और एकध्रुवी दुनिया में सुपरपावर के रूप में अपने देश का वर्चस्व चीन के हाथों गंवा दिया?

अपने नाम को सार्थक करने वाला लगभग हरेक थिंक टैंक वर्षों से हमें यही बताता रहा है. हरेक चुनाव विशेषज्ञ, चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ 2016 में ट्रंप के द्वारा अनुशासित किए जाने के बावजूद बाइडेन की आसान जीत की पूर्वघोषणा कर चुका है. वे यह भी वादा कर रहे थे कि ‘ब्लू वेव’ तो ट्रंप को और उनकी ‘निंदनीय’ राजनीति के मलबे को बुहार कर अमेरिकी राजनीति के इतिहास के गटर में पहुंचा देगा.

क्या किसी ने यह सोचा था कि ट्रंप इस मुक़ाबले को इतना कड़ा बना देंगे कि महामारी के बावजूद इतने सारे वोटर उनके आह्वान पर वोट देने निकल आएंगे, वे फ्लॉरिडा, नॉर्थ कैरोलिना को जीत लेंगे और पेंसिलवानिया, विस्कॉन्सिन, मिशिगन, और नेवाडा में कांटे की टक्कर देंगे? डोनाल्ड ट्रंप? घोषित सनकी?

हम प्रायः यह सवाल सुनते रहते हैं कि आखिर हम अमेरिकियों को हो क्या गया है? आगे, इस चुनाव के नतीजे से ज्यादा इस सवाल का राजनीतिक रंग और भी ज्यादा गहरा होकर उभरेगा. इस नतीजे की कल्पना इस रूप में कीजिए कि कोरोनावायरस ने दुनिया पर हमला नहीं किया और अमेरिका में ट्रंप ने इसका मुक़ाबला खराब ढंग से नहीं किया. तब क्या वे अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया की राजनीति की दिशा तय करने वाले इस चुनाव को जबरदस्त ‘रेड वेव’ पर सवार होकर नहीं जीत जाते?

नरेंद्र मोदी जब टेक्सास में ‘हाउडी मोदी’ आयोजन में ट्रंप का हाथ पकड़कर मंच पर जश्न माना रहे थे तब मोदी और उनके सलाहकारों ने इसी परिदृश्य का पूर्वाभास कराने की कोशिश की थी. तब किसी को पता नहीं था कि वुहान में एक वायरस जन्म ले रहा है- सिवा शी जिंपिंग के, वह भी संभावना के दायरे से बाहर जाकर.

महामारी से निबटने में अमेरिका दुनिया के सभी देशों के मुक़ाबले सबसे बुरा रहा है. ट्रंप का अमेरिका डेटा के मामले में ‘जीत’ गया है, भले ही उनके देश की स्वास्थ्यसेवा व्यवस्था ‘फ्री वर्ल्ड’ (गैर-कम्युनिस्ट देशों) में सबसे बड़ी और सबसे आधुनिक है. लेकिन ट्रंप ने महामारी की चुनौती को बेहद हल्के में लिया और अपने प्रेस कॉन्फ्रेंसों में ऐसी दवाओं की पैरवी की जिनका परीक्षण भी पूरा नहीं हुआ था, मास्क का राजनीतिकरण कर दिया. जाहिर है, वायरस ने उनको जकड़ लिया. उनके कामकाज को बस एक शब्द में परिभाषित किया जा सकता है- अटपटापन, वह भी मोटे अक्षरों में. लेकिन हम ऐसा करने से परहेज कर रहे हैं क्योंकि हम इस स्तम्भ को ट्रंप का ट्वीट नहीं बनाना चाहते.

फिर भी, अमेरिका के महानगरों से दूर शहर-दर-शहर, गांव-दर-गांव, खासकर अमेरिका की ‘रेड’ पट्टी में, जिसका मिजाज भारत की हिंदी पट्टी से काफी मिलता-जुलता है, महामारी से बुरी तरह प्रभावित राज्यों और काउंटियों में लोग पहले के मुक़ाबले भारी तादाद में निकले और ट्रंप को वोट दिया, उस ट्रंप को जिन्हें उनका घोषित उत्पीड़क कहा जाता है?

हम यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण नतीजा यह है कि यह कई लोकतंत्रों में मजबूत होती एक विशेष प्रवृत्ति को रेखांकित करता है, भले ही हम उसे पसंद करें या न करें. वह प्रवृत्ति यह है कि अगर कोई लफ़्फ़ाज़ नेता बहुसंख्यकों की दबी हुई असुरक्षा भावना को भड़का कर उनमें यह आक्रोश पैदा करने का कौशल रखता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है, तो वह अपने लिए एक अभेद्य किला बना सकता है. इसका उदाहरण भारत के हिंदुओं में जड़ जमा चुकी अल्पसंख्यक मनोग्रंथि के रूप में देखा जा सकता है, खासकर हिंदी पट्टी और पश्चिम के दो अहम राज्यों गुजरात और महाराष्ट्र में.

नरेंद्र मोदी की तरह ट्रंप ने भी एक दक्षिणपंथी रूढ़िवादी पार्टी को अपनी मुट्ठी में किया और इसके दर्शन, इसकी विचारधारा और इसके एजेंडा को अपने व्यक्तित्व के बाजारू आयामों के अनुरूप पूरी तरह ढाल दिया. दोनों नेताओं ने राजनीतिक तार्किकता और कुलीनवाद को चुनौती दी और उनका मखौल उड़ाया. दोनों नेता कामगार तबके और तथाकथित वंचित वर्ग को उनके पुराने वामपंथी-समाजवादी किलों से बाहर निकालने में सफल हुए हैं.

मतगणना के बीच ट्रंप के कई नाराजी भरे बयानों में सबसे उल्लेखनीय वह है जिसमें उन्होंने अमेरिका के कामगारों का आह्वान किया है. यह मोदी की उस नयी राजनीति से काफी मिलता-जुलता है, जिसे उन्होंने पिछले छह साल में तैयार किया है, जिसमें वे हमेशा गरीबों के लिए कुछ-न-कुछ बड़ी कुशलता से करते हुए और ऊपरी तबके पर ऊंचे टैक्स ठोक कर उसकी सफाई करते हुए भी दिखना चाहते हैं.

ट्रंप ने रिपब्लिकन पार्टी को गले से पकड़ रखा है और मुक्त व्यापार, उदार इमिग्रेशन, वैश्वीकरण, नीची टैरिफ, विश्वव्यापी शक्ति प्रदर्शन आदि हर चीज़ के मामले में (सिवा टैक्सों की नीची दरों के) इस पार्टी की नीतियों को खारिज कर दिया है. मोदी भी अर्थव्यवस्था में बेकाबू गिरावट के बाद अब जागे हैं तो सुधार करने में जुटे हैं लेकिन उनके पिछले छह साल कोई भिन्न नहीं रहे. हम मानते थे कि भाजपा मुक्त उद्यम, निजीकरण, नीची टैक्स दरों, संपत्ति निर्माण आदि-आदि की पक्षधर पार्टी है. लेकिन अब तक यह सब ठंडे बस्ते में डालकर रखा गया था.

हम मोदी और उनकी नीतियों के बारे में अक्सर बातें करते ही रहते हैं. इसलिए अभी ट्रंप की और उनकी राजनीतिक सफलताओं से मिले सबक की ही बात करें. अमेरिका अब एक नयी विचारधारा का उभार देख रहा है, वह है ट्रंपवाद. उनका जो तौर तरीका है, उसके कारण वे हारने के बावजूद अमेरिका के पूर्व पारंपरिक राष्ट्रपतियों की तरह ओझल नहीं होने वाले हैं, क्योंकि उनके साथ कुछ भी पारंपरिक नहीं जुड़ा है. एक राजनीतिक परिघटना के तौर पर उनका कोई जोड़ नहीं है. आपको उनकी विरासत को कबूल करना ही पड़ेगा, केवल अमेरिका में ही नहीं. दुनियाभर के लोकतंत्रों के नेता उनसे सीख ले सकते हैं. रिपब्लिकन उनकी या उनके परिवार की छाया से आसानी से बाहर नहीं आने वाले हैं.


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अमेरिका और पश्चिमी मीडिया के विद्वान लोग अपने तमाम राजनीतिक अनुभव और विद्वता के बावजूद ट्रंपवाद के प्रभावों का पूरा आकलन करने में उसी तरह विफल रहे हैं, जिस तरह भारत में हममें से कई लोग मोदीत्व को समझने या उसे कबूल करने में विफल रहे हैं. क्या इसकी वजह यह है कि हम अभी भी इस धारणा से मुक्त नहीं हुए हैं कि चुनाव जीतने का एकमात्र उपाय लोगों के हालात में बेहतरी लाना ही है. क्या बिल क्लिंटन ने यह नहीं कहा था कि ‘यह अर्थव्यवस्था का मामला है भाई!’ अगर ऐसा है तो 2019 में जब अर्थव्यवस्था संकट में थी, तब भी मोदी पहले से ज्यादा बहुमत से वापस क्यों आए? या ट्रंप के देश में जिस दिन कोरोना संक्रमण के दूसरे सबसे ज्यादा मामले सामने आए ठीक उस दिन ट्रंप को इतने सारे वोट कैसे मिल गए?

इस सवाल को उलट कर देखें. माना कि आप अपनी जनता की हालत नहीं सुधार सकते, लेकिन क्या आप उसमें ‘फील गुड’ का एहसास पैदा कर सकते हैं? यहां पर संस्कृति, धर्म और पहचान से जुड़ा ज्यादा संवेदनशील, भावनात्मक पहलू सामने आ जाता है. आज तमाम देशों में लोकतांत्रिक राजनीति में इसी की जीत हो रही है. यही वजह है कि इमानुएल मैक्रों सरीखे मध्यमार्गी को भी हम ऐसी बोली बोलते सुन रहे हैं. अपने अधिकारों के लिए बढ़ती सजगता इस लोकलुभावन लफ्फाजी को बढ़ावा दे रही है.


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जरा गौर कीजिए कि सीएनएन के मशहूर एंकर एंडरसन कूपर ने ट्रंप के लिए किन शब्दों का प्रयोग किया- एक मोटा-ताज़ा कछुआ समुद्रतट पर धूप में पेट के बल पड़ा है. क्या आप जानते हैं कि ट्रंप के समर्थक इस टिप्पणी के बारे में क्या सोचते हैं? बेशक वे इसे इस बात का प्रमाण मानते हैं कि ट्रंप कुलीनों के बारे में जो कहते हैं वह ठीक ही है. यह वैसा ही जैसे यहां भारत में अंग्रेजीभाषी लोग मोदी का मज़ाक उड़ाते हैं कि वे अंग्रेजी में ‘स्ट्रेंथ’ शब्द का हिज्जे सही नहीं लिख सकते. उनका यह मज़ाक मोदी के समर्थकों के आधार को, जो सांस्कृतिक पहचान और कुलीनवाद के प्रति नफरत से निर्मित हुआ है, उनके प्रति और निष्ठावान बनाता है. वैसे, ट्रंप का तो मोदी के मुक़ाबले लाख गुना ज्यादा मज़ाक उड़ाया ही गया है, वह भी कानाफूसियों में नहीं बल्कि खुल कर. सो, अब तो आप समझ ही गए होंगे कि करीब आधा अमेरिका, जिसमें कामगारों का बड़ा अंश शामिल है, ट्रंप के लिए वोट देने क्यों निकल आता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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