2024 के चुनावी रण के रणबांकुरे जब अपने-अपने घोषणापत्र रूपी तलवारों के साथ तैयार हो चुके हैं, तब जनमत सर्वेक्षणों की पहली खेप भी सामने आ चुकी है. टीवी समाचार चैनलों के प्रति भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों का जो यह संशय भाव है कि ‘इन लोगों से आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं’, उसे मैं समझता हूं लेकिन विश्लेषण के लिए कुछ तो आंकड़े हों यही बेहतर है.
कुछ ढाबों और तीन टैक्सी ड्राइवरों से बात करके चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करने वाले हम जैसे पत्रकारों और चुनावी पंडितों पर ही छोड़ दें तो हम अपने पसंदीदा लोगों की जीत की घोषणा करके निश्चिंत हो सकते हैं. और असली नतीजे अलग आए तो दोष देने के लिए ईवीएम तो है ही.
हकीकत यह है कि यह बताने के लिए किसी चुनावी पंडित की जरूरत नहीं है कि इस बार मुक़ाबले में भाजपा काफी आगे है. महत्वाकांक्षी विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने एकजुट बने रहने की पूरी कोशिश की है लेकिन भाजपा ने एनडीए को पुनर्गठित किया है. दलगत प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह है मगर विपक्षी दलों के अंदर भी बातें यही होती हैं कि नरेंद्र मोदी की सीटें कहां-कहां से कम की जा सकती हैं, यह नहीं कि उन्हें सत्ता से कैसे बेदखल किया जा सकता है.
मुक़ाबले का माहौल फिलहाल कुछ ऐसा ही है, हालांकि विपक्ष को लगता है कि चुनावी बॉण्ड से संबंधित खुलासों के कारण उसके पक्ष में हवा कुछ मजबूत हुई है. और भाजपा को ‘वॉशिंग मशीन’ बताने वाले चुनावी नारे में भी कुछ दम है. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये सब इतने प्रभावशाली हैं कि विपक्ष की तकदीर बदल देंगे? अधिकतर विपक्षी नेता तस्वीर को ज्यादा संतुलित नजर से देख रहे होंगे. यह कि मोदी को ’वाजिब’ आंकड़े में कैसे ‘समेटा’ जाए.
विपक्ष के नज़रिए का अंदाजा जनवरी के शुरू में इंडिगो की एक फ्लाइट में एक विपक्षी दल के नेता से हुई बातचीत से लगा. एक राजनीतिक परिवार की तीसरी पीढ़ी के इस वारिस को बेशक एक सीमित क्षेत्र में, जाति आधारित एक मजबूत वोट बैंक हासिल है. मैंने उनसे पूछा था कि वे क्या उम्मीद कर रहे हैं, और यह कि क्या उनका जातीय वोट बैंक मोदी की हवा में टिका रहेगा?
उनका जवाब था कि जातीय वोट बैंक तो कुल मिलाकर सुरक्षित रहेगा, लेकिन लोग जब लोकसभा चुनाव में वोट डालने जाएंगे तब उनके सामने बस एक ही चेहरा होगा. उनका सवाल था कि लोगों को “कैसे भरोसा दिलाया जाए कि इस चेहरे का विकल्प भी है?” उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी (और विपक्ष) ऐसा मुद्दा खोजने में जुटी है जो बड़ी संख्या में लोगों को सड़कों पर खींच लाए. मसलन, अगर आप ‘अग्निवीर’ योजना का मुद्दा उछालें तो केवल वे लोग ही विरोध करने के लिए आगे आएंगे जो इससे प्रभावित हैं, बाकी वोटर उदासीन रहेंगे.
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मैंने पूछा, “तब उपाय क्या है? क्या तीन पीढ़ियों से जारी आपकी राजनीति का अंत हो गया?”
उनका जवाब था, “इसे आप इस तरह देखिए, कि हम एक ऐसे दौर में हैं जिसे परमाणु युद्ध के बाद आए शीतकाल, ‘न्यूक्लियर विंटर’ जैसा दौर कहा जा सकता है. तो अभी हम यही कर सकते हैं कि अपना वजूद तब तक बनाए रखें जब तक यह दौर बीत नहीं जाता. राजनीति में इसका अर्थ यह है कि अपना वोट बैंक बचाकर रखो, कुछ सीटें जीतो और अपने संसाधन सुरक्षित रखो. समय बदलने तक अपना वजूद बनाए रहो.”
उनका विचार मुझे भविष्यदर्शी, और काफी बुद्धिमानी भरा लगा, सिवाय इसके कि इस बातचीत के कुछ ही दिनों बाद वे ‘इंडिया’ गठबंधन से निकलकर एनडीए में चले गए. इस ‘न्यूक्लियर विंटर’ से निबटने का शायद यही उपाय उन्हें बेहतर लगा, ताकि जब भी हालात बदलेंगे तब वे मैदान में रहेंगे और नए विकल्प चुनने के लिए तैयार रहेंगे.
विपक्षी दल जबकि खुद को बचाए रखने या अगली लड़ाई के लिए खुद को तैयार रखने की जुगत में हैं, हर एक दल के सामने अपनी अलग-अलग चुनौतियां हैं. जैसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों के सामने चुनौती यह है कि भाजपा के 2019 के आंकड़े में इजाफा हुआ तो उनकी प्रदेश सरकार अस्थिर हो सकती है.
फिलहाल लड़ाई में उलझी आम आदमी पार्टी 2019 के सफाए से अलग इस बार कोई बड़ा प्रदर्शन करने की कोशिश कर सकती है. उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) और शरद पवार के एनसीपी घटक को अपना वजूद बनाए रखने के लिए बेहतर प्रदर्शन करना जरूरी है. अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और लालू/तेजस्वी यादव के राजद ने अगर 2019 जैसा प्रदर्शन ही किया तो अपने-अपने राज्य में सत्ता में आने का उनका सपना साकार होना और मुश्किल हो जाएगा.
इन दलों के लिए फंड के स्रोत भी सीमित ही हैं. जहां वे सत्ता में नहीं हैं वहां उनके ये स्रोत सूख चुके हैं और जमा पूंजी घटती जा रही है. जिन राज्यों में वे सत्ता में हैं वहां वे पैसे वालों को पैसे देने के लिए ‘राजी’ कर सकते हैं लेकिन ‘एजेंसियां’ उनके पीछे लगी हैं. यह संभावित डोनर्स को भी डरा सकता है.
यह तो एक राज्य वाले या ‘आप’ जैसे डेढ़ राज्यों वाले दलों का हाल है. कांग्रेस के लिए चुनौती अलग तरह की है. इन दिनों वह आंतरिक एकजुटता बनाए रखने की जद्दोजहद में जुटी रही. 2014 से 2019 के बीच इसकी एकमात्र उपलब्धि है, 20 प्रतिशत का अपना ठोस वोट प्रतिशत बनाए रखना. लेकिन इससे इसे इतनी भी सीटें नहीं मिलतीं कि वह लोकसभा में विपक्ष के औपचारिक नेता का दर्जा हासिल कर सके. सवाल यह है कि यह अपने समर्थकों और प्रतिद्वंद्वियों को यह भरोसा दिलाने के लिए कितनी सीटें जीतने का लक्ष्य तय करे कि भविष्य में वही असली चुनौती दे सकती है?
100 सीटों का आंकड़ा दिलचस्प हो सकता है और भारतीय राजनीति में बदलाव ला सकता है. लेकिन क्या यह हकीकत के करीब है? कांग्रेस अगर इस विचार का खंडन करने वाले किसी ऐसे संकेत का औपचारिक खंडन करती है कि वह अपने नेतृत्व में ‘इंडिया’ गठबंधन को बहुमत दिलाने जा रही है, तो यह बात समझ में आ सकती है लेकिन इसके नेता अनुभवी हैं और जीत-हार का सामना कर चुके हैं. वे मान सकते हैं कि कोई बेहतर प्रदर्शन, यानी 80 से ऊपर सीटें भी आ गईं तो इससे उनका आधार काफी मजबूत हो जाएगा. लोकसभा चुनाव के बाद ही हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में होने वाले चुनाव के लिए यह खास तौर से महत्वपूर्ण साबित हो सकता है.
4 जून को आने वाले चुनावी नतीजे इन महत्वपूर्ण राज्यों के चुनावों के लिए माहौल बना देंगे. इन तीनों राज्यों में भाजपा को अच्छी चुनौती मिलने वाली है. लोकसभा में 80 से ऊपर सीटें झारखंड और महाराष्ट्र में कांग्रेस के सहयोगी दलों को ताकत देगी. लेकिन वह अगर यह आंकड़ा नहीं हासिल कर पाती है तो विपक्षी गठबंधन के स्वाभाविक नेतृत्व की प्रमुख दावेदारी गंवा सकती है. लगातार तीसरी तबाही का अर्थ होगा पार्टी के अंदर उथल-पुथल, और तब भाजपा के दूसरे प्रतिद्वंद्वी निश्चित ही दूसरे विकल्पों की ओर मुड़ जाएंगे. उनमें से कुछ तो ऐसे भी होंगे जो ‘न्यूक्लियर विंटर’ से बचने के लिए मेरे उपरोक्त सहयात्री की सलाह पर अमल करना पसंद करेंगे.
लेकिन सवाल यह है कि तब भाजपा इतनी उतावली क्यों है? मोदी इस तरह चुनाव अभियान क्यों चला रहे हैं मानो वे 2014 की तरह पहली बार सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रहे हों? तब विपक्षी नेताओं और एक सत्तासीन मुख्यमंत्री तक की गिरफ्तारियां और ये ताबड़तोड़ छापे क्यों? इस चुनाव अभियान में पार्टी अगर वाकई इतनी बेहतर स्थिति में है तब वह इतनी चिंतित क्यों दिख रही है?
ये सवाल वाजिब हैं, और हम इनके कुछ जवाब खोजने की कोशिश करेंगे. पहला जवाब तो यही है कि मोदी-शाह की भाजपा की यही फितरत है. वे हर चुनाव को जीवन-मरण के सवाल की तरह लेते हैं.
दूसरा जवाब, जैसा कि चार शनिवार पहले इस कॉलम में हम लिख चुके हैं, यह है कि मोदी आज केवल 2024 के लिए नहीं बल्कि 2029 के लिए चुनाव अभियान चला रहे हैं. इसमें विपक्ष को यथासंभव बर्बाद कर देने की कोशिश करने से बेहतर उनके लिए और क्या हो सकता है, ताकि जो बचे रहें वे अपने भविष्य की चिंता करें? विपक्ष, और खासकर कांग्रेस की यह चिंता वाजिब है कि देश पर एक व्यक्ति/एक पार्टी/एक विचारधारा का ऐसा दबदबा कायम हो सकता है जैसा पहले कभी नहीं देखा गया. वे अगर इसे नहीं पसंद करते, तो उन्हें मतदाताओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा. समय बहुत कम बचा है.
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