scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टमोदी सरकार कृषि कानून की लड़ाई हार चुकी है, अब सिख अलगाववाद का प्रेत जगाना बड़ी चूक होगी

मोदी सरकार कृषि कानून की लड़ाई हार चुकी है, अब सिख अलगाववाद का प्रेत जगाना बड़ी चूक होगी

कृषि क़ानूनों पर जंग तो मोदी सरकार हार ही चुकी है, अब अगर वह किसानों के आंदोलन को लेकर सिख अलगाववाद का राग अलापती रहेगी तो और भी गंभीर भूल करेगी.

Text Size:

तीन कृषि-कानूनों के खिलाफ आंदोलन तीसरे महीने में प्रवेश कर चुका है. अब छह ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें हम तथ्य के रूप में ही देखते हैं. उन्हें यहां रखा जा सकता है. ये हैं—

1. ये कृषि कानून किसानों और भारत के लिए कुल मिलाकर अच्छे ही हैं. अलग-अलग समय पर अधिकतर राजनीतिक दल और नेता ये बदलाव चाहते रहे हैं. लेकिन आप में से कई लोग इससे अभी भी असहमत हो सकते हैं. लेकिन यह तो एक विचार-लेख है. इसकी व्याख्या मैं ‘कट द क्लटर’ कार्यक्रम की 571वीं कड़ी में कर चुका हूं.

2. अब इस बात का कोई महत्व नहीं रह गया है कि ये कानून किसानों के लिए अच्छे हैं या बुरे. लोकतंत्र में महत्वपूर्ण यह है कि किसी नीतिगत परिवर्तन से प्रभावित होने वाले लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं. इस मामले में लोग हैं उत्तर भारत के किसान. अगर आप लोगों को समझा न पाए, तो तथ्यों का कोई मतलब नहीं है.

3. मोदी सरकार ठीक ही कह रही है कि मामला अब कृषि क़ानूनों का नहीं है. क्योंकि कोई भी एमएसपी, सब्सिडी, मंडी, वगैरह की बात नहीं कर रहा. तो फिर मामला क्या है?

4. इसका छोटा सा जवाब है—मामला ‘पॉलिटिक्स’ का है. और क्यों न हो? राजनीति के बिना लोकतंत्र का क्या मतलब है? जब यूपीए सत्ता में था, भाजपा उसके सभी अच्छे विचारों का विरोध करती थी, चाहे वह भारत-अमेरिका परमाणु संधि रही हो या बीमा व पेंशन के क्षेत्र में एफडीआइ का मामला रहा हो. आज वही भाजपा उन नीतियों को 6x की गति से लागू करने में लगी है.

5. जहां तक कृषि कानूनों की बात है, मोदी सरकार यह जंग हार चुकी है. आप इससे भी असहमत हो सकते हैं. लेकिन यह मेरा मत है. और मैं अपने तर्क रखूंगा.

6. अंत में, मोदी सरकार के लिए दो विकल्प हैं. वह इसे घिसटने दे सकती है और एक बड़े राजनीतिक जंग में बदल सकती है. या वह और ज्यादा नुक़सान से बचने के लिए, जैसा कि अमेरिकी लोग कहते हैं, पटरी छोड़ सकती है.

मोदी सरकार कृषि कानूनों पर जंग हार चुकी है यह कहने का पहला सबूत यह है कि उसने इन कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित रखने की एकतरफा पेशकश की है. आज से 18 महीने गिन डालिए तो 2024 के आम चुनाव के लिए 18 महीने शेष रह जाते हैं.

आप समझ सकते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी उस समय इस मोर्चे को नहीं ही खोलना चाहेगी. वास्तव में, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे अहम व केंद्रीय राज्यों के चुनाव के लिए ठीक 12 महीने रह जाएंगे. इनमें से दो राज्यों में कांग्रेस की मजबूत सरकारें बैठी हुई हैं और तीसरे में भाजपा सत्ता चुरा और खरीदकर बैठी हुई है. कृषि कानूनों पर दांव लगाने के लिए कोई भी इन राज्यों को गंवाने का खतरा मोल लेना नहीं चाहेगा.

इसके अलावा, सरकार न्यूनतम समर्थन कीमत (एमएसपी) को जारी रखने का वादा कर चुकी है, हालांकि इन नए कानूनों में इसे खत्म करने की बात कहीं नहीं लिखी है. इतना कुछ पहले ही छोड़ दिया जा चुका है कि इन कानूनों पर जंग वह हार ही चुकी है.

अब मोदी सरकार के सामने चुनौती यह है कि पराजित न दिखते हुए वह सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए और क्या कीमत अदा करे. हम जानते हैं कि भूमि अधिग्रहण के नये कानून के मामले में वह बच निकली है. लेकिन वह मामला अभी भी संसद में अटका है. और नया मामला सड़कों, राज्यों की सीमाओं पर हाइवे, और दिल्ली के इर्दगिर्द गेहूं और धान के खेतों में पसरा है. यह और फ़ेल सकता है. सरकार अगर हथियार डाल देती है तो यह विवाद बंद हो सकता है, लेकिन तब राजनीति गरम हो जाएगी. और, क्यों न हो? प्रतिस्पर्द्धी राजनीति क्रूर नहीं, तो क्या साफ-सुथरी और आनंददायी होगी? इसके बाद दूसरे सुधारों को, नये श्रम कानूनों से लेकर एलआइसी के शेयर जारी करने तक को निशाना बनाया जाएगा.


यह भी पढ़ें: किसानों के विरोध को ना मैनेज कर पाना दिखता है कि मोदी-शाह की BJP को पंजाब को समझने की जरूरत है


भारत में पिछले 35 वर्षों की सबसे ताकतवर सरकार को इस हालत में लाने वाली गलतियां और बड़ी भूलें कौन सी हैं? मेरे हिसाब से ये पांच हैं—

1. इन कृषि कानूनों को अध्यादेश के जरिए लाना एक बहुत बड़ी भूल थी. मैं यह 20/20 वाले नजरिए से कह रहा हूं, मैं एक टिप्पणीकार हूं, कोई राजनीतिक नेता नहीं हूं. आधी अरब आबादी के जीवन को प्रभावित करने वाले जबरदस्त बदलाव के वादे को पूरा करने का सही रास्ता यह था कि पहले इसे लोगों के बीच रखा जाता और उन्हें इसके लिए राजी किया जाता. हमें नहीं मालूम कि नरेंद्र मोदी इसके लिए माहौल न बनाने की भूल पर पछता रहे हैं या नहीं. लेकिन हकीकत यही है कि इस तरह के बड़े बदलाव को अध्यादेश के जरिए लाने के फैसले को लोग संदेह की नज़र से ही देखेंगे, खासकर तब जब कि आप लोगों से संवाद नहीं करते.

2. इन कानूनों को राज्यसभा में जिस तरह जल्दबाज़ी में आगे बढ़ाया गया उसने संदेह को और गहरा किया. इसके लिए कुशल संसदीय तौर-तरीके की जरूरत थी, न कि गले की ताकत का रूखा प्रयोग करने की. इसने आग में घी डालने और यह ‘हवा’ बनाने का काम किया कि सरप्लस पैदावार देने वाले किसानों पर जबरन कुछ लादा रहा है.

3. सत्ता पार्टी अपने बहुमत के बूते इतनी ऊंची उड़ान भरने लगी कि उसने अपने सहयोगियों और मित्रों की परवाह करनी छोड़ दी. अगर उसने उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया होता तो राज्यसभा में कानून को पास कराने में इतनी गरमागरमी न होती.

4. वह मोदी-शाह की सियासत के कारण कमजोर पड़े हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाटों की हताशा का अंदाजा लगाने में भी वह चूक गई. दोनों बड़े, अनुभवी जाट नेताओं को मोदी के मंत्रिमंडल में निष्प्रभावी राज्यमंत्री का दर्जा हासिल है. एक हैं राजस्थान के सुदूर बाड़मेर के, तो दूसरे हैं संजीव बालयान, जो ज्यादा नज़र आते हैं, मुजफ्फरनगर के हैं जहां टिकैत के समर्थन में महापंचायत हुई. हरियाणा में भाजपा के पास गिनती के लायक कोई जाट नेता नहीं है. बल्कि वह तो जाटों की ताकत को कमजोर करना अपनी बड़ी उपलब्धि मानते हैं. उन्होंने आरक्षण के लिए जाटों के हिंसक आंदोलन से भी सबक नहीं ली. उस आंदोलन की वजह भी राजनीति में हाशिये पर डाले जाने से उपजी उनकी हताशा थी, आज भी वजह वही है. जरा पूछिए कि भाजपा के जाट सहयोगी दुष्यंत चौटाला या यूपी का कोई जाट नेता, खासकर बालयान लोगों के बीच जाकर इन कानूनों की मार्केटिंग क्यों नहीं कर रहे? उनकी हिम्मत नहीं है.

5. भाजपा ने वार्ताओं में बहुत जल्दी, बहुत कुछ एकतरफा मान लिया. अब उसे और भी ज्यादा मानना पड़ेगा. उधर, किसान नेता जरा भी पीछे नहीं हटे हैं.


यह भी पढ़ें: किसान आंदोलन मोदी सरकार की परीक्षा की घड़ी है. सौ टके का एक सवाल -थैचर या अन्ना किसकी राह पकड़ें ?


अब सवाल यह है कि वह यहां से आगे कहां जाएगी? एक तरीका यह हो सकता है कि किसानों को थका दिया जाए. लेकिन जो लक्षण हैं उनके मुताबिक फिलहाल ऐसा होने की उम्मीद नहीं है. रबी फसल की कटाई अप्रैल में होगी यानी अभी 75 दिन बाकी हैं. वैसे भी कटाई का काम मशीन और प्रवासी मजदूर करते हैं, यानी किसान परिवार धरना स्थल को आबाद किए रह सकते हैं.

दूसरी संभावना यह हो सकती है कि जाट अंततः कोई समझौता कर लें. यह मुमकिन है. सिंघू बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर में फर्क पर गौर कीजिए. सिंघू बॉर्डर पर कोई राजनेता सेल्फी खींचने भी नहीं जा सकता. न हो तो कांग्रेस के रवनीत सिंह बिट्टू से पूछ लीजिए, जिन्हें फौरन वापस कर दिया गया था. लेकिन गाजीपुर बॉर्डर पर कोई भी जा सकता है और टिकैत के गले लगकर फोटो खिंचवा सकता है चाहे वह कांग्रेस का हो, वामपंथी हो, रालोद या राजद या आप का हो, कोई भी. यहां तक कि सुखबीर सिंह बादल भी अपने पंजाबी भाइयों से मिलने के लिए सिंघू की जगह गाजीपुर बॉर्डर जाते हैं. जहां भी राजनीति है, नेता वहां मौजूद हैं. और टकराव सुलझाया जा सकता है. लेकिन यह सच में हो गया तब क्या होगा?

तब, भारत और मोदी सरकार के लिए सबसे खतरनाक स्थिति बन जाएगी. पंजाब के सिखों को अलगथलग किया जा सकता है. इसके संकेत मिल भी रहे हैं. बैरिकेडों को मजबूत करने की घटिया कोशिशों की तस्वीरें आ ही रही हैं; कुछ बड़े लोग कृषि कानूनों को राष्ट्रीय एकता के सवाल से जोड़कर जिस तरह ट्वीट कर रहे हैं और उन पर सरकार की जो अनमनी प्रतिक्रिया आ रही है वे यही संकेत दे रहे हैं. किसान आंदोलन की सुर्खियों को सिख अलगावाद की सुर्खियों में बदलने की कोशिश मोदी सरकार की गंभीर भूल साबित हो सकती है.

इस संकट को राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल से निबटाने की जरूरत है. भाजपा में ये दोनों कौशल नहीं हैं. उसमें तो चुनाव जीतने की अजेय मशीन के बूते मजबूत पकड़ बनाने वाला राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल ही है. भारतीय राजनीति की हकीकतों और संसदीय बहुमत की सीमाओं को समझने की अक्षमता ने ही इस पार्टी आज इस स्थिति में पहुंचाया है.

क्या उसमें इस स्थिति से बाहर निकल पाने की बुद्धिमानी और उदारता है? हम नहीं कह सकते. लेकिन उम्मीद करते हैं कि उसमें यह सब होगा. क्योंकि आज भारत को राष्ट्रीय एकता के नाम पर कोई और लड़ाई कतई नहीं चाहिए. आप इतने नादान तो नहीं ही होंगे कि पंजाब में जिस प्रेत को हमने 1993 में ही शांत कर दिया था उसे फिर जगाने की कोशिश करेंगे.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


य़ह भी पढ़ें: वो 7 कारण जिसकी वजह से मोदी सरकार ने कृषि सुधार कानूनों से हाथ खींचे


 

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. हार तो तब होती है ना जब दूसरा पक्ष जीता है । एवें ही फेके जा रहे हो गुप्ता जी रोज कोंसी गुट्टी पीकर लिखते हो

Comments are closed.