कोविड महामारी से त्रस्त उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा-यमुना में बहते, उनके तटों पर आधे-अधूरे ढंग से दफन किए गए या यूं ही फेंक दिए गए शवों की तस्वीरें वर्षों तक इस महामारी की याद दिलाती रहेंगी. लेकिन, भारत में हम लोगों के लिए ये कुछ और ही संकेत करते हैं. ये केवल लाखों लोगों को तबाह करके गुजर जाने वाली किसी महामारी की लहर की ही नहीं बल्कि कुशासन, अधकचरे विकास, बड़बोली सियासत और भयावह क्षेत्रीय असंतुलन के कारण पैदा हुई स्थायी त्रासदी की ओर संकेत करती हैं.
ये महान नदियां केवल उत्तर प्रदेश और बिहार से नहीं गुजरती हैं. गंगा-यमुना के अलावा हमारे यहां ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा, और भी कई नदियां हैं. वे कई राज्यों और हमारे कई महानतम शहरों से होकर बहती हैं. इन नदियों में हम कोविड के कारण जान गंवाने वालों के शव बहते क्यों नहीं देखते? निश्चित ही यह नदियों का दोष नहीं है. हमारे राष्ट्र की इन सभी महान नदियों को देवी मान कर पूजा जाता है और उन्हें दैवी मातृत्व का अवतार माना जाता है. इन सभी क्षेत्रों और राज्यों में कुल मिलाकर इसी तरह की धार्मिक मान्यता प्रचलित है.
लेकिन, इस मामले का संबंध अगर धर्म से नहीं है, तो क्या इसका कोई क्षेत्रीय पहलू है? ऐसा भी नहीं है. यमुना उत्तर प्रदेश की होने से पहले हरियाणा को सींचती है. पंजाब में सतलुज, ब्यास, और रावी से हमें ऐसी तस्वीरें नहीं मिलीं. गौर करने वाली बात यह है कि पूरे देश में कोविड से सबसे ऊंची मृत्यु दर (सीएफआर) दुर्भाग्य से पंजाब की है. लेकिन इन नदियों में कोई शव नहीं दिखा. तो क्या इसका संबंध भाषा, संस्कृति से है? या इसका संबंध उस अंतिम व असहाय जनता है, जिसे सत्ताधारी लोग सारे बहाने खत्म हो जाने के बाद बलि का बकरा बनाते हैं? आप जनता को दोषी नहीं ठहरा सकते, जब तक कि आप अंग्रेज़ अभिनेता, हास्य कलाकार साचन नॉम बारोन कोहेन के एक किरदार बोरट न हों.
जनता पर हम क्या तोहमत मढ़ते हैं? यही कि कुछ राज्यों के लोग ही इतने गरीब, हताश, निराश क्यों हैं कि अपने परिजनों की अन्त्येष्टि करने के लिए जब वे जगह, लकड़ी या पंडित की ऊंची दक्षिणा की व्यवस्था नहीं कर पाते तो उनके शव नदी में बहा देते हैं? इस 21वीं सदी में एक गर्वीले लोकतंत्र के कुछ हिस्सों में मनुष्य को मौत के बाद मिलने वाले सम्मान से वंचित क्यों होना पड़ता है?
ऊपर हमने स्थानीयता, क्षेत्र, धर्म से लेकर परंपरा और जनता तक जिन तमाम संभावनाओं को खारिज किया है उनमें से केवल दो- राजनीति और अर्थनीति- बाकी बचते हैं. यह क्रम जानबूझकर रखा गया है, क्योंकि अर्थनीति के जो भी अच्छे-बुरे नतीजे मिलते हैं उनका स्रोत राजनीति ही है.
यह हमें परिचित मुद्दे, चुनावी राजनीति तक लाता है. केवल यूपी-बिहार को नहीं बल्कि हिंदी पट्टी के राजस्थान और मध्य प्रदेश समेत सभी चारों राज्यों को लीजिए. विश्लेषण की खातिर हम इन्हें तब की स्थिति में भी देखेंगे जब इनसे उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड को अलग नहीं किया गया था. आर्थिक रूप से इन सबमें कोई खास फर्क नहीं है. इन सबकी प्रति व्यक्ति आय 1,500 डॉलर से कम ही है, और इसके राष्ट्रीय औसत 2,100 डॉलर से तो काफी कम है.
हिंदू धर्म के अधिकतर पवित्रतम प्राचीन स्थल इसी क्षेत्र में हैं. आज यह हिंदुत्ववादी राजनीति का केंद्र भले बन गया हो, 1989 तक कांग्रेस का अजेय किला था. अगर 1989 तक यह कांग्रेस के कब्जे में रहा, तो 2014 के बाद से भाजपा ने इसे पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया है. हरेक भारतीय प्रधानमंत्री, जो अपनी पार्टी का प्रमुख नेता था, उत्तर प्रदेश का था-चाहे नेहरू हों या इंदिरा, राजीव, वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, वाजपेयी या वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. वे वडोदरा से वाराणसी आए. जाहिर वजहों से हम मोरारजी देसाई, नरसिंह राव, और मनमोहन सिंह का नाम नहीं ले रहे हैं.
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हिंदी पट्टी ही फैसला करता रहा है कि भारत पर कौन राज करेगा. फिर भी यह सबसे गरीब, बुरी तरह कुशासित है, इसके सामाजिक संकेतक इतने घटिया हैं कि वे पूरे भारत के संकेतकों- साक्षरता से लेकर शिशु मृत्यु दर, स्कूल छोड़ने की दर, जीवन प्रत्याशा, प्रति व्यक्ति आय और जन्म दर तक- को नीचे खींच लाते हैं.
2018 में हमने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी पाकिस्तान की आबादी के बराबर आबादी वाले उत्तर प्रदेश के सामाजिक संकेतक किस तरह उसके इन निचले स्तर के संकेतकों के लगभग बराबर हैं- सिवा प्रति व्यक्ति आय के, जिसमें यह पाकिस्तान से थोड़ा ही आगे है.
हमें पक्के तौर पर मालूम नहीं है कि ‘बीमारू राज्य’ मुहावरा किसने गढ़ा था, लेकिन दशकों से इसे हिंदी पट्टी के चार राज्यों- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश- के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. इनमें से किसी का भी नाम प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर देश के अग्रणी 20 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों की सूची में शामिल नहीं है. राजस्थान 21वें नंबर पर है, मध्य प्रदेश 26वें, और सबसे नीचे यूपी 31वें और बिहार 32वें नंबर पर है. लेकिन 2011 की जनगणना के मुताबिक जनसंख्या वृद्धि के मामले में ये चारों सबसे आगे थे. 2001-11 के दशक में इसकी 25 प्रतिशत की दर के साथ बिहार सबसे ऊपर था और इसके बाद 21-20 प्रतिशत के आंकड़े के साथ क्रमशः राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश का नंबर था. तुलना के लिए, केरल में यह दर मात्र 5 प्रतिशत थी.
विंध्य पर्वत के दक्षिण में तस्वीर बदल जाती है. राष्ट्रीय रैंक में 1 और 6 से 12वें नंबर के बीच गोवा, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, पुड्डुचेरी का नाम है. महाराष्ट्र 12वें और आंध्र प्रदेश 17वें नंबर पर है. विंध्य से नीचे का कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जो 20 शीर्ष राज्यों की सूची में नहीं है. फिर भी उनमें कभी यह फैसला करने की ताकत नहीं आई कि देश पर राज कौन करेगा.
अब इसे राजनीति के लिहाज से देखते हैं. लोकसभा की 543 में से 204 सीटें इन चार ‘बीमारू’ राज्यों की हैं. जो पार्टी इन सीटों को अपनी झोली में डाल लेती है, दिल्ली की सत्ता उसके हाथ में होती है, जैसा कि 1984 तक कांग्रेस के हाथ में होती थी, और अब मोदी के दौर में भाजपा के हाथ में है.
विंध्य के पार छोटे राज्य पुड्डुचेरी, अंडमान और लक्षद्वीप समेत सभी दक्षिणी राज्यों की कुल 185 सीटें हैं लोकसभा में. मन बहलाने के लिए नहीं लेकिन बल्कि तुलना के लिए ओड़ीशा को भी इनमें जोड़ लें तो सीटों की संख्या 205 हो जाती है. क्या कोई इन 205 सीटों पर कब्जा करके भारत पर राज करने की ताकत हासिल करने की उम्मीद कर सकता है. आज तो यह असंभव है.
जो राज्य अपनी राजनीति और राजनीतिक प्राथमिकताओं में करीबी भागीदारी करते हैं वे भले ही देश पर राज करें लेकिन जीवन जीने के पैमानों पर निचले स्तर पर घिसटते रहे हैं. ऐसा कांग्रेस के दौर में भी था और भाजपा के दौर में भी हो रहा है. आप हमें धर्म, जाति, राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता सौंपिए और हम आपको ऐसी विपदा में डाल देंगे कि आपको आजीविका के लिए हजारों मील दूर जाना पड़ेगा, महामारी के कारण 12 महीने में दो बार अपने गांव भागना पड़ेगा, आपको अपने माता-पिता या भाई-बहन या बच्चे की सम्मानजनक अंतिम क्रिया करने के लिए पैसे नहीं होंगे और उनके शवों को नदियों में बहाना पड़ेगा.
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विंध्य के दक्षिण के हरेक राज्य की अपनी राजनीति है, अधिकतर के अपने क्षेत्रीय क्षत्रप हैं. वे उन्हें अच्छा शासन देते हैं, कल्याण के कार्यक्रम कुशलता से लागू करते हैं, आय का स्तर सुधारते हैं, सामाजिक संकेतकों को सुधारते हैं, उद्योग लगाते हैं, रोजगार के अवसर पैदा करते हैं. वहां के लोगों को अपने परिजनों के शव नदी में बहाने की जरूरत नहीं पड़ती. उनके कुछ नेता भ्रष्ट हो सकते हैं लेकिन वे कुशल शासन देते हैं क्योंकि उनके मतदाता उनके कामकाज के आधार पर उनका चुनाव करते हैं, केवल उनकी पहचान के आधार पर नहीं. गौर कीजिए, हमने कहा है- ‘केवल’ पहचान के आधार पर नहीं.
चूंकि उन सबकी अपनी-अपनी राजनीति है, इसलिए दिल्ली में उनकी गिनती शायद ही की जाती है. अगर आप आज मोदी के मंत्रिमंडल को देखेंगे तो पाएंगे कि दक्षिण के सबसे वरिष्ठ मंत्री राज्यसभा से हैं, जिनकी अपने राज्य की राजनीति में पैठ नहीं है.
राजनीतिक सत्ता, आर्थिक तथा सामाजिक संकेतकों में क्षेत्रीय असंतुलन बेहद चिंताजनक है. भारत में सबसे कम रफ्तार से जनसंख्या वृद्धि दर्ज करने वाले छह सबसे अच्छे राज्य इसी क्षेत्र के हैं. 1951 में, हमारी 543 सीटों वाली लोकसभा का गठन उस समय राज्य की आबादी के हिसाब से हुआ था. आज वह खाई काफी चौड़ी हो गई है. 1951 में, यूपी (उत्तराखंड समेत) की आबादी तमिलनाडु की आबादी से करीब दोगुनी ज्यादा थी. आज यह तीन गुना ज्यादा है और यह अंतर बढ़ता जा रहा है. 1951 में, बिहार (झारखंड समेत) की आबादी केरल की आबादी से करीब दोगुनी ज्यादा थी इसलिए लोकसभा में उसे 54 और केरल को 20 सीटें दी गईं. आज बिहार की आबादी केरल की आबादी से चार गुना ज्यादा है.
अब तक हम राजनीति के पिटारे को काफी उलट-पलट चुके हैं. 2001-02 में, संवैधानिक संशोधन के बाद संसद की सीटें और उनका राज्यवार आवंटन स्थिर कर दिया गया. इस पिटारे को अब 2026 के बाद की जनगणना के बाद खोला जाएगा. 2031 में आबादी के लिहाज से राज्यों की तुलनात्मक ताकत क्या होगी इसका आप अनुमान लगा सकते हैं. अगर कुशासन का अर्थ आबादी में वृद्धि है, और इसका अर्थ है सत्ता, तो भारत को एक भंवर की ओर धकेला जा रहा है. गंगा-यमुना में तैरते शव उस खाई के बारे में आगाह करते पक्षियों जैसे हैं, जो बेशक भयाक्रांत करने वाली चुप्पी ओढ़े हैं.
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