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शनिवार, 24 मई, 2025
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‘N-वर्ड’ एक नया दौर है — भारत की सॉफ्ट पावर अब उसकी हार्ड रियलिटी है

भारत आज दुनिया में जिस बेहतर हैसियत में है वैसी स्थिति में वह शीतयुद्ध के बाद के दौर में कभी नहीं रहा. हमें तय करना पड़ेगा कि विश्व जनमत को हम महत्वपूर्ण मानते हैं या नहीं. अगर मानते हैं तो हमें उनकी मीडिया, थिंक टैंक, सिविल सोसाइटी के साथ संवाद बनाना चाहिए.

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यहां हम अगर ‘एन’ अक्षर का प्रयोग कर रहे हैं तो यह ‘न्यूक्लियर’ (परमाणु) हथियारों वाला ‘एन’ अक्षर नहीं है. यह कॉलम इतनी सरलता या पूर्वानुमान से परहेज करता है और गूढ़ता की तलाश करता है. इसलिए इस सप्ताह ‘एन’ अक्षर का प्रयोग ‘नैरेटिव’ (आख्यान) के लिए किया गया है. लेकिन यह अक्षर इतना घिस-पिट चुका है कि मैं इसे अपने न्यूज़रूम में प्रतिबंधित करता रहा हूं. लेकिन इस लेख में जिस ‘नैरेटिव’ की बात की जा रही है उसके मामले में इसकी छूट दे रहा हूं.

पहलगाम में हमला होने के तुरंत बाद ही फुसफुसाहट शुरू हो गई थी कि पूरी दुनिया पाकिस्तान की मलामत क्यों नहीं कर रही ? यह शिकायत ऑपरेशन सिंदूर के साथ ही एक शोर में बदल चुकी थी कि कोई इस ऑपरेशन पर शाबाशी क्यों नहीं दे रहा है? हमेशा की तरह पश्चिमी मीडिया पर उंगली उठाई जा रही थी कि वह हमारी सेना की कामयाबी की चर्चा क्यों नहीं कर रही है? वे गोलमोल बातें कैसे कर सकते हैं और ऐसा कैसे कह सकते हैं कि हमें नुकसान हुआ है?

इसके बाद डॉनल्ड ट्रंप इस कोलाहल में कूद पड़े और खलबली पैदा हो गई. इसका यह निष्कर्ष निकाला ही जाना था कि कोई भी हमारे साथ नहीं है और भारत को अपने मकसद के लिए अकेले ही लड़ना है.

पीड़ित होने का एहसास बहुत आकर्षक होता है, और कई पीढ़ियों से हमने इसे एक पुरानी बीमारी की तरह बना लिया है. लेकिन इसके साथ कई तथ्यात्मक समस्याएं जुड़ी हैं.

पहला तथ्य यह है कि 1965 को छोड़ बाकी कभी भी हम अकेले नहीं पड़े. 1971 में सोवियत संघ हमारे साथ संधि कर चुका एक मित्र देश था. करगिल युद्ध हो या ऑपरेशन पराक्रम हो या 26/11 का हमला, हर मौके पर लगभग पूरी दुनिया हमारे पक्ष में थी. यहां तक कि चीन का रुख भी गोलमोल था.

वैसे, 1965 में भी सोवियत संघ भारत की तरफ आधा झुका हुआ था. मिग विमानों का हमारा पहला स्क्वाड्रन (युद्ध शुरू होने के समय नौ विमान तैयार थे) बन रहा था, और दिल्ली के पास ही ‘सैम-2 गाइडलाइन’ मिसाइलें तैनात कर दी गई थीं. इसे अगर खारिज कर दें तो भी भारत कभी अकेला नहीं रहा. 1991 में सोवियत संघ के विघटन और हमारी अर्थव्यवस्था के रफ्तार पकड़ने के बाद से अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ हमारे संबंध बेहतर होते गए हैं.

1998 में पोकरण-2 के बाद से अमेरिका ने प्रतिबंधों को हटाने में देर नहीं की और भारत को रणनीतिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण मित्र देश तथा परमाणु शक्ति संपन्न देश के रूप में स्वीकार किया. तब से उसने कश्मीर को लेकर कभी हमारे प्रतिकूल कोई बात नहीं की. इससे कुछ ही साल पहले अमेरिकी विदेश मंत्री रॉबिन राफेल कश्मीर के विलय के दस्तावेज़ पर गंभीर किस्म का ‘चिंतन’ प्रस्तुत कर चुके थे.

2000 में, भारत से अपने देश लौटते हुए बिल क्लिंटन ने पाकिस्तान के एक हवाई अड्डे पर थोड़ी देर के लिए रुकने के दौरान कैमरे के सामने अपनी उंगली हिलाते हुए पाकिस्तानियों से साफ कहा था कि इस क्षेत्र के नक्शे की रेखाओं को अब खून से नहीं बदला जा सकता. पाकिस्तान ने अमेरिका के रूप में एक सहारे को खो दिया और चीन के संरक्षण में चला गया.

पुलवामा-बालाकोट के बाद से अमेरिका भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने में एक ऐसी रचनात्मक भूमिका निभाता रहा है, जो भारत के लिए मुफीद रही है. तब और अब के बीच फर्क यह है कि अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप और 47वें राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप में भारी अंतर है. नए ट्रंप एक स्कूली बच्चे की तरह हैं, जो हर बात का श्रेय खुद लेना चाहता है.

टेस्ट क्रिकेट से संन्यास लेने की विराट कोहली की घोषणा के बाद एक्स पर की गई इस टिप्पणी की मैं प्रशंसा करता हूं कि भला ट्रंप ने इसकी घोषणा पहले ही क्यों नहीं कर दी? उनके रेकॉर्ड पर नजर डालने से साफ हो जाएगा कि उन्हें ट्रोलिंग में, अपने साथियों को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने में खास मजा आता है और वे उनके साझा प्रतिद्वंद्वियों को खुश करने का दिखावा भी करते हैं.

जरा पुतिन, सीरिया के अहमद अल-शारा, ईरान और, अपने इस जुनून में, अनाम पाकिस्तानियों के बारे में सोचें: वे बड़े महान हैं, शानदार चीजें बनाते हैं, मैं उनके नेता को अच्छी तरह जानता हूं. मैं नहीं कह सकता कि वे जानते हैं. वे सोच सकते हैं कि यह “वही क्रिकेटर है, बहुत प्यारा, ग्रेट शख्स”. वैसे, वाजिब बात यह है कि अधिकतर लोग इसी उलझन में होंगे कि ये प्रधानमंत्री हैं या कोई फील्ड मार्शल?

उन्होंने कनाडा के मार्क कार्नी, यूक्रेन के जेलेंस्की, और अभी हाल में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति साइरिल रामाफोसा को ‘व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी’ वाली भाषा में ‘श्वेतों का जनसंहार’ करने के लिए अपमानित किया. ट्रंप को बेशक इस बात से मदद ही मिलती है कि एलन मस्क ट्रंप प्रशासन में सबसे शक्तिशाली पद पर होने के बावजूद अपने देश की आंतरिक राजनीति करते रहे हैं.

पूरी दुनिया अभी यही सीख रही है कि ट्रंप नामक नाटक और उनके प्रशासन की वास्तविकता के बीच फर्क कैसे किया जाए. ट्रंप के बड़बोले दावों से आप जब भी उत्तेजित हो जाएं, तब उनके उपराष्ट्रपति जेडी वेंस, या तुलसी गेबार्ड, काश पटेल आदि के ट्वीटों को पढ़िए. यहां तक कि भारत और पाकिस्तान के नाम विदेश मंत्री मार्को रुबियो के बयान भी बारीकी भरे होते हैं. पाकिस्तान को भारत से सहयोग करने और अपने यहां मौजूद आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहा जाता है. भारत को और क्या चाहिए? गोली मारने का लाइसेंस?

आत्मदया से भरी विपत्तिग्रस्तता पराजित होने के एहसास से भी बुरी चीज है क्योंकि यह भी आपको हताश करती है. इधर सबसे मूर्खतापूर्ण बात यह सुनी जा रही है कि पश्चिमी देशों (अमेरिका) ने भारत को फिर से पाकिस्तान के बराबर नत्थी कर दिया है. लेकिन जरा यह तो बताइए कि क्या किसी ने आपसे यह कहा है कि कश्मीर मसले पर बातचीत शुरू कीजिए और हमें उसमें मध्यस्थ बनने की पेशकश कीजिए? ट्रंप भी जो बड़बोलापन कर रहे हैं वह सिर्फ संघर्ष विराम करवाने में अपनी भूमिका के बारे में है. भारत ने जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा छह साल पहले खत्म कर दिया. किसी दोस्त देश ने इस पर आपत्ति नहीं की, न आपसे इस फैसले को पलटने की मांग की. तुर्किए हमारे लिए मामूली हैसियत रखता है, और अज़रबैजान तो उतनी भी हैसियत नहीं रखता. जहां तक ‘ओआईसी’ की बात है, किस भी मुस्लिम मुल्क के पास इस लगभग निष्क्रिय संगठन के लिए वक़्त नहीं है. अभी हाल में इंडोनेशिया, बहरीन, और मिस्र जैसे अहम इस्लामी मुल्कों ने भारत की आलोचना करते हुए यह ध्यान रखा कि वह हल्की ही हो.

इसलिए हकीकत यह है कि दोस्ताना रिश्ते से आगे, भारत आज दुनिया में जिस बेहतर हैसियत में है वैसी स्थिति में वह शीतयुद्ध के बाद के दौर में कभी नहीं रहा. यह इस भारी विडंबना का आश्चर्यजनक उदाहरण ही है कि भारत को जबकि जबरदस्त सदभाव हासिल है और उसके कई दोस्त हैं, तब भी उसकी सुई ‘एकला चलो रे’ वाले राग पर अटकी हुई है. इसी तरह, यह ‘जी-20’ वाले जोशीली दौर से अविश्वसनीय वापसी है, जब भारत को दुनिया में एक उभरते सितारे के रूप में, और नरेंद्र मोदी को एक ऐसे नेता के रूप में देखा जा रहा था जिन्हें हर कोई सम्मान दे रहा था.

इसलिए, क्या बदलाव आया है, इसके बारे में हमारी समझ इससे तय होगी कि हमारी अपेक्षाएं क्या थीं. हमने अमेरिका के लिए ‘मित्र देश’ शब्द का इस्तेमाल करने से परहेज किया है. हम इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि ‘क्वाड’ को सुरक्षा गठबंधन न कहा जाए (हालांकि ट्रंप ने मोदी की मौजूदगी में इस शब्द का प्रयोग किया है), यूक्रेन युद्ध के बाद हम यूरोप की निरंतर आलोचना करते रहे हैं. हम रणनीतिक स्वायत्तता को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं, जिससे भारत का भला ही हुआ है. लेकिन इस बार हम अपने दोस्तों से क्या चाहते थे? कि वे पाकिस्तान की तौहीन करने में हमारे सुर के साथ सुर मिलाएं? वास्तव में जिन कई देशों ने अपनी ट्वीटों और बयानों में भारत को ‘मित्र देश’ कहा है उनमें अमेरिका शामिल है.

हम हजारों शब्दों में यह बता चुके हैं कि हम किस तरह अकेले या मित्र विहीन नहीं हैं बल्कि दुनिया में हमारे दोस्त भरे पड़े हैं. हमने दशकों की मेहनत से यह हैसियत हासिल की है. फिर यह दर्द कहां से पैदा हो रहा है?

मैं फिर से ‘एन’ अक्षर पर लौटता हूं. हम अलग तरह के लोग हैं जो सत्ता-तंत्र, पश्चिमी मीडिया, एनजीओ, थिंक टैंक, बुद्धिजीवियों, शिक्षा क्षेत्र वालों को टेढ़ी नजर से देखते हैं. हम मानते हैं कि वे सब हमारे खिलाफ पूर्वाग्रहग्रस्त हैं. वे भारत के उत्कर्ष को सह नहीं सकते. उनका कोई महत्व नहीं है. उन सबकी परवाह न करते हुए हमें आगे बढ़ते रहना चाहिए. अगर ऐसा है तो वे जब आलोचना करते हैं और सवाल उठाते हैं तब हम अपनी भड़ास क्यों निकालने लगते हैं? इसका कोई जवाब नहीं है, और अगर यह हमारे जनमत को इतना प्रभावित नहीं करता तो मैं इसे मनोरंजक भी कह सकता हूं. हम पश्चिमी नजरिए के प्रति इतनी नफरत नहीं पाल सकते, और फिर भी इस बात पर नाराज होते रहें कि वे हमें नहीं समझते.

वर्षों से हमारे सत्ता-तंत्र ने पश्चिमी मीडिया के साथ संवाद बंद कर रखा है, खासकर उनके साथ जो भारत में काम कर रहे हैं. उनमें से अधिकतर पत्रकारों को वीसा के लिए संघर्ष करना पड़ा है, उन्हें “भारत विरोधी” बताकर फटकारा जाता है. इसके बाद हम यह शिकायत करते हैं कि उन्होंने विश्व जनमत को हमारे खिलाफ मोड़ दिया है. और फिर इस जनमत को अपने अनुकूल बनाने के लिए हम अपने 44 सांसदों को करदाताओं को पैसे पर गर्मी की छुट्टी बिताने विदेश के दौरों पर भेजते हैं. लेकिन पहले तो हमें यह तय करना पड़ेगा कि विश्व जनमत को हम महत्वपूर्ण मानते हैं या नहीं. अगर मानते हैं तो हमें अपना सारा अहं छोड़कर उनकी मीडिया, थिंक टैंक, सिविल सोसाइटी के साथ संवाद बनाना चाहिए. अगर नहीं मानते तो सांसदों को एक देश से दूसरे देश भेजने का तमाशा बंद कर देना चाहिए.

विश्व जनमत सिर्फ शिखर बैठकों या ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाईयों से नहीं बनता. यह कई पेचीदा पहलुओं के आधार पर आकार लेता है, जिनमें देश का ‘सॉफ्ट पावर’ (सांस्कृतिक-वैचारिक पहलू) भी शामिल है. जब पाकिस्तानी डीजी-आईएसपीआर ने कहा कि भारतीय मीडिया भी अपनी सरकार के दावों पर सवाल उठा रही है, तो विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने उन्हें अच्छा जवाब दिया कि लोकतंत्र इसी तरह चलता है, यह पाकिस्तान को भला कैसे मालूम होगा. क्या इसके साथ ये बातें भी जमती हैं कि उन्हें अपनी बेटी के विचारों के लिए निशाने पर लिया गया या अशोका विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को एक ऐसे फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार किया गया जिसका असली तात्पर्य या उसमें छिपे किसी आपत्तिजनक संदेश को समझने के लिए माननीय सुप्रीम कोर्ट को तीन वरिष्ठ आइपीएस अफसरों की मदद लेनी पड़ी?

प्रोफेसर महमूदाबाद की कहानी न्यूयॉर्क टाइम्स में आई. लेकिन हमारे वे कमांडोनुमा टीवी चैनल किसी निजी लड़ाई की बड़ी खबरें देते रहे, जो ये दावे कर रहे थे कि कराची को तो हमारी नौसेना तबाह कर देगी, इस्लामाबाद पर हमारी थलसेना कब्जा कर लेगी और इन दोनों के बीच के पूरे इलाके को हमारी वायुसेना नीस्त-ओ-नाबूद कर देगी. यह सब इतना शर्मनाक होने लगा था कि अंततः सरकार को उन्हें हवाई हमले के सायरन की आवाज़ को ढोलों की पिटाई के साथ बैकग्राउंड में इस्तेमाल करने से रोकने का निर्देश देना पड़ा.

इन सबने भारत को नुकसान पहुंचाया और भारत के ‘सॉफ्ट पावर’ को सख्त बोझ बना दिया. ‘नैरेटिव’ वाले इस ‘एन’ अक्षर को नया अर्थ देने के लिए हमें तुरंत पहल करनी होगी. हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि सरकारी खर्च पर एक गैरज़रूरी अभियान के तहत मौज करने गए हमारे सांसद कुछ हासिल करके लौटेंगे.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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