बीते दो दिनों में डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में लाखों शब्द लिखे और बोले जा चुके हैं और इनमें से अधिकतर शब्द उनके द्वारा लागू किए गए आर्थिक सुधारों के बारे में ही होंगे. उनके प्रशंसक उनके जीवन को किस तरह केवल एक रंग के चश्मे से देखते रहे हैं, इसे समझा जा सकता है. उनके ऐसे प्रशंसकों में वह भी शामिल हैं जिन्होंने कभी कांग्रेस पार्टी को वोट नहीं दिया होगा और न कभी देंगे.
लेकिन यह मनमोहन सिंह के साथ कई तरह से बड़ी ज्यादती है. पहली बात तो यह है कि इससे उन्हें और उनकी विरासत को केवल उनके उस काम के दायरे में सीमित कर दिया जाता है, जो काम उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री बनने से कोई डेढ़ दशक पहले ही कर दिया था.
दूसरे, इससे आर्थिक सुधारों का सारा श्रेय केवल उनके हिस्से में चला जाता है, जबकि 1991 में जो किया गया उसका राजनीतिक जोखिम तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उठाया था. इसलिए उन सुधारों का श्रेय जितना नरसिंहराव को जाता है उतना ही मनमोहन सिंह को भी जाता है.
और तीसरे, यह उनकी विरासत को इस ‘जुगलबंदी’ तक ही सीमित कर देता है और प्रधानमंत्री के रूप में अपने दूसरे अहम योगदानों के कारण उन्हें इतिहास में जो जगह मिलनी चाहिए उससे वंचित करता है. इन योगदानों में रणनीतिक तथा विदेशी मामलों से लेकर राजनीति के क्षेत्र में दिए गए उनके योगदान शामिल हैं.
मनमोहन सिंह 2004 की गर्मियों में जब प्रधानमंत्री बने थे तब यही सवाल चर्चा में था कि यूपीए सरकार किस तरह का आर्थिक एजेंडा अपनाने जा रही है. क्या वे उस सूत्र को पकड़कर आगे बढ़ेंगे जिसे उन्होंने और नरसिंहराव ने 1996 में छोड़ दिया था? या क्या वे अपनी पार्टी और संसद में अपने सबसे बड़े सहयोगी वाम मोर्चे की विचारधारा की ओर लौटेंगे? नॉर्थ और साउथ ब्लॉकों पर कड़ी नज़र रखने वाले प्रायः तमाम प्रेक्षक भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि विदेश तथा रणनीतिक मामलों से संबंधित नीतियों में कोई बड़ा और ऐतिहासिक बदलाव होने जा रहा है.
यह धारणा अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के प्रति कांग्रेस के पुराने संदेह और निर्गुट आंदोलन तथा तीसरी दुनिया के प्रति उसके स्थायी मोह की वजह से बनी थी. अगर आपने 24 जुलाई 1991 की सुबह किसी से यह कहा होता कि नरसिंहराव दोपहर तक बजट से पहले एक उद्योग मंत्री (उस समय उद्योग मंत्रालय नरसिंहराव के पास ही था) के वक्तव्य के जरिए जवाहरलाल नेहरू 1956 के उद्योग नीति प्रस्ताव को रद्द कर देंगे, तो आपसे अपने दिमाग का इलाज करवाने की सलाह दे दी जाती.
और 2004 की गर्मियों में अगर आप यह कल्पना करते कि वाम मोर्चे के 61 सांसदों के समर्थन पर टिकी वामपंथी झुकाव वाली गठबंधन सरकार अगले दो साल में अमेरिका के साथ पहली महत्वपूर्ण संधि (जो अंततः एक रणनीतिक संधि के रूप में सामने आई) करने जा रही है, तब तो आपके दिमाग पर और ज्यादा संदेह किया जाता.
1991 के आर्थिक सुधारों के मुकाबले इस बदलाव की जड़ें ज्यादा गहरे बौद्धिक चिंतन से जुड़ी थीं. 1991 में तो एक संकट का बहाना भी था कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी मांगों से दबाव बना रखा था, लेकिन भारत की रणनीतिक स्थिति को बदलने का ऐसा कोई दबाव नहीं था.
भारत को पश्चिमी खेमे के साथ गर्मजोशी वाला रिश्ता बनाने का विचार 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी के बाद से ही पनप रहा था, जब वे अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले से काफी परेशान हो गई थीं और भारत को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में उसका रणनीतिक दृष्टि से मजबूर होकर समर्थन करना पड़ा था. 1981 में उन्होंने कानकुन में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की ओर हाथ बढ़ाया था.
लेकिन बात इससे आगे नहीं बढ़ी थी. राजीव गांधी और उनके बाद नरसिंहराव ने भी कुछ कदम आगे बढ़ाए, लेकिन ये कदम कुछ सहमे-सहमे-से थे. सोवियत संघ तो बेशक लुप्त हो चुका था, लेकिन अमेरिका के प्रति अभी भी गहरा संशय और सावधानी कायम थी. अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ महत्वपूर्ण पहल की, लेकिन कांग्रेस ने इस ‘बदलाव’ की कड़ी आलोचना की.
मनमोहन सिंह की सफलता यह थी कि उन्होंने एक कांग्रेस सरकार का नेतृत्व करते हुए इसी बदलाव को ज्यादा निर्णायक बनाया. उन्हें खुद अपनी पार्टी और यूपीए के साथियों से जितना कम समर्थन हासिल था उसके मद्देनज़र यह बदलाव, मेरे विचार से, 1991 के सुधारों से कहीं ज्यादा साहसिक था. कांग्रेस में अभी भी शीतयुद्ध वाले योद्धा भरे पड़े थे जिनमें उनके कुछ वरिष्ठतम मंत्री भी शामिल थे और 10, जनपथ भी इसके लिए तैयार नहीं था. न ही उसे इसकी कोई ज़रूरत या इसके लिए कोई दबाव महसूस हो रहा था.
विदेश सेवा की अफसरशाही से समर्थन तो छोड़िए, उलटे गहरा प्रतिरोध और असंतोष तक का सामना करना पड़ा. उनमें से कई यह उम्मीद कर रहे थे कि वाजपेयी के एनडीए के जाने के बाद कांग्रेस वाला तौर-तरीका वापस लौट आएगा. इसके उलट होने की कोई अपेक्षा नहीं कर रहा था.
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सोनिया गांधी भी संशय में थीं और वामपंथी नेताओं पर ज्यादा विश्वास कर रही थीं, जिन्हें यह अपमानजनक और विश्वासघात जैसा दिख रहा था. यह एकमात्र ऐसा मुद्दा बन गया जिस पर मनमोहन सिंह अपनी पार्टी के कर्णधारों से भी भिड़ गए और उन्होंने अपनी सरकार को भी दांव पर लगा दिया था. राजनीतिक रूप से यह 1991 के सुधारों के मुकाबले ज्यादा जोखिम भरा था. 1991 में राव को पार्टी के कर्णधारों की चिंता नहीं थी और न ही वामपंथी नेताओं के समर्थन की ज़रूरत थी.
उस समय अमेरिका में भारत के राजदूत रोनेन सेन के रूप में मनमोहन सिंह को एक मजबूत समर्थक मिल गया, जिन पर गांधी परिवार को भी भरोसा था. इस मामले में विस्तार से कुछ जानने के लिए आपको सेन के संस्मरणों के छपने का इंतज़ार करना होगा, लेकिन मुझे लगता है कि उन्हें ऐसा कुछ लिखने की जल्दबाज़ी नहीं है. यह वह समय था जब सेन ने भारत के सांसदों को ‘बिना सिर वाले मुर्गे’ कह डाला था. बहरहाल, उन्होंने और पुराने राजनयिक, विदेश मंत्री और परिवार के भरोसेमंद के. नटवर सिंह ने भी 10, जनपथ को राज़ी किया.
क्या यह जोखिम ज़रूरी था? इससे हासिल होने वाले लाभों की तुलना क्या 1991 के आर्थिक सुधारों से होने वाले लाभों से की जा सकती है?
आर्थिक लाभ को हमेशा वोटों में नहीं बदला जा सकता, खासकर नए मध्यवर्ग के मामले में. रणनीतिक बदलाव से होने वाले लाभ ठोस रूप में कम ही नज़र आते हैं. चुनावों के लिए तो उनका कोई अर्थ नहीं होता, बशर्ते आप उनका इस्तेमाल तमाम देशों की राजधानियों में अपने नेता की एक दमदार छवि पेश करने के लिए न कर रहे हों. मनमोहन सिंह ऐसे नेता बनने के लिए नहीं बने थे.
आलोचकों ने कहा कि उस संधि से कितने भी गीगावाट में परमाणु बिजली नहीं मिलने वाली. हमारा तर्क यह था कि यह संधि परमाणु बिजली के लिए नहीं है. इसका मकसद शीतयुद्ध के बाद के दौर में भारत को रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका तथा पश्चिमी खेमे के मित्र तथा साझीदार के रूप में स्थापित करना है. इतिहास की धारा को इसी तरह बदला गया. उस संधि के कट्टर विरोधी मणि शंकर अय्यर ने बाद में मुझसे कहा कि “कम-से-कम आपने ईमानदारी और साफगोई से बताया कि यह संधि क्या है और क्या नहीं है. यह परमाणु बिजली के लिए नहीं है बल्कि रणनीतिक बदलाव के लिए है और मैं इसका विरोध करता हूं.”
मोदी की भाजपा ने इस छड़ी को पकड़ा और दौड़ पड़ी, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी इस संधि के खिलाफ थे. वे कितने खिलाफ थे यह जानने के लिए मेरे टीवी शो ‘वॉक द टॉक’ की 2008 की उस कड़ी को देखिए जिसमें आडवाणी ने मुझे इंटरव्यू दिया था. वह मौका उनके संस्मरणों की किताब के विमोचन का था. उन्होंने मुझ पर तंज़ कसते हुए कहा था कि आप तो उस संधि के कांग्रेस पार्टी से भी ज्यादा बड़े समर्थक हैं. उनकी भाजपा ने घोषित कर दिया था कि इसके साथ भारत की रणनीतिक स्वायत्तता समाप्त हो गई और उसने कांग्रेस को हराने के लिए संसद में उसके विश्वास मत के खिलाफ वोट देने में वामपंथी खेमे तक का साथ दिया.
उसके बाद क्या हुआ, यह हम सब जानते हैं. मैं केवल उन दो बातों का ज़िक्र करूंगा, जो मनमोहन सिंह ने उस संधि का बचाव करते हुए कही थी. एक तो उन्होंने अपने स्वभाव के विपरीत आडवाणी पर मज़ाक करते हुए कहा था कि उन्होंने इस संधि को लेकर मतदान इसलिए करवाया क्योंकि उनके ज्योतिषी ने उन्हें कहा था कि वे अगले प्रधानमंत्री बनने वाले हैं.
दूसरे, उन्होंने सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह के दसम ग्रंथ की ये अमर पंक्तियां पढ़कर सुनाई थी: ‘देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं टरूं, डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं’.
यह एक शानदार, प्रेरक दोहा है. पंजाब के भटिंडा के जिस स्कूल में मैं छठी क्लास का छात्र था उसमें यह दोहा प्रार्थना के रूप में गाया जाता था. गुरु नानक की 552वीं जयंती पर अपने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसी दोहे को दोहराया था. दसवें गुरु के इसी दोहे का प्रयोग एक जोखिम भरे सुधार को आगे बढ़ाने के लिए किया गया और एक सुधार को वापस लेने के लिए भी किया गया. एक तरह से यह एक आध्यात्मिक मामला भी है और एक संयोग भी और यह भारत में सुधार करने वालों के सामने जो चुनौती है तथा उसका जो एकाकीपन है उसको भी रेखांकित करता है.
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