scorecardresearch
Thursday, 14 November, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टयूक्रेन संकट से ज़ाहिर है कि युद्ध की वजह स्वार्थ और घृणा होती है न कि नस्ल, धर्म और सभ्यता

यूक्रेन संकट से ज़ाहिर है कि युद्ध की वजह स्वार्थ और घृणा होती है न कि नस्ल, धर्म और सभ्यता

दुनिया इस तरह बदल चुकी है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, उन्होंने भी नहीं की होगी जो लोगों को आपस में लड़ाने के लिए उन्हें धर्म, संस्कृति, और सभ्यतागत अंतरों के आधार पर बांटते हैं

Text Size:

शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद विश्व राजनीति और रणनीतिक समुदायों में कई नये विचार उभरे. इन विचारों में सबसे प्रमुख था 1993 में सैमुएल हटिंग्टन द्वारा पेश किया गया ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का विचार. यह विचार उनके ही ज़हीन चेले फ्रांसिस फुकुयामा की किताब ‘द एंड ऑफ हिस्टरी ऐंड द लास्ट मैन’ के जवाब में या शायद उसकी प्रतिक्रिया में उभरा.
यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि ये दोनों विचार आज यूक्रेन के बूचा, मारियूपोल और खारकीव के मलबों में दफन नज़र आ रहे हैं. लेकिन ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जो शीतयुद्ध के बाद के विमर्शों और सिद्धांतों को फिर से जिंदा करने के लिए काफी है.

हो यह रहा है कि स्लाव लोग स्लाव लोगों से ही लड़ रहे हैं यानी एक ही श्वेत नस्ल वालों में ठनी हुई है; रूढ़िवादी ईसाई (जिन्हें हटिंग्टन ने सभ्यताओं की अपनी सूची में एक सभ्यता बताया था) रूढ़िवादी से लड़ रहे हैं, यानी धर्म या धार्मिक वर्गीकरण भी समीकरण से बाहर है और यूरोप में पश्चिमी ताक़तों के बीच टक्कर फिर से शुरू हो गई है. रूस के रूप में वे जिस विशाल, ताकतवर और सैन्य शक्ति वाली महाशक्ति का सामना कर रहे हैं उसे एशिया की चीन नामक सबसे बड़ी ताकत का समर्थन हासिल है. यानी एक नया शीतयुद्ध सचमुच में शुरू हो गया है.

अब जरूरत सिर्फ इस बात है कि आज की स्थिति ने जिन तमाम नयी विडंबनाओं, नये विरोधाभासों और मिथ्याभासों को उभार दिया है उनकी सूची तैयार करें और उन्हें अपने इस कॉलम नेशनल इंटेरेस्ट की 1200 शब्दों की सीमा में समेट लें. आखिर, पुराने सोवियत दौर के टी-72 टैंक पूर्व वारसा संधि के सदस्य-देश चेक रिपब्लिक से ट्रेनों में लाद कर रवाना किए जा रहे हैं, एस-300 मिसाइलें स्लोवाकिया से भेजी जा रही हैं, और यह पूरी कवायद प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका और नाटो करवा रहा है. यूरोप के देश जबकि रूस के खिलाफ यूक्रेन को हथियारबंद कर रहे थे उसी दौरान उन्होंने रूस से 38 अरब डॉलर मूल्य की एनर्जी की खरीद की. ऐसी हर एक बात एक खबर बन सकती है. लेकिन इस सप्ताह हम उन सबकी बात नहीं कर रहे. हर सप्ताह हम इस स्तंभ के लिए एक जटिल मसले की खोज करते हैं, और ये बातें जमती नहीं.


यह भी पढ़ेंः हिंदू वोट छीने बिना मोदी-शाह की भाजपा को नहीं हराया जा सकता


यह हमें इस्लामी दुनिया के सामने ला खड़ा करता है. आप आश्चर्य में पड़ गए? आप सोचते होंगे कि बेचारे गरीब मुसलमानों का इन सबसे क्या वास्ता? उन्हें तो कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के लिए भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता. तो उन्हें इस पचड़े में क्यों घसीटें? मुद्दा यही है.

हटिंग्टन ने अमेरिकन एंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट में जो भाषण दिया, ‘फॉरेन अफेयर्स’ पत्रिका में जो लेख लिखा और अंत में अपनी किताब में जो लिखा उन सबमें कई तरह की संभावनाओं पर विचार किया गया है लेकिन दुनिया ने उनकी इस आशंका को ही याद रखा कि ईसाई (पश्चिमी) और इस्लामी सभ्यताओं के बीच टक्कर हो सकती है. यह अल-क़ायदा के जन्म लेने से बहुत पहले, 9/11 कांड के एक दशक पहले की बात है. तब कोई इस्लामी मुल्क आर्थिक या राजनीतिक रूप से इतना मजबूत नहीं था कि ईसाई या पश्चिमी ताकतों के लिए खतरा बने. पाकिस्तान को ‘बम’ वाला मुल्क माना जाता था मगर उसका कभी कोई वजन नहीं रहा. आज उसके पास और ज्यादा बम हैं मगर उसका वजन और कम हो गया है. तब तक कोई देश, चीन भी इतना खतरनाक नहीं दिखता था. इसलिए, रणनीति के बारे में भविष्यवाणियां करने वालों को कई देशों के एकजुट करने वाली किसी ताकत की कल्पना करनी ही थी. इस्लाम वह ताकत हो सकती थी, खासकर ‘उम्मा’ वाली उसकी अवधारणा के कारण.

इन सिद्धांतों के तीन दशक बाद, ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की कड़ी (9/11, 2001) के दो दशक बाद यह काफी विश्वसनीय लग रही थी लेकिन आज यह किसी के निशाने पर नहीं है. सभ्यताओं के बीच टक्कर की जगह एक ही सभ्यता, नस्ल, और भूगोल के अंदर ही युद्ध शुरू हो गया है जबकि दो विश्वयुद्धों में ऐसा कम ही हुआ था.

नब्बे वाले दशक के शुरू में, भविष्य के लिए एक नये तरह के युद्ध की कल्पना की गई थी और हमेशा की तरह शक की सुई इस्लामी दुनिया की ओर घूमती थी. हटिंग्टन ने ईसाई (पश्चिमी) और इस्लामी सभ्यताओं में संभावित टक्कर के व्यापक तौर पर तीन कारण बताए थे. उन्होंने कहा था कि दोनों धर्मशास्त्रीय, मिशनरी आधार वाली सभ्यताएं हैं जिन्होंने एक-दूसरे का धर्म परिवर्तन कराने का संकल्प ले रखा है; और हालांकि दोनों अद्वैतवादी हैं तथा वे जिस ईश्वर की पूजा करती हैं वह एक ही है, लेकिन दोनों में से हर एक का मानना है कि उस ईश्वर तक पहुंचने का वह जो मार्ग बताती है वही एकमात्र मार्ग है. यह सारा तर्क पूरी तरह स्वीकार्य दिखता है. लेकिन वास्तव में ऐसा क्यों नहीं हुआ?


यह भी पढ़ेंः क्या 7 प्रमुख राजनीतिक संकेत दे रहे हैं 5 राज्यों के ये विधानसभा चुनाव


मुस्लिम दुनिया को आज अंतरराष्ट्रीय खबरों में शायद ही प्राथमिकता मिलती है. तब भी नहीं जब सऊदी अरब, यमन में मुसलमान और अरब भाइयों पर हमला करता है; या इजराएल फिलस्तीनियों पर तेज से तेज हमला करता है; या दुनिया के एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्न इस्लामी देश में बड़ा सियासी नाटक खेला जाता है; या जब रोहिंग्या मुसलमानों को यातना दी जाती है और उनका कत्ल किया जाता है; या तब तो नहीं ही जब चीन झिंजियांग में ऊईगर मुसलमानों पर आज दुनिया का सबसे क्रूर सामूहिक अत्याचार ढा रहा है. ठीक है कि यूक्रेन में रूसियों ने उन्हें फिलहाल हरा दिया है.

उम्मीद की जा रही थी कि मुस्लिम दुनिया अब तक सभ्यतागत खतरे के खिलाफ एकजुट होकर खड़ी हो गई होती. आज वह अपने भीतर छोटे-छोटे झगड़ों में उलझी है. बड़ा झगड़ा ईरान और सऊदी अरब तथा खाड़ी के अमीर अरबों के बीच है. यमन, लेबनान या सीरिया तक इसी बड़े झगड़े की चपेट में फंसे हैं. ईरान के विपरीत, सुन्नी बहुल देश तुर्की भी इसी मकसद से इसी होड़ में शामिल है. यूक्रेन ने इसे भी अस्त-व्यस्त कर दिया है. तुर्की के एर्दोगन अब हड़बड़ी में सुधार कर रहे हैं और इजराएल के राष्ट्रपति का अभूतपूर्व स्वागत कर रहे हैं. इसके अलावा सऊदी अरब को, जिससे वे नफरत करते रहे हैं, खुश करने के लिए ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के स्तंभकार जमाल खशोगी की हत्या की जांच को खटाई में डाल रहे हैं.

अति पवित्र ‘ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक रिपब्लिक’ (ओआइसी) ने इस्लामाबाद में हुए अपने ताजा शिखर सम्मेलन में ऊईगरों की हालत का जितना रोना नहीं रोया उससे ज्यादा चीनी विदेश मंत्री वांग यी का सबसे सम्मानित मेहमान के रूप में स्वागत किया. और अब पाकिस्तान में सत्ता संभाल रहे लोगों ने पश्चिम के साथ अपने संबंधों की दिशा बदली है, जबकि मुस्लिम दुनिया की रहनुमाई करने के सपने देखने वाले इमरान खान को कार्यमुक्त कर दिया गया है. खासकर इसलिए कि उन्हें लगता है कि वे संयुक्त राष्ट्र को इस्लामोफोबिया के खिलाफ वर्षगांठ मनाने के लिए राजी करने में सफल हुए हैं. वे शायद यह मान बैठे थे कि इस्लामी दुनिया का नेतृत्व करने का हक़ तो उनका ही है. लेकिन अब तो अपने देश का नेतृत्व ही उनके हाथ से छिन रहा है.

माना यह गया था कि ईसाई और इस्लाम धर्म, दोनों ही अद्वैतवादी हैं और उनका चरित्र मिशनरी है इसलिए वे एक ईश्वर के नाम पर आपस में लड़ेंगे. इसमें यहूदी दुनिया को भी जोड़ लीजिए. वही ईश्वर, वही उत्पत्ति, वही पवित्र ग्रंथ और वही पवित्र हस्तियां. उनमें और मुस्लिम दुनिया में तो लंबा टकराव चलता ही रहा है. भारतीय हिंदू दक्षिणपंथ में चलने वाले विमर्श में इसे अब्राहमी मजहबों की कायनात कहा जाता है. अब्राहमी समझौते के बाद, आज ये तीनों मध्य-पूर्व में एक साथ जुड़ गए हैं.

अगर ईसाई, मुस्लिम और यहूदी आपस में अमन कायम कर रहे हैं, अगर मुसलमान ही यहां-वहां मुसलमानों से ही छोटे-छोटे गंदे युद्ध लड़ रहे हैं, हटिंग्टन ने हिंदू सभ्यता के लिए जिन तीन देशों का नाम लिया था उनमें से दो देश भारत और नेपाल (भूटान हिंदू वर्ग का तीसरा देश है) अगर जमीन विवाद में उलझे हैं, भारत में दक्षिणपंथी हिंदू तत्व अगर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और फिर भी उनके लिए इस्लामी दुनिया से सहानुभूति के शब्द अल-क़ायदा के ऐमान अल जवाहिरी की ओर से आते हैं जहां से उन्हें इसकी जरूरत नहीं है, और अगर सभी बड़े इस्लामी मुल्क अपने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान से नरेंद्र मोदी को नवाजते हैं, अगर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के अमन को सबसे बड़ा खतरा यूरोप और ईसाई सभ्यता के अंदर से उभर रहा है, तो इन तमाम बातों से साफ है कि दुनिया इस कदर बदल चुकी है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी. उन लोगों ने तो नहीं ही की होगी जिन्हें लगता है कि लोगों को आपस में लड़ाने के लिए उन्हें धर्म, संस्कृति, सभ्यतागत अंतरों के आधार पर बांटना जरूरी है. देशों के बीच युद्ध होने की वजहें वही पुरानी हैं— लालच, ताकत, दंभ, नफरत और अहंकार.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः ‘कश्मीर फाइल्स’ का एक मूल संदेश तो सही है लेकिन भावनाएं तभी शांत होती हैं जब इंसाफ मिलता है


 

share & View comments