एक तकलीफदेह साल खत्म होने को है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चिंताएं खत्म नहीं होती दिख रही हैं. भारत कई प्रमुख सूचकांकों पर पहले के मुक़ाबले बुरी स्थिति में दिख रहा है, और इनके लिए हम कोरोना महामारी वाले साल को जिम्मेदार नहीं मान सकते हैं.
आप सवाल कर सकते हैं कि किसी सरकार के सातवें साल में उसका आकलन करने की क्या जरूरत आ पड़ी? अगला आम चुनाव करीब साढ़े तीन साल बाद है. इसके अलावा, मोदी के साथ मतदाताओं के ‘लव अफेयर’ में किसी कमी के लक्षण नहीं दिख रहे हैं. अगर मोदी और उनकी पार्टी हर राजनीतिक लड़ाई जीत ही रही है, तो फिर आपको क्या परेशानी है?
इस सवाल का जवाब यह है कि नेतृत्व का अर्थ केवल लोकप्रियता नहीं होता है. और, शासन शुद्ध राजनीति से ऊपर की चीज़ होनी चाहिए. आप फिर सवाल कर सकते हैं कि इन बातों को उठाने का आज क्या मतलब है?
यह समय हमने नहीं चुना है, यह खुद हमारे सामने आ गया है. हाल के दिनों में आंकड़ों, कई सर्वे के खुलासों, ग्लोबल रेटिंग और रैंकिंग की जैसे बरसात हुई है. ये सब हमें काफी अंदाजा दे रहे हैं कि अपने सातवें साल में पहुंच चुकी इस सरकार की उपलब्धियां क्या रही हैं और उसने क्या कुछ गंवा दिया है. सबसे ताजा हैं सरकार के अपने आंकड़े, जो राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5), फेज-1 से हासिल हुए हैं. इसमें सभी पैमाने पर बेहद खराब आंकड़े सामने आए हैं.
इस पर मैंने अपने वीडियो सीरीज़ ‘#CutTheClutter’ की एक किस्त रिकॉर्ड की है, जिसमें आप इन आंकड़ों के बारे में विस्तार से जान सकते हैं. लेकिन बातें इससे भी ज्यादा हैं. ह्यूमन फ़्रीडम इंडेक्स (मानव स्वाधीनता सूचकांक) की ताजा रैंकिंग आ गई है और इसने इस सूचकांक के आधार पर भारत को बड़ी बेरहमी से 17 पायदान नीचे धकेलकर 94 से 111 नंबर पर पहुंचा दिया है. इसे आप मोदी/भारत/हिंदू विरोधी, ‘वामपंथियों से भरे संगठनों की साजिश बताकर खारिज नहीं कर सकते, क्योंकि यह सर्वे वाशिंगटन का काटो इंस्टीट्यूट करता है, जो वामपंथ से उतना ही दूर है जितनी चौड़ी खाई मुकेश अंबानी और पिनरायी विजयन के बीच है. इससे जुड़े प्रमुख विद्वानों में स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर भी शामिल हैं, जिन्होंने नये कृषि क़ानूनों का शायद मुझसे भी ज्यादा मजबूती से समर्थन किया है.
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ह्यूमन फ़्रीडम इंडेक्स 76 पैमानों पर आकलन करने के बाद देशों की रैंकिंग तय करता है. इन पैमानों में ये भी शामिल हैं—कानून का शासन, सुरक्षा, धार्मिक स्वतंत्रता, संघों और सिविल सोसाइटी के गतिविधियां, अभिव्यक्ति और सूचना की स्वतंत्रता, नियमन का स्तर, और जी हां, सरकार का आकार भी. ‘न्यूनतम सरकार’ का वादा तो याद है न?
भारत को आला रैंकिंग मिलेगी, यह तो कोई अपेक्षा नहीं करता लेकिन उसमें सुधार तो एक वाजिब अपेक्षा है. लेकिन इसका उलटा ही हुआ है. झटका तो तब लगता है जब हम पाते हैं कि फ़्रीडम इंडेक्स (बिजनेस करने की स्वतंत्रता) के मामले में भी बोलसोनारो के ब्राज़ील, मेक्सिको, कंबोडिया, बोलीविया, नेपाल (सभी हमसे 19 पायदान ऊपर 92 नंबर पर), श्रीलंका (हमारे बराबर 94 नंबर पर), और ज़ाम्बिया, हाइती, लेबनान, लुकाशेंको का बेलारूस भी, सेनेगल, मोज़ाम्बिक, लेसोथो, युगांडा, मलावी, मडागास्कर, भूटान (108 नंबर पर) और बुर्किना फासो ने भी हमें मात दे दी है. बुर्किना फासो की राजधानी ओवागोदाउगो की याद शायद आपको हो, जहां से नरसिंह राव ने कश्मीर मसले का शांति प्रस्ताव शायद इसलिए जारी किया था क्योंकि चंद्रास्वामी ने दुनियाभर में उसे ही इसके लिए ज्योतिषशास्त्र के मुताबिक सबसे शुभ स्थान माना था.
वैसे, हम खुश हो सकते हैं कि हम पाकिस्तान और बांग्लादेश से काफी आगे हैं, लेकिन यह हारे हुए के लिए सांत्वना पुरस्कार जैसा ही है. वास्तव में, हम अपने पुराने दोस्त, पुतिन के नये रूस से एक पायदान ऊपर हैं. कजाखस्तान की शायद आपको याद हो, जिसे बोरात सीरीज़ की फिल्मों ने तानाशाही देश के रूप में प्रस्तुत किया था. वह हमसे 36 सीढ़ी ऊपर 75वें नंबर पर है. 2020 की ये जो रैंकिंग हैं वे वर्ष 2018 की हैं. इसलिए आप कोरोना महामारी को दोष नहीं दे सकते. और 2019 में हमारा जो 94 नंबर था वह वर्ष 2017 के आंकड़े पर आधारित था.
अब जरा सांस रोक कर देखिए कि 2013 के बाद से हमारी रैंकिंग किस तरह बदलती रही है. वर्ष 2008-12 के लिए यह 75 थी, 2013 के लिए 87, 2015 के लिए 110, 2017 में यह सुधरकर 94 हुई, लेकिन 2018 के लिए यह लुढ़ककर 111 पर पहुंच गई है. इसे राजनीति के ग्राफ के हिसाब से देखें.
सितंबर में जारी ‘ग्लोबल इकोनॉमिक फ़्रीडम इंडेक्स’ (वैश्विक आर्थिक स्वाधीनता सूचकांक) के मामले में भारत की रैंकिंग 79 से 26 सीढ़ियां लुढ़ककर 105 हो गई. यह रैंकिंग कनाडा के फ्रेज़र इंस्टीट्यूट द्वारा दी गई है, जो निश्चित ही वामपंथी नहीं है. दुनियाभर में लोकतंत्र पर नज़र रखने वाली विश्व-प्रतिष्ठित संस्था ‘फ़्रीडम हाउस’ ने अक्तूबर में अपना इंटरनेट फ़्रीडम इंडेक्स जारी किया जिसके मुताबिक भारत ने लगातार तीसरे साल गिरावट दर्ज की, क्योंकि यहां दुनिया में सबसे ज्यादा बार इंटरनेट बंद किए गए.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) हर साल जो मानव विकास रिपोर्ट जारी करता है उसमें भी भारत के लिए कोई खुश करने वाली बात नहीं है. इसके मुताबिक हम दो पायदान नीचे गिरकर 131 नंबर पर पहुंच गए हैं. पिछले तीन साल से हम 130, 129, 131 नंबर पर घिसट रहे हैं. जबकि हमारे यहां पूर्ण बहुमत वाली सरकार लगातार सातवें साल से काम कर रही है, तो हम इससे कहीं बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर सकते थे.
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क्या हम आंकड़ों का मनमर्जी चयन कर रहे हैं? हकीकत यह है कि इन सर्वेक्षणों और रैंकिंग को दुनियाभर में प्रतिष्ठा हासिल है. मैं यहां उनको शामिल नहीं कर रहा जिनको मैं बहुत गंभीरता से नहीं लेता, मसलन प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में ‘आरएसएफ’ की हमारी 142 रैंकिंग, जिसमें 2 अंकों की गिरावट आई है.
भारत में प्रेस को बेशक कई चुनौतियों से सामना करना पड़ता है, लेकिन जो सर्वे म्यांमार, दक्षिणी सूडान, यूएई, श्रीलंका, तंजानिया और अफगानिस्तान तक को, जहां औसतन हर सप्ताह एक पत्रकार मारा जाता है, भारत से बेहतर रैंकिंग देता है, वह मुझे किस तरह परेशान करता है.
इस बात को तो यहीं छोड़ता हूं, लेकिन ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ (वैश्विक भुखमरी सूचकांक) को नहीं. यह भी विज्ञानसम्मत, विद्वानों द्वारा समीक्षित अनुसंधान से तैयार होता है. इसमें भारत को पिछले साल 102वां रैंक मिला था, इस साल 94वां रैंक मिला है लेकिन इस साल यह रैंक 107 देशों के बीच मिला था, जबकि पिछले साल 117 देश मैदान में थे. 10 देश मैदान से निकल गए, आपके रैंक में आठ अंकों का सुधार आया, यानी कुल मिलाकर आप जहां-के-तहां हैं या थोड़ा नीचे ही खिसके. लेकिन ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के साथ एक समस्या है. ‘भूख’ शब्द यहां एक भ्रम है क्योंकि इसका ताल्लुक इस बात से नहीं है कि आप भूखे पेट सोते हैं या नहीं, इसका ज्यादा ताल्लुक पोषण से है. यह हमें हमारे केंद्रीय मुद्दे पर पहुंचाता है.
हमने बात राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) से शुरू की थी. ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ (जीएचआइ) के मामले में भारत हमेशा परेशानी का सामना करता रहा है, हालांकि यहां दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलता है. लेकिन ‘जीएचआइ’ का ताल्लुक न तो अनाज से है, न रोटी-चावल से और न भरे हुए पेट से, बल्कि इसका ताल्लुक लोगों के पोषण से है.
यहीं पर ‘एनएफएचएस’ हमें आईना दिखाता है, जिसमें हम बदसूरत नज़र आते हैं. यह बताता है कि 1998-99 के बाद पहली बार भारत में बाल कुपोषण में गिरावट की दिशा उलट गई है. यह इस सर्वे का पहला चरण है, दूसरे चरण में कुछ बड़े राज्य शामिल किए जाएंगे. लेकिन केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख राज्यों की तस्वीर बुरी है. वहां पांच साल से कम उम्र के बच्चों में शारीरिक वृद्धि में कमी, फेफड़ों की बीमारी और वजन की कमी की समस्या गहरी होती दिख रही है. अधिकांश राज्यों में बच्चों में मोटापे की समस्या भी है. अब यह कैसे हो सकता है कि बच्चे दुबले भी हो रहे हैं और उनमें मोटापा भी बढ़ रहा है?
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यह सब पढ़कर मोदी के आलोचकों के मुंह से यही निकल रहा होगा— वो मारा! मोदी तो स्वच्छ भारत मिशन, राष्ट्रीय पोषण मिशन आदि पर फर्जी दावे और आंकड़े पेश कर रहे हैं. लेकिन आलोचकों को निराश होने के लिए तैयार रहना होगा. सर्वे बताता है कि सफाई के मामले में सुधार दिखता है, और समन्वित बाल विकास योजना (आइसीडीएस) के विस्तार, पहुंच और क्रियान्वयन में सुधार हुआ है. तो फिर गड़बड़ी कहां हुई?
पिछले पांच साल में आर्थिक वृद्धि दर में कमी आई है. हमारी आबादी के गरीब तबके पर इसका असर सबसे ज्यादा पड़ा है. ऐसे परिवारों के लिए दूध, अंडे, दाल, सब्जी, फल आदि पोषक चीजें पहुंच से दूर होती गई हैं. इसलिए, ‘एनएफएचएस’ और ‘जीएचआइ’ की रिपोर्टों को साथ-साथ पढ़िए तो बात समझ में आ जाएगी.
अंत में, हमें यह भी समझना होगा कि यह विरोधाभास क्यों पैदा हुआ है. हम यह भी स्वीकार करते हैं कि मोदी-भाजपा समीकरण चुनावों में अपने झंडे गाड़ता रहा है. इसका रहस्य तभी खुलेगा जब आप इस बात को कबूल करेंगे कि मोदी-भाजपा ने आर्थिक वृद्धि को वोट खींचने के अपने औज़ार से अलग कर दिया है. राष्ट्रवाद, धर्म, मोदी की निजी लोकप्रियता, और नकारा विपक्ष— मोदी-भाजपा को चुनाव जिताने के लिए ये काफी हैं.
लेकिन उनके लिए उपरोक्त आंकड़े एक चेतावनी हैं. लोगों के जीवन स्तर में गिरावट किसी-न-किसी मुकाम पर किसी की भी लोकप्रियता को चोट पहुंचा सकती है. याद रहे, आप सारी बातों को पूर्वाग्रहग्रस्त बताकर खारिज कर सकते हैं, उनके लिए कॉंग्रेस के ‘सत्तर साल’ को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन ‘एनएफएचएस’ के सर्वे में जिन बच्चों को शामिल किया गया वे पांच साल से कम उम्र के थे, वे सब मोदी सरकार के राज में पैदा हुए, और सर्वे कोरोना महामारी से पहले पूरा हो चुका था. इसलिए अब मुंह छिपाने के लिए कोई जगह नहीं बची है.
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