मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल की तीसरी वर्षगांठ पर अपनी ‘उपलब्धियों और सफलताओं’ का प्रचार कर रही है. ऐसे में यह सवाल भी उठाया जा सकता है कि उसकी कश्मीर नीति सफल रही है, या विफल? या उससे कोई फर्क नहीं पड़ा है. हमारा मतलब यह है कि भाजपा अब तक की भारत सरकारों पर जो करने का आरोप लगाती रही है, कहीं खुद वह भी वही तो नहीं करती रही है? यानी बस अंधेरे में तीर ही तो नहीं चलाती रही है?
पिछले दिनों बाहरी लोगों और कश्मीरी पंडितों को जिस तरह निशाना बनाकर उनकी हत्या की गई उसके आधार पर फैसला करें, तो आप मोदी सरकार के कदमों को विफल बता सकते हैं.
लेकिन हम तीन कारणों से ऐसा करने के लोभ से बच रहे हैं. पहला यह कि नीतियों का आकलन महज़ कुछ घटनाओं के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए. दूसरे, कश्मीर घाटी में हिंसा को उसकी भौगोलिक स्थिति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. हम कोई टीवी चैनल नहीं हैं कि तुरंत फैसला सुना दें और घोषित कर दें कि वहां तो कयामत आ गई, 1990 वाला दौर लौट आया, वगैरह-वगैरह. लेकिन हम अपनी बंदूक नहीं चलाते. और तीसरा कारण यह कि अगर किसी ने यह सोचा होगा कि कश्मीर के संवैधानिक दर्जे पर 5 अगस्त 2019 को जो फैसले किए गए उनसे कश्मीर समस्या हल हो गई, तो उसे कश्मीर के बारे में 101वीं बार पढ़ना चाहिए.
उन संवैधानिक बदलावों ने भाजपा/आरएसएस के प्रति निष्ठा रखने वालों को खुश कर दिया था कि उनका एक सैद्धांतिक लक्ष्य तो पूरा हो ही गया. अगर आप मेरे लेखों को पढ़ते रहे होंगे तो मुझे याद दिला सकते हैं कि मैंने भी उस फैसले को साहसी और सकारात्मक बताकर उसकी तारीफ की थी. इस सप्ताह के अपने स्तंभ में मैं साफ़ करूंगा कि मैं अपनी बात पर कायम क्यों हूं. और मैं उन बदलावों की सीमाओं की भी व्याख्या करूंगा.
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घाटी से जो आंकड़े उपलब्ध हो रहे हैं वे ऐसे हैं जो दोनों पक्षों के लिए काम के हैं. अगर हम निशाना बनाकर मारे गए नागरिकों की कुल संख्या को देखें, तो 5 अक्तूबर 2021 को लोकप्रिय चिकित्सक एम.एल. बींद्रू की हत्या के बाद से अब तक कुल 29 लोग मारे गए हैं. इस बार के ‘कट द क्लटर’ कार्यक्रम में हमने बताया है कि घाटी में हत्याओं के सामान्य आंकड़े के लिहाज से इस संख्या को न तो ज्यादा कहा जा सकता है और न कम कहा जा सकता है.
अगर आप ‘साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल’ (एसएटीपी) के आंकड़ों को देखें तो पता लगेगा कि कश्मीर घाटी में 2010 से जो एक चीज स्थिर रही है वह है मारे गए नागरिकों की संख्या. नरेंद्र मोदी को बहुमत मिलने से चार वर्ष पहले भी यह संख्या हर साल 19 से 34 के बीच रही. मोदी सरकार के दो कार्यकालों में भी यही स्थिति रही है, सिवा 2018 के, जब यह संख्या 86 पर पहुंच गई थी. हत्याओं की संख्या न तो बढ़ी है, न घटी है. 2014 से पहले घाटी अगर नरक जैसी थी, तो आज वह कोई स्वर्ग नहीं बन गई है. या हालात इसके उलट भी नहीं हैं.
अगर आप मोदी या भाजपा समर्थक हैं तो जरा अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए कि घाटी में कुल मिलाकर पुरानी ही स्थिति बनी रहने से क्या आप निराश नहीं हैं? 2014 में मोदी और उनकी पार्टी जब चुनाव प्रचार कर रही थी तब उन्होंने वादा किया था कि कश्मीर के मामले में अब तक जो निरर्थक रवैया अपनाया जाता रहा है उसके विपरीत वे सख्त रवैया अपनाएंगे. सरकार की कमजोरी का उदाहरण देने के लिए कश्मीरी पंडितों की बदहाली का हवाला दिया जाता था और कहा जाता था कि सेकुलर पार्टियों ने 1990 में उन्हें किस तरह निराश किया. कहा जाता था कि मोदी सरकार आतंकवादियों को, चाहे वे भारतीय हों या पाकिस्तानी, दिखा देगी कि उनके दिन अब लद गए. लेकिन उसके बाद से महीना-दर-महीना आतंकवादी यह दिखाते रहे कि वे ऐसा नहीं मानते.
‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के समर्थन में व्यापक और उन्मादी प्रतिक्रियाओं ने और कुछ नहीं तो उन्हें एक मौका जुटा दिया. भाजपा का भारी समर्थन हासिल करने वाली यह फिल्म यह साबित करने की कोशिश करती है कि 1990 में घाटी में जातीय सफाये जैसी मुहिम के कारण कश्मीरी पंडितों की हत्याएं इसलिए हुईं क्योंकि तब देश में जो सरकार थी वह कमजोर और कायर थी. आज आतंकवादियों ने उन्हीं कश्मीरी पंडितों की हत्या शुरू कर दी है, तब आप क्या कहेंगे? क्या एक और लड़ाई शुरू कर देंगे?
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सैलानियों और अमरनाथ तीर्थयात्रियों की संख्याओं से भ्रम में मत पड़िए. पिछले दो दशकों में कई साल ऐसे रहे हैं जब ये संख्याएं अच्छी-ख़ासी रही हैं. घाटी के हालात की कसौटी यह है कि आप उसे बाहर वालों के लिए कितना सुरक्षित बना पाते हैं और स्थानीय कश्मीरी पंडित वापस अपने घरों में लौटते हैं या नहीं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है.
अगर आप मोदी सरकार के उत्साही समर्थक हैं और मुझसे इसलिए नाराज हैं कि मैं हकीकत बयान कर रहा हूं तो आप मेरी तरफ यह सवाल उछाल सकते हैं कि 70 साल से नेहरू-गांधी-अब्दुल्ला-मुफ़्ती परिवारों के अलावा पाकिस्तान और इस्लामी कट्टरपंथियों ने वहां जो घालमेल की स्थिति बना रखी थी उसे पूरी तरह सामान्य बना देने की अपेक्षा आप मोदी सरकार से कैसे रखते हैं? इसमें समय लगेगा. आपको सब्र करना पड़ेगा. मेरा भी यही कहना है.
समस्या इस धारणा के कारण पैदा होती है कि आज़ाद भारत का असली इतिहास तो 2014 की गर्मियों के बाद से शुरू हुआ है; कि इससे पहले जो कुछ हुआ वह राष्ट्रहित के साथ समझौता था. यह मान लेने के बाद तो आप यही अपेक्षा करेंगे कि कश्मीर समेत हर जगह इतिहास नये सिरे से शुरू हो. फिर आपको जश्न मनाने के कई कारण मिलेंगे— उरी, बालाकोट, अनुच्छेद 370, ‘द कश्मीर फाइल्स’, इत्यादि.
लेकिन आप पाएंगे कि रोज अखबारों की सुर्खियां लगभग वही हैं. पहले की तरह हिंदू, खासकर पंडित मारे जा रहे हैं; टीवी पर नज़र आने वाले जनरल गुस्से में मांग कर रहे हैं कि पाकिस्तान को सबक सिखाओ, नापाक जिहादी सोच के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ दो, वगैरह.
यहां आकर मुझे आपका सवाल आपसे ही पूछने का मौका मिलता है. क्या आप वास्तव में यह उम्मीद कर रहे थे कि परमाणु शक्ति तथा शक्तिशाली सेनाओं से लैस और एक-दूसरे पर घोर अविश्वास करने वाले दो पड़ोसी देशों के बीच का यह पुराना मसला सिर्फ इसलिए हल हो जाएगा कि आपने वोट देकर अपनी पसंद की सरकार हासिल कर ली है? कश्मीर मसले के लिए धीरज और हकीकत का एहसास चाहिए; और मैं यह कहने का साहस करूं, तो थोड़ी विनम्रता भी चाहिए. कोई अखबारी सुर्खी और भगवान न करे कि ऐसा हो मगर कोई जबरदस्त आतंकी हमला कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकता. और 5 अगस्त 2019 को किए गए फैसलों की तरह के किसी ऐतिहासिक कदम पर छपीं अखबारी सुर्खियां भी इस संकट का समाधान नहीं कर सकतीं.
अब हम इस विरोधाभास का समाधान ढूंढते हैं कि अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले का तो हम स्वागत करते हैं मगर घाटी के हालात को असंतोषजनक भी क्यों कहते हैं. इसकी वजह यह है कि संविधान से जुड़ा वह फैसला उच्चतर राजनीतिक-रणनीतिक दायरे में किया गया, जमीनी हकीकत के मद्देनजर नहीं. इसलिए यह अपेक्षा रखना खामखयाली ही होगी कि इससे आतंक, हिंसा, अलगाव और आप कहना चाहें तो घाटी में इस्लामी जिहाद आदि सब खत्म हो जाएंगे.
आप कह सकते हैं कि यह मोदी सरकार और भाजपा की ही गलती है कि उसने इस कदम को एक नयी साहसिक सुबह लाने वाला और अंधेरे को खत्म करने वाला कदम बताकर खूब प्रचारित किया. लेकिन वे भी राजनीति वाले ही हैं. मामूली बहाने पर ही वे अपनी जीत की घोषणा कर सकते हैं. इसीलिए अब परेशानी ज्यादा महसूस हो रही है. अब गृह मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, उप-राज्यपाल, सभी संकटकालीन बैठकें कर रहे हैं. यह तब है जब अभी साल के छह महीने भी नहीं पूरे हुए हैं और 19 लोग मारे जा चुके हैं. 19 की संख्या बड़ी है, मगर यह कश्मीर है!
अब हम अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले का राजनीतिक-रणनीतिक मतलब समझने की कोशिश करेंगे. जब तक यह अनुच्छेद संविधान में मौजूद था और कश्मीर को भारत में विशेष दर्जा हासिल था, तब तक सारा संसार और पाकिस्तान यह मान रहा था कि जम्मू-कश्मीर के दर्जे पर बातचीत हो सकती है. इसलिए वे भी उम्मीद लगाए बैठे थे.
लेकिन 5 अगस्त ने वह सब खत्म कर दिया है. इसके बाद से, भारत की ओर से संदेश यह जा रहा था कि जम्मू-कश्मीर भारत के दूसरे सभी राज्यों जैसा ही एक राज्य है और बातचीत उस क्षेत्र के बारे में हो सकती है जिस पर आपने कब्जा कर रखा है और जिसका नाम ‘पीओके’ है. मोदी सरकार की सफलता यह है कि संयुक्त राष्ट्र समेत पूरी दुनिया इस बात को लगभग तय मान चुकी है. इसीलिए हमने इस फैसले को साहसिक बदलाव कहा.
दूसरी ओर, पाकिस्तान को भी समझ में आ गया है कि इसका क्या अर्थ है. इसने उसे तब ठोकर लगाई है जब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर स्थिति में था. यह तत्कालीन इमरान खान की सरकार की ओर से हुई तीखी प्रतिक्रियाओं से जाहिर हो गया. उसे तब जो अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल था वह प्रकट हुआ. चीन ने लद्दाख में आग लगाई उसकी एक वजह यह भी थी कि वह पाकिस्तान की ओर से यह दबाव बनाना चाहता था कि कश्मीर विवाद में वह भी एक पक्ष है. दूसरा विकल्प पुराना वाला ही था, कि घाटी में फिर आतंक फैलाओ. उसके नतीजे हम आज देख रहे हैं.
मोदी सरकार की कश्मीर नीति राज्य का दर्जा बदलने और वार्ता के मुद्दे को पुनर्परिभाषित करने के मामले में सफल रही है. लेकिन चूंकि उसने इसे अपने समर्थकों के बीच बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया इसलिए वह जमीन पर विफल हुई नज़र आ रही है. भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे पुरानी और सबसे बड़ी चुनौती को राजनीतिक और दलीय रंग देने की यही कीमत है. कश्मीर मसले से निबटने की जो कोशिशें 2014 से पहले की गईं उन्हें अगर आप निरर्थक घोषित करेंगे तो इसके बाद आठ वर्षों की कोशिशों को भी लगभग ऐसा ही बताना पड़ेगा. मैं इसे निरंतरता के साथ परिवर्तन कहना ही पसंद करूंगा.
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