पाकिस्तान में साजिशों की व्याख्या क्रिकेट को लेकर पंडिताई झाड़ने जैसा ही राष्ट्रीय शगल है. लेकिन बृहस्पतिवार को इमरान ख़ान पर जानलेवा हमले की नाकाम कोशिश सियासी साज़िशों से लेकर क्रिकेट तक के पहुंचे हुए पंडितों को भी हैरत में डाल देगी.
आप कहेंगे, सियासी साजिश की बात तो समझ में आती है लेकिन इसमें क्रिकेट को क्यों घुसेड़ना? इसे हम जल्दी ही स्पष्ट करेंगे. पहले, इस नये घटनाक्रम से जुड़ी वे पांच बातें जो आम फौजी सियासी-साजिश से अलग हैं. आपने गौर किया होगा कि हम पाकिस्तान में फौज को प्रायः सियासत से ऊपर रखते हैं.
तो, वे पांच बातें ये हैं—
सियासी हत्याएं पाकिस्तान में होती रही हैं और उनमें फौज का प्रत्यक्ष (जुल्फ़िकार अली भुट्टो के मामले में) या परोक्ष (बेनज़ीर भुट्टो के मामले में) हाथ रहता है. लेकिन हत्या की कोशिश नाकाम हो, यह आम तौर होता नहीं है. एक अपवाद पहले हो चुका है लेकिन यह एक सिलसिला नहीं बना है. तो सवाल यह है कि यह ताजा कोशिश नाकाम क्यों हो गई?
इस उपमहादेश में फ़ौजियों की भाषा में कहें तो हत्या की हर एक कोशिश के बाद उसका शिकार या तो ‘छह फुट नीचे’ चला जाता है या कोशिश नाकाम हो जाने के बाद ‘बिलकुल भला आदमी बन जाता है.’ कोई भी फौज की ओर उंगली उठाने की हिम्मत नहीं करता.
बाकी जगहों के हिसाब से पाकिस्तानी भीड़ कहीं बड़ी, कहीं ज्यादा गुस्सैल, और बेकाबू हिंसक होती है. वह अमेरिकी सूचना सेवा केंद्र (यूएसआइएस) जैसे सबसे सुरक्षित संस्थान को भी तहसनहस (सलमान रुश्दी की किताब के खिलाफ प्रदर्शन में) कर सकती है. सवाल यह है कि रुश्दी तो ब्रिटेन में रह रहे भारतीय हैं, तो अमेरिकी केंद्र को क्यों निशाना बनाया गया? भीड़ ने पक्का काम कर डाला था. पिछले साल, उसने फ्रांस के दूतावास का भी लगभग वही हश्र किया
क्योंकि वह इसलिए नाराज थी कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों ने कथित तौर पर इस्लाम की निंदा की थी. नेताओं, क्रिकेटरों के घर, पूजास्थल—इन सब पर हमला जायज माना जाता है.
लेकिन किसी कोर कमांडर के घर को तो छोड़िए, फौज के किसी आका के ठिकाने को उसने अब तक कभी निशाना नहीं बनाया है. भारत की तरह पाकिस्तान में पश्चिमी, उत्तरी, दक्षिणी आदि आर्मी कमान नहीं रहे हैं. वहां प्रमुख क्षेत्रों के नौ कमान हैं और उनके कमांडर बहुचर्चित ‘पोलित ब्यूरो’ के बराबर हैं, जिनसे सेना के चीफ तक डरते हैं. किसी कोर कमांडर के साथ गुस्ताखी करने की हिम्मत कोई नहीं करता. ताकतवर पेशावर कोर के साथ तो शायद ही कोई कुछ कर सकता है. भारत के करीब के कराची, लाहौर, मंगला, मुल्तान, रावलपिंडी आदि तो फौजी लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण हैं लेकिन राजनीतिक-रणनीतिक लिहाज से पेशावर कमान सबसे ऊपर है. वह अफगानिस्तान पर नज़र और नियंत्रण रखता है, वजीरिस्तानियों और पाकिस्तानी तालिबान की बगावतों का मुक़ाबला करता है.
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वह डूरंड रेखा की रखवाली करता है, जिसे अफगानिस्तान की किसी सरकार ने कभी कबूल नहीं किया. वह सत्तातंत्र के संरक्षण में चलने वाले सभी आतंकी नेटवर्क का ‘बैक ऑफिस’ भी है. याद कीजिए की ओसामा बिन लादेन कहां रहता था जहां भारतीय मिराज विमान जैश-ए-मोहम्मद के ठिकाने पर मिसाइल दाग रहे थे. जब पाकिस्तान के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए तो सबसे उग्र विरोध पेशावर में ही हुआ, जहां हजारों की भीड़ ने कोर कमांडर के निवास को घेर लिया था. भीड़ ने सेना को भी पीछे धकेल दिया था और यह नारा लगाते हुए गोलियों का सामना कर रही थी—‘यह जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है!’ आज यह नारा पाकिस्तान में खूब गूंज रहा है. पहले भी यह नारा कभी-कभार लगाया जाता था लेकिन विपक्षी नेता भी इसे चुप कराने की कोशिश करते रहते थे. संदेश यही होता था कि हमारी बहादुर, काबिल-ए-तारीफ फौज पर कोई हमला न करे.
इसलिए, हमारा तीसरा सवाल यह है कि फौज के प्रति यह भावना कमजोर क्यों पड़ गई है?
जानलेवा हमले के पहले पाकिस्तानी मीडिया की सुर्खियों पर नजर डालिए. उनके एक प्रमुख राजनीतिक सहयोगी ने उन लोगों के नाम बता दिए थे, जो उनकी हत्या की साजिश रच रहे हैं. ऐसे लोगों में सबसे ऊपर मेजर जनरल फैसल नसीर का नाम था, जिनके घर का, भारतीय मुहावरे के अनुसार कहें तो घेराव ऐसी हिंसक और गुस्सैल भीड़ ने किया था जैसी भीड़ आपने वहां लंबे समय से नहीं देखी होगी. हत्याओं के लिए जो लोग फौजी जनरलों या आइएसआइ के प्रमुखों को जिम्मेदार बताते रहे हैं वे प्रायः विदेश में सुरक्षित जीवन जी रहे इतिहासकार हैं, देश निकाला झेल रहे विदेशी या पाकिस्तानी लोग. वैसे, हाल की कुछ घटनाएं बताती हैं कि देश से बाहर रह रहे लोग भी सुरक्षित नहीं हैं. हाल में नीदरलैंड में रह रहे एक असंतुष्ट पाकिस्तानी पर जानलेवा हमला किया गया और पाया गया कि इस मामले में आइएसआइ के ‘एजेंटों’ पर ब्रिटेन में आरोप दर्ज किया गया है. इसलिए, अब पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय (मगर सत्ता से बाहर) राजनीतिक नेता के करीबी लोग उनकी हत्या की साजिश का आरोप आला फौजी जनरलों पर कैसे लगा रहे हैं?
पांचवें और अंतिम मसले की विस्तार से चर्चा हमने इस स्तंभ में पिछले सप्ताह की थी. अगर आइएसआइ के प्रमुख को उस प्रधानमंत्री पर, जिसे उन लोगों ने गैरकानूनी तरीके से ‘चुना’ और लगभग इसी तरीके से ‘बर्खास्त’ कर दिया, हमला करने के लिए पहली बार प्रेस सम्मेलन बुलाना पड़ा तो इससे जाहिर है कि फौज एक लोकप्रिय राजनेता से पहली बार डर गई है. इसलिए पांचवां सवाल यह है कि इन भयानक चेतावनियों और फौजी जनरल हेडक्वार्टर की ओर से दुश्मनी के खुले ऐलान के बावजूद इमरान ने सामान्य, ‘समझदारी’ का काम क्यों नहीं किया और अपना इस्लामाबाद मार्च स्थगित क्यों नहीं किया?
इन पांचों सवालों के संभावित जवाबों पर विस्तार से विचार कर सकते हैं. लेकिन इस पर इतनी जद्दोजहद क्यों की जाए जबकि इन सबका जवाब दो शब्दों या एक नाम ‘इमरान ख़ान’ में मिल सकता है. यह हमें वापस वहीं पहुंचा देता है, जहां से मैंने शुरुआत की थी. या उस कारण तक पहुंचा देता है जिसके चलते मैंने कहा कि यह हमला पाकिस्तान में साज़िशों, और क्रिकेट के बारे में व्याख्याएं करने वाले पंडितों को भी हैरत में डाल देगा.
कुछ अनुभवी हो चुके कई राजनीतिक पत्रकार दावा कर सकते हैं कि वे क्रिकेटर इमरान ख़ान को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं, उनका इंटरव्यू ले चुके हैं, उनसे अनौपचारिक बातें करते रहे हैं और उनका अध्ययन करते रहे हैं. मैं भी विनम्रतापूर्वक दावा करता हूं कि मैं यह सब कर चुका हूं. यह मुमकिन है, और वास्तव में निश्चित भी है कि हममें से हर एक ने पाया है कि वे एक अनूठी शख्सियत हैं, इस उपमहादेश के आम क्रिकेट सितारों से अलग. उनमें लापरवाही की हद तक जोखिम मोल लेने का जज्बा रहा है.
जब तक मैं खेलों को गंभीरता से कवर करता रहा और जिन क्रिकेटरों को मैंने जाना, उनमें इमरान खान को मैंने न केवल जानकार बल्कि सजग भी पाया. वे कहते थे कि भारत पाकिस्तान से क्रिकेट में इसलिए हारता रहता है क्योंकि भारत वाले हारने से बहुत डरते हैं. वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय क्रिकेट तंत्र की यह कहकर कड़ी आलोचना की थी कि वह हमेशा तेज गेंदबाजी और ‘लाइन ऐंड लेंथ’ पर ज़ोर देता रहता है.
जोखिम लेना चलन में नहीं था. 1994 में, जब वे गेंद के साथ छेड़छाड़ के विवाद से घिरे थे तब लंदन में उनके साधारण-से फ्लैट में मैंने उनका जो इंटरव्यू लिया था और ‘इंडिया टुडे’ में छपने के बाद जो काफी चर्चित हुआ था उसमें उन्होंने कहा था कि किसी आला अंग्रेज़ या ऑक्सब्रिज टाइप क्रिकेटर ने उनकी आलोचना नहीं की. केवल बॉथम और लैंब जैसे ‘निचले किस्म’ के खिलाड़ी ही यह कर रहे थे.
बॉथम और लैंब ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया था. इमरान और उस समय उनकी पत्नी जेमीमा मुझे कह रही थीं कि मैं उन्हें ‘बर्बाद’ होने से बचाने के लिए यह कहूं कि मैंने उनकी बात को गलत तरीके से पेश किया है. यह मामला किस तरह निबटा, इसे जानने के लिए यह लेख पढ़ें.
उनके राजनीतिक सफर पर नज़र डालिए. साल 1997 में अपने पहले चुनाव में वे सभी नौ सीटों पर हार गए और सात पर जमानत जब्त हो गई. पाकिस्तानी विमान सेवा पीआइए की इस्लामाबाद से लाहौर की फोक्कर फ्रेंडशिप उड़ान में मेरे बगल में उनके पुराने दोस्त मगर अब दुश्मन सरफराज नवाज़ बैठे मिले थे. मैंने उनसे पूछा था कि उनके दोस्त पांच सीटों से कैसे चुनाव लड़ रहे हैं? नवाज़ ने जवाब दिया, जब वे क्रिकेट खेलते थे तब समझते थे कि पूरी टीम वे ही हैं. आज, सत्ता से बाहर होने के बाद वे उन सभी सात सीटों पर चुनाव लड़े जिन पर उपचुनाव हुए, और छह पर जीते. और फिर कहा कि वे संसद में नहीं जाने वाले क्योंकि उसे वे अवैध मानते हैं. उन्होंने फौज को चुनौती दी कि वह नया चुनाव कराए, और यह भी दिखा दिया कि नया चुनाव हुआ तब क्या होगा. कहीं के और खासकर पाकिस्तान के सामान्य राजनीतिक नेता के विपरीत, इमरान से यह उम्मीद मत कीजिए कि वे अपने पत्ते छिपाए रखेंगे.
इसलिए उनके बारे में निष्कर्ष ये हैं—
जरूरत होगी तो वे गेंद के साथ छेड़छाड़ करेंगे, सबसे ताकतवर पर भी बदतरीन आक्षेप लगाकर लड़ेंगे, ब्रिटेन के खतरनाक मानहानि कानून के खिलाफ जोखिम मोल लेंगे, खुद को पूरी टीम मान कर चलेंगे, किसी ‘दोस्त’ से उम्मीद करेंगे और उससे कहेंगे कि वह उनके लिए अदालत में झूठ बोले. और अब उनका मानना है कि अल्लाह उनके साथ है.
पाकिस्तान के पारंपरिक सोच में कसीनो वाला तर्क चलता है. आपके पास पत्ते कौन से हैं, आपमें हुनर कितना है, आपकी जेब में पैसे कितने हैं, इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता. जीत हमेशा ‘हाउस’ की होती है. उन्हें आप पसंद करें या उनसे नफरत करें, ‘हाउस’ को ध्वस्त करने के लिए कोई इमरान ख़ान ही चाहिए. वे फरेबी, शंकालु, स्वार्थी, आत्ममुग्ध, झूठे हो सकते हैं लेकिन वे, जैसा कि उनके पाकिस्तानी आलोचक कहते हैं, कभी ‘इम द डिम’ (फीके इमरान) नहीं रहे, और न हैं.
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