राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ जब 107 दिनों बाद दिल्ली में प्रवेश कर गई है तब यह सवाल उठाया जा सकता है कि वह एक राजनीतिक चाल के रूप में फुस्स साबित हुई या कांग्रेस पार्टी के लिए अपेक्षित प्रभावकारी रही? यह भी पूछा जा सकता है कि लालसिंह-चड्ढा-नुमा (फोर्रेस्ट गंप से माफी मांगते हुए) इस मुहिम ने राहुल को क्या एक जन नेता के रूप में स्थापित किया, या इसने उन्हें ‘पप्पू’ ही साबित किया जैसा कि उनके आलोचक कहते हैं?
इन सवालों के जवाब ढूंढते हुए हम अपना वही तीन सवालों वाला तरीका अपना रहे हैं. पहला सवाल यह कि क्या कांग्रेस पार्टी की कोई अहमियत रह गई है? दूसरा यह कि कांग्रेस वाले क्या चाहते हैं? और तीसरा, कि खुद राहुल क्या चाहते हैं?
अगर आप पहला सवाल नरेंद्र मोदी या अमित शाह या भाजपा के किसी बड़े नेता से पूछेंगे तो आपको जवाब मिल जाएगा. वे यही कहेंगे कि इस पार्टी की अब कोई अहमियत नहीं रह गई है, निष्प्रभावी होते एक खानदान के नेतृत्व में यह लाइलाज पतन की ओर अग्रसर है. लेकिन आप इन नेताओं की गतिविधियों पर गौर कीजिए. कांग्रेस के किसी कदम या राहुल के सामान्य बयानों पर भाजपा नेतृत्व और उसका राजनीतिक तंत्र जिस तरह प्रतिक्रिया करता है वैसी प्रतिक्रिया वह और किसी बात पर शायद ही करता है. भाजपा की सोशल मीडिया मशीन राहुल की यात्रा के हर मोड़, हर कदम और उसमें से जारी हर बयान पर नजर रखे हुए है. जैसी कि आप उम्मीद कर सकते हैं, वह जो आंखों देखा हाल प्रसारित कर रही है उसमें अपनी किस्म की तोड़मरोड़ नज़र आती है.
भाजपा इसे कभी कबूल नहीं करेगी, मगर तमाम पार्टियों (यूपीए वाली भी) से ज्यादा भाजपा यह जानती है कि उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही है, कम-से-कम 2024 तक तो जरूर. राष्ट्रीय वोट में उसका 20 फीसदी का हिस्सा कायम है. इस स्तंभकार समेत कई लोगों की आशा के विपरीत, ‘आप’ उसे गुजरात में ज्यादा नुकसान पहुंचाने में विफल रही. और उसने एक और राज्य को अपने झोले में डाल लिया है. 2023 में जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें भी वही एकमात्र तगड़ी चुनौती बनकर उभरेगी.
भाजपा 2024 के लिए कांग्रेस को निश्चित ही कोई चुनौती के रूप में नहीं देखती मगर कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो 2024 के लिए उसकी गति को बाधित कर सकती है, उस पार्टी को जो जीत की इतनी आदी हो चुकी है कि वह गति पर ही निर्भर हो गई है. कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश में भाजपा चुनावी आसमान में मौजूद हैं और उसके रडार पर खतरे के रूप में केवल कांग्रेस ही उभर रही है.
इसके साथ, केवल एक पार्टी ही है जो विचारधारा के आधार पर अभियान को स्वरूप दे रही है. भारत जोड़ो बनाम भारत तोड़ो. धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता, आम आदमी बनाम अडानी/अंबानी, गांधी बनाम सावरकर. अब आप इधर रहें या उधर जाएं.
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आप कह सकते हैं कि यह सब धोखा है, आडंबर है. लेकिन इससे यह तथ्य नहीं बदल जाता कि केवल कांग्रेस ही है जो इस तरह के द्वंद्व को उभारने की कोशिश कर रही है. ‘आप’ पार्टी इस सबसे कतराती है और वह स्कूल, स्वास्थ्य, यह सुविधा मुफ्त या वह सुविधा मुफ्त कर रही है. दूसरी पार्टियां अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में सिमटी हैं.
अगर आप भाजपा समर्थक हैं तो आपको यह सब मखौल लगेगा. आप कहेंगे कि मोदी या शाह राहुल और कांग्रेस की चिंता क्यों करें? लेकिन उन्हें उनकी चिंता है, क्योंकि वे गंभीर किस्म के नेता हैं जो चुनाव जीतते हैं और केवल हवाबाज़ प्रशंसक नहीं हैं. इसीलिए उनकी प्राथमिकता यह है कि राहुल ‘पप्पू’ वाली छवि को तोड़ न पाएं.
अब दूसरे सवाल की बात करें, कि कांग्रेस के लोग क्या चाहते हैं? इसका बड़ा आसान जवाब है, एक शब्द में— सत्ता. और किसलिए वे राजनीति में हैं?
यह हमें तीसरे सवाल पर लाता है कि राहुल क्या चाहते हैं? यहीं पर आकर मुश्किल खड़ी हो जाती है.
यह सवाल हम 2004 से पूछ रहे हैं और इसका जवाब नहीं मिल पा रहे है. क्या यह यात्रा हमें कोई नई बात बता रही है? क्या राहुल भी अपनी पार्टी वालों की तरह सत्ता चाहते हैं? इसकी जगह, क्या वे एक नई नैतिक शक्ति के प्रतीक बनना चाहते हैं? चुनावी राजनीति से दूर मगर अ-राजनीतिक नहीं? दार्शनिक, मगर बादशाह नहीं? अगर ऐसा है तो वह राजा कौन होगा जिसे दार्शनिक राहुल सलाह और ज्ञान देंगे?
जयपुर में पार्टी के उपाध्यक्ष पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने यह कहकर एक तरह की बहस छेड़ दी कि “लोग जिस सत्ता के पीछे भागते हैं” उसे वे जहर मानते हैं. तब, 26 अप्रैल 2013 को प्रकाशित अपने नेशनल इंटरेस्ट में मैंने इस विचार को बिलकुल दोषपूर्ण बताया था.
हमने कहा था कि लोकतंत्र में सत्ता जहर नहीं है. यह एक आश्चर्यजनक उपहार, एक सम्मान, एक इच्छित विशेषाधिकार है जो मतदाता आपको सौंपते हैं. हमने कहा था कि अच्छे नेता इसे खुशी, कृतज्ञता और विनम्रता के साथ स्वीकार करते हैं. सत्ता और सार्वजनिक पद सार्वजनिक विश्वास का पर्याय है. सत्ता एक जहर है, यह एक सामंती विचार है जिससे लोकतंत्र में परहेज किया जाना चाहिए. अगर राहुल सत्ता नहीं चाहते, जो कि हाल के चुनाव अभियानों से उनकी अनुपस्थिति से जाहीर है, तो वे क्या चाहते हैं?
अगर राहुल का पहला लक्ष्य अपनी थकी हुई, हताश, पराजित पार्टी को फिर से मजबूत बनाना है, तो वे इस यात्रा से उसके मनोबल को बढ़ाएंगे, उसमें एक नई आशा जगाएंगे और वैचारिक ताकत देकर एक नई ऊर्जा का संचार करेंगे. इसके साथ ही पार्टी के संगठनों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागू करने का काम चलेगा. 2004 से वे कहते आए हैं कि पार्टी के अंदर वास्तविक लोकतंत्र बहाल करना या जिसे हम सामंती स्वरूप कहते हैं उससे उसे मुक्त करना उनका लक्ष्य रहा है. इसी बहाने उन्होंने यूपीए सरकार में कोई पद लेने से इनकार कर दिया था. यह लक्ष्य आज भी कायम है, तो कहना पड़ेगा कि यह कारगर नहीं हो रहा है.
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पार्टी ने आखिरकार मतदान करके अपना अध्यक्ष चुना. यह चुनाव कितना अच्छा और स्वच्छ था? शशि थरूर वैसे भी हार जाते, इसलिए यह कोई मुद्दा नहीं है. अगर सचमुच में सिद्धांत सम्मत आंतरिक बदलाव करना था तो हार के बाद उनके साथ ज्यादा सम्मानजनक और गरिमापूर्ण तथा कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए था. सत्तातंत्र के उम्मीदवार के खिलाफ खड़े होने के उनके दुस्साहस ने इस चुनाव को कुछ वैधता प्रदान की. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
वैसे, राहुल मृतप्राय पार्टी का मनोबल और जोश बढ़ाने में काफी हद तक सफल हुए हैं. यात्रा में जिन इलाकों से गुजरे वहां उनके साथ चलने वालों में अच्छी संख्या में पुराने कार्यकर्ता और वफादार समर्थक शामिल रहे. यह सब उनकी पार्टी के लिए अच्छा है मगर पर्याप्त रूप से अच्छा नहीं.
एक फिल्म कलाकार, एक अर्थशास्त्री, एक सेवानिवृत्त संपादक, एक लेखक और एक मंचीय हास्य कलाकार उनका आभारी हो सकता है कि उन्होंने उन्हें आंसू गैस या लाठी के खतरों से मुक्त राष्ट्रीय दिखते राजनीतिक मुहिम में शरीक होने का जोशीला मौका प्रदान किया. कुछ लोगों को तो इसने इंस्टाग्राम पर मशहूर होने का मौका भी दिया. लेकिन उनकी पार्टी के पेशेवर नेता इस सबकी तलाश में नहीं हैं.
यह राहुल को वहीं लाकर खड़ा करता है जहां से उन्होंने शुरुआत की थी. ये नेता सत्ता चाहते हैं, जिसे राहुल बड़े विद्वेष के साथ जहर बता चुके हैं. लेकिन अगर उन्होंने अपना विचार बदल लिया है, तो उनकी पार्टी को यह नहीं मालूम.
उनका लक्ष्य गंभीर रूप से विचारधारा केंद्रित है मगर अब तक चुनाव से दूर रहा है. इसको लेकर ये नेता कुछ अनिश्चित निष्कर्ष निकालते हैं. अगर राहुल प्रत्यक्ष सत्ता नहीं चाहते, जो कि निर्वाचित पद में है, तो यह उन्हें साफ कहना होगा. लेकिन वे अपनी पार्टी से यह मांग नहीं कर सकते. तब उनकी पार्टी के कॉमरेड उनसे एक सवाल पूछना चाहते हैं, जिससे वे डरते हैं, वह यह है कि क्या वे उन्हें सत्ता दिलाने के लिए वह सब करने को प्रतिबद्ध हैं जो वे कर सकते हैं? अगर नहीं, तो फिर इस सारे तमाशे पर समय और ऊर्जा खर्च करने का क्या फायदा?
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