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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टमोदी-शाह के अश्वमेध यज्ञ में NDA बलि चढ़ाने वाले घोड़े की तरह है जिसके सहारे वो भारतीय राजनीति की नई परिभाषा लिख रहे हैं

मोदी-शाह के अश्वमेध यज्ञ में NDA बलि चढ़ाने वाले घोड़े की तरह है जिसके सहारे वो भारतीय राजनीति की नई परिभाषा लिख रहे हैं

मोदी-शाह की नयी राजनीति आपको कबूल है तो आपका ही भला है, नहीं कबूल है तो इस अश्वमेध के घोड़े को चुनौती देने के लिए आपको वायरल होने वाले ट्वीट्स से आगे बढ़कर कुछ करना पड़ेगा.

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लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा ने 1998 में 25 से ज्यादा सहयोगियों को मिलाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का गठन किया था. और इसके साथ भारत में सबसे सफल गठबंधन की राजनीति की शुरुआत हुई थी. इसके बाद तीन ऐसे गठबंधनों ने पूरे कार्यकाल तक सरकार चलाई जिसमें केंद्रीय पार्टी को बहुमत हासिल नहीं था.

लेकिन 2020 में आज नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने राजग को खत्म कर दिया है और राष्ट्रीय राजनीति के लिए नये कायदे और नये समीकरण तय कर दिए हैं. आडवाणी के राजग को खत्म कर दिया गया है, उसका इस्तेमाल करके फेंक दिया गया है. आप इसकी तुलना वैदिक विधान से किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ से कर सकते हैं. जब आपके अश्व ने पूरे राष्ट्र में निर्बाध घूम कर आपकी सत्ता, आपकी संप्रभुता स्थापित कर दी हो, तब आप क्या करते हैं? उस पवित्र अश्व की बलि चढ़ा देते हैं. राजग वही बलि का अश्व था. और हम यह कोई फैसला नहीं सुना रहे हैं.

इसे आज भी राजग की सरकार कहा जाता है, भले ही 53 सदस्यों वाले इसकी मंत्रिपरिषद में गठबंधन का केवल एक सहयोगी शामिल है. अगर आपको उसका नाम याद नहीं आ रहा तो परेशान मत होइए. मैं आपको गूगल में सर्च करने की जहमत से बचाते हुए बता देता हूं कि वे हैं रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के उस धड़े के नेता रामदास अठावले जो धड़ा उनके ही नाम से जाना जाता है. राजग की गठबंधन सरकार नाम की कोई चीज़ आज मौजूद है, इसकी याद दिलाने वाले केवल एक वे ही प्रतीक हैं. यह वैसा ही है जैसे 1990 के दशक में आडवाणी की रथयात्रा को ‘सेक्युलर’ साबित करने के लिए उनके रथ का सारथी एक मुसलमान था.

अठावले अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाने के लिए गाहे-बगाहे ऐसा कुछ बोलते रहते हैं जिसके ‘वायरल’ होने की गारंटी रहती है. मंत्रिपरिषद में उन्हें वह जगह दी गई है जिसके वे हकदार हैं. उनकी पार्टी का महाराष्ट्र में दलितों के बीच छोटा-सा वोट आधार है. इसलिए उन्हें सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण विभाग का राज्यमंत्री बनाया गया है. यह तो एक क्षेपक है लेकिन कैबिनेट में एकमात्र मुसलमान सदस्य जो हैं, उन्हें भी इसी तरह अल्पसंख्यक मामलों का विभाग सौंपा गया है.

क्या इसके लिए आप मोदी-शाह की भाजपा की आलोचना कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री (भ्रष्टाचार के लिए जेल भेजे गए, फिलहाल पैरोल पर) ओम प्रकाश चौटाला के इस बयान में मिल सकता है जो उन्होंने मुझसे बात करते हुए दिया था— ‘हम यहां तीर्थ यात्रा पर नहीं आए, राजनीति सत्ता के लिए होती है.’ नयी भाजपा इस कसौटी पर खरी उतरती है, भले ही किसी के पैर कुचले हों, किसी का अंगभंग हुआ हो और कई के अहं चकनाचूर हुए हों.

अब हम 1998 से 2014 पर आ जाएं. भाजपा को बहुमत मिल गया. फिर भी सात सहयोगी दल सरकार के साथ थे. शिवसेना, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम पार्टी (टीडीपी), शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) कैबिनेट में शामिल थे. अनुप्रिया पटेल का अपना दल, उपेंद्र कुशवाहा की लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी (आरएसपी) और आरपीआई (अठावले) में से टीडीपी को छोड़ हरेक के राज्यमंत्री सरकार में थे.

छह साल बाद अगर इनमें से केवल अठावले ही परिभाषा के मुताबिक अभी भी राजग सरकार में बचे हुए हैं तो इससे साफ है कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति किस कदर बदल गई है. राष्ट्रीय राजनीति पर अपने वर्चस्व के साथ मोदी-शाह की भाजपा वैसी ही हो गई है जैसी कांग्रेस इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हो गई थी. वह गठबंधन के सहयोगियों की, उनके लालच और अहं की क्यों परवाह करेगी? वे ‘तीर्थ यात्रा’ के लिए राजनीति में थोड़े ही आए हैं.


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यहां हम बीते हुए की वकालत नहीं कर रहे हैं. इसके विपरीत, यह भविष्य की राजनीति को गति देने वाली चीज़ साबित हो सकती है. फिर भी हमें पीछे मुड़कर देखने की जरूरत है. आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी ने राजग के पहले गठजोड़ में जिन पार्टियों को जोड़ा था उनमें से कई आज अस्तित्व में नहीं हैं, उनमें से कई के नाम भी आज हिज्जे की गलतियां नज़र आएंगी और आईएएस का टॉपर भी शायद उनका नाम याद न कर पाए. लेकिन कुछ नाम तो शायद ही भुलाए जा सकते हैं.

राजग के मूल कैबिनेट में जॉर्ज फर्नांडीस रक्षा मंत्री थे और वे सहयोगी दल के आखिरी सदस्य थे जिन्हें सुरक्षा मामलों की महिमा मंडित कमिटी (सीसीएस) में जगह मिली थी. उनके कॉमरेड और कभी दोस्त कभी दुश्मन नीतीश कुमार कभी रेल मंत्री रहे तो कभी कृषि मंत्री. ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, शरद यादव और रामविलास पासवान भी महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे. इसी तरह सुरेश प्रभु थे जो उस समय शिवसेना में थे. नायडू की टीडीपी लोकसभा अध्यक्ष (जी.एम.सी. बालयोगी) के रूप में शामिल थी. सहयोगी दल के आखिरी सदस्य थे. नेशनल कांफ्रेंस के अब्दुल्ला पिता-पुत्र भी जुड़े थे. यह एक प्रामाणिक विशाल गठबंधन था.

आज नीतीश राजग के सहयोगी हैं मगर केंद्रीय कैबिनेट में उनकी पार्टी का कोई भी नहीं है और बिहार में वे हर दिन सिकुड़ते जा रहे हैं. वे वहां फिर शायद मुख्यमंत्री बन जाएं लेकिन यह उनका आखिरी कार्यकाल ही साबित हो सकता है. उनके परिवार या पार्टी में उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं है, सो भाजपा उनके पूरी तरह बेअसर होने का इंतजार कर सकती है और तब कब्जा जमा सकती है.

पश्चिम बंगाल में भाजपा अपनी पूर्व सहयोगी ममता बनर्जी से आरपार की लड़ाई लड़ रही है. वे जीतें या हारें, कमजोर तो होंगी ही और भाजपा राज्य की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बन जाएगी. नवीन पटनायक को ओडिशा में अलग-थलग कर दिया गया है, बेशक उन्हें कभी-कभी परेशान किया जाता है लेकिन भाजपा को पता है कि वे उम्रदराज़ हो रहे हैं और उनके बाद तो मैदान उसी का है. मुमकिन है कि 2024 के चुनाव से पहले ही वह वहां बाज़ी पलटने की चाल चल दे.

खेल जाना-पहचाना है. एक-दो असंतुष्ट सामने आएंगे, कुछ आरोप उछालेंगे, सीबीआई, ईडी, आदि एजेंसियां दखल देंगी, समर्थक टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर जंग शुरू हो जाएगी और अकेले मुख्यमंत्री के लिए इन सबका मुकाबला करना मुश्किल हो जाएगा, खासकर पटनायक के लिए जो 2024 में जिस उम्र में पहुंच जाएंगे. अब्दुल्ला पिता-पुत्र को एक साल हिरासत में रखा गया और महबूबा मुफ्ती को भी, हालांकि वे मोदी-शाह दौर में भाजपा की सहयोगी बनी थीं.

शिवसेना तो अब दुश्मन ही बन गई है और सुरेश प्रभु भाजपा में शामिल हो गए हैं. शरद यादव अप्रासंगिक होने के कगार पर हैं और उनकी बेटी सुभाषिणी अभी-अभी कांग्रेस में शामिल हो गई हैं. पासवान का वंश जानी-पहचानी लंबी कहानी की तरह खिंच रही है और इस बार का बिहार विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी के पटाक्षेप की कहानी लिख सकता है.

चंद्रबाबू नायडू अब प्रतिद्वंदी हैं और आंध्र प्रदेश में उन्हें परास्त करने वाले जगन मोहन रेड्डी सीबीआई और ईडी के रहमोकरम पर हैं. वे न्यायपालिका में हताश लड़ाई लड़ रहे हैं और मोदी सरकार हमेशा उन पर भारी पड़ सकती है. दक्षिण में और आगे बढ़ें तो भाजपा को कमजोर पड़ी एआईडीएमके से निपटने में कोई दिक्कत नहीं होगी, वह बस मौके का इंतज़ार कर रही है.


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राजनीति दरअसल युद्ध का सबसे क्रूर रूप है. इसलिए स्थिति ऐसी है कि पटनायक, रेड्डी, नीतीश, सबको पता है कि भाजपा उसका शिकार करने और उन्हें बेदखल कर देने वाली है. फिर भी, वे चुनावों में मुकाबला करेंगे.

अपने अपमान को पी लेने के सिवाय और अहम मसलों पर राज्य सभा में भाजपा के पक्ष में मतदान करने के सिवाय उनके पास कोई उपाय नहीं है. आप अपने राज्य में सम्राट होंगे लेकिन असली ताकत—‘एजेंसियां’, नेशनल मीडिया, मनीबैग्स, सब-के-सब केंद्र के साथ हैं, जिसे अब आपकी जरूरत नहीं है.

मोदी-शाह जो हैं, उन्हें आप वैसा ही मान सकते हैं— भारत में अब तक की सबसे ‘सियासी’ सरकार लेकिन वे इसके लिए शर्मिंदा नहीं हैं. अगर उन पर चौबीसों घंटे, सातों दिन, सालों भर सियासत और सत्ता की धुन सवार है, जैसी अब तक भारत में नहीं देखी गई थी, तो आपको इसे मानना पड़ेगा. यहां तक कि उनके आर्थिक फैसले भी सियासत से निर्देशित होते हैं. इसलिए, ब्याज दरों में और कटौती नहीं होगी, केंद्र सरकार अब और वित्तीय पैकेज नहीं देगी क्योंकि इससे गरीबों पर महंगाई की मार पड़ सकती है. सरकार जो भी वित्तीय त्याग करेगी वह सिर्फ इसलिए कि गरीब भूखे न रह जाएं.

महंगाई, जनकल्याण और आर्थिक वृद्धि के बीच समझौता शुद्ध, जोखिम मुक्त सियासत है. इसी तरह, वह पेट्रोल उत्पादों पर सबसे ऊंचा टैक्स थोपने से हिचकती नहीं क्योंकि ऑटोमोबाइल केवल मध्य और निम्न मध्य वर्ग वाले इस्तेमाल करते हैं. उनके वोट तो उसकी झोली में हैं ही.

राष्ट्रीय राजनीति में आज यही खेल चल रहा है. आपका भला इसी में है कि आप इसे पसंद करें. नहीं करते, तो आपको अश्वमेध के इस राष्ट्रविजयी अश्व को चुनौती देनी पड़ेगी और यह केवल वायरल होने वाले ट्वीट्स के बूते नहीं हो सकेगा.

आडवाणी अभी मौजूद हैं, उनसे सलाह लीजिए. वे निराश नहीं होंगे. 1998 में उन्होंने भारतीय राजनीति को बदलने का अभियान छेड़ा था. अपने जीवनकाल में ही उनके शिष्यों ने उनके संकल्प का लाभ उठा लिया— पूरी तरह तो नहीं लेकिन काफी हद तक. नेहरू के प्रशंसक माफ करें कि हमने उनसे यह चुरा लिया.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. भारत की इतनी ख़राब अर्थव्यवस्था के बाद भी मध्यमवर्गीय जनता का भाजपा के साथ होना थोड़ा चकित तो करता है , की आखिर लोग सीधे तौर प्रभावित होने के बावजूद भी साथ कैसे खड़े है। शायद इसी भरम में की “सब ठीक हो जायेगा”!

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