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Sunday, 22 December, 2024
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यूक्रेन मुद्दे पर मनमोहन-राहुल का समर्थन दिखाता है कि भारत की विरोध की राजनीति में अब भी कुछ बाकी है

1983 में NAM शिखर सम्मेलन से लेकर बाइडेन, मैक्रॉन और सुनक के साथ इस G20 द्विपक्षीय बैठक तक के 40 साल भारत के नकली गुटनिरपेक्षता से लेकर आपसी लेन-देन वाली स्वायत्त नीति तक के सफर को दिखाता है.

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नयी दिल्ली जब ऋषि सुनक से लेकर शेख हसीना वाजेद और जो बाइडन समेत दुनिया भर के सत्ताधारियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडलों के हुजूम का, जो भारत के लिए अभूतपूर्व था, स्वागत कर रहा था तब उस खेमे (विपक्ष) में दो बातें ऐसी भी घटीं, जो सुर्खियां बनने के काबिल थीं.

एक, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पहले पेज पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इंटरव्यू; और दो, ब्रुसेल्स में मीडिया से बात करते राहुल गांधी का बयान.

मनमोहन सिंह ने अपने इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना में कुछ नहीं कहा. भारत जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है उसके बारे में उन्होंने कुल मिलाकर आशावादी नजरिया ही जाहिर किया. हां, उन्होंने इतना जरूर कहा कि देश में अगर सामाजिक मेलजोल का माहौल रहे तो वह और बेहतर प्रदर्शन कर सकता है. लेकिन राहुल गांधी ने सरकार पर सीधा आरोप लगाया कि वह भारत में लोकतंत्र को कमजोर कर रही है.

लेकिन दोनों नेताओं ने रूस-यूक्रेन मसले पर साफ-साफ कहा कि मोदी सरकार ने सही रुख अपनाया है और वे उसका समर्थन करते हैं. राहुल ने एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहा कि विपक्ष की सरकार होती तो वह भी लगभग यही नीति अपनाती.

यह सब भारतीय राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है. विदेश नीति और रणनीतिक मामलों में सत्ता पक्ष और मुख्य विपक्ष के बीच पहले भी एक सहमति देखी गई है. लेकिन हाल के दिनों में, हमारी राजनीति में इतना विभाजन और ध्रुवीकरण हो गया है कि कही जाने वाली चंद सामान्य बातें भी अब सुर्खियों के काबिल मानी जा सकती हैं.

यह सब कैसे शुरू हुआ, यह समझने के लिए कोई गहरा शोध करने की जरूरत नहीं है. वाजपेयी दौर के बाद से ही कांग्रेस और भाजपा के रिश्ते में खटास पैदा होने लगी थी. आडवाणी दौर में, आप चाहें तो कह सकते हैं कि आपसी तहजीब के तकाजों को हवा में उड़ा दिया गया और शुद्ध कटुता हावी हो गई थी. इसने राष्ट्रीय विमर्श को नष्ट तो किया ही, व्यापक राष्ट्रीय हित को भी नुकसान पहुंचाया. यहां हम इसके तीन उदाहरण दे रहे हैं, जिनमें दो तो शुद्ध रूप से विदेश नीति से संबंधित हैं और एक आर्थिक नीति से संबंधित है, जिनके व्यापक परिणाम हुए :


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1.  2005 से 2008 के बीच, भारत-अमेरिका परमाणु संधि. सही बात तो यह थी कि मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने इस मामले में उसी प्रक्रिया का अगला तार्किक कदम उठाया था जिसे वाजपेयी ने शुरू किया था. लेकिन भाजपा ने इसे इस हद तक ‘आत्मसमर्पण’ मान लिया कि उसने अपने स्थायी वैचारिक विरोधियों, वाम दलों तक से हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया और इस संधि को लेकर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोट भी दिया.

संसद में उस समय भाजपा की सबसे प्रमुख नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि यह संधि वैसी ही है जैसी मुगल बादशाह जहांगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में कारोबार करने की इजाजत दी थी. उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, “उस इजाजत ने ढाई सौ साल तक देश को गुलाम बनाने की नींव रखी थी. इस परमाणु संधि का भी वही परिणाम होगा.”

2. इसी तरह, भाजपा ने भारत-बांग्लादेश सीमा समझौते में भी अड़ंगा लगाया था. इस समझौते के तहत दोनों देश अपने-अपने अंदरूनी क्षेत्र में बसी बस्तियों का आदान-प्रदान करने वाले थे. भाजपा इसके पीछे के तर्क को, या यह भी समझने को राजी नहीं थी कि इस समझौते के तहत शेख हसीना की अवामी लीग सरकार को मजबूती देने और इस प्रक्रिया में अपने एक सीमा विवाद को निपटाना भारत के ही व्यापक हित में था. भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा था, “भारत की जमीन के मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता.”

तब तक मोदी भाजपा के एक प्रमुख नेता के तौर पर उभर चुके थे और मैंने अगस्त 2013 में ‘डियर नरेंद्र भाई’ शीर्षक से अपने इस कॉलम में उनसे अपील की थी कि वे इस मामले में दखल दें और देश के हित में इस समझौते को होने दें.

3. तीसरा उदाहरण मल्टिपल ब्रांड रिटेल में एफडीआई की इजाजत देने का था. एक बार फिर, भाजपा ने इस कदम का जोरदार विरोध किया और इसे भारत की आर्थिक आजादी पर हमला बताया. उसने पड़ोस की परचून की दुकानों के भविष्य को लेकर चिंता जाहिर करते हुए इस कदम के खिलाफ संसद में वोट देकर इसे रोक दिया. लेकिन यह न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम था बल्कि इसका रणनीतिक महत्व भी था क्योंकि भारत आज अगर एक आर्थिक ताकत है तो इसी तरह के कदमों की वजह से.

अब करीब एक दशक बाद, यह जानना मुफीद होगा कि आज इन दोनों नीतियों की क्या स्थिति है. भारत-अमेरिका रणनीतिक संबंध और गहरा हुआ है और मोदी सरकार परमाणु संधि का इस हद तक समर्थन करती है कि वह इसमें ज़िम्मेदारी वाले मसले को भी सुलझाने के लिए तैयार है.

बांग्लादेश के मामले में, सीमा विवादों का निपटारा मोदी सरकार की शुरुआती उपलब्धियों में शुमार है. और इस निपटारे को लेकर कोई विवाद भी नहीं हुआ. और, मल्टिपल ब्रांड रिटेल वाले मामले का क्या हुआ? प्रतिबंधों को एक-एक करके खत्म या हल्का कर दिया गया. और ई-कॉमर्स का? चाहे वह ग्लोबल मार्केट लीडर अमेज़ॉन हो या विदेशी पैसे से चलने वाले स्टार्ट-अप (ज़्यादातर चीनी और कुछ जापानी), ये सब भाजपा के उन लोगों के लिए एक सबक हैं जिन्होंने संसद में दूसरी ज़ोर-आजमाइश के लिए मजबूर किया था और मुंह की खाई थी.

आप अगर ज्यादा संशयवादी हैं तो यही कहेंगे कि यूक्रेन-रूस मामले में मोदी सरकार की नीति पर कांग्रेस ने जो रुख अपनाया है उसमें सुखद या दुखद आश्चर्य वाली कोई बात नहीं है क्योंकि उनके नेताओं की कई पीढ़ियों की परवरिश सोवियत संघ के समर्थन और पश्चिम (अमेरिका) के विरोध पर ही हुई है. लेकिन तथ्य यह है कि अब दस साल से सत्ता से बाहर बैठी कांग्रेस ने भारत को अमेरिका के साथ मिलकर बड़े कदम उठाते और पश्चिमी खेमे के साथ निर्णायक रूप से जुड़ते देखा है. चीन के आक्रामक उभार ने भाजपा के लिए यह रास्ता आसान ही बनाया है.

यह तो ठीक है कि कांग्रेस के भीतर भी कई लोग मनमोहन सिंह की नीतियों को संदेह और नाराजगी से देखते थे लेकिन उन्होंने इस सबको कबूल किया. मोदी के दसवें साल में हम देख रहे हैं कि उसकी अमेरिका नीति, गहराते रणनीतिक सहयोग, और रूस से हट कर दूसरी जगहों से हथियार मंगाने के नाटकीय कदमों पर कांग्रेस की ओर से हमला नहीं हुआ है.

हमारी राष्ट्रीय नीति में यह बदलाव कितना महत्वपूर्ण है, इसे समझने के लिए हमें 40 साल पीछे जाना पड़ेगा. मार्च 1983 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने निर्गुट आंदोलन (नैम) के शिखर सम्मेलन की मेजबानी की थी और उसे बांग्लादेश की आज़ादी के बाद विदेश मामले में अपना सबसे बेहतर मौका बताया था. फिडेल कास्त्रो का इंदिरा गांधी को गले लगाना उस दौर की यादगार छवि बन गई. भारत की राजनीति और नीतियों के कर्णधारों के लिए तब तक यह विचार लुभावना था कि यह देश एक तरह से ‘क्रांतिकारी’ किस्म का है.

बाद में, राजीव गांधी को अपने कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में जब मुश्किलों से सामना पड़ने लगा और लगातार कमजोर होते हुए उन्होंने हुंकार भरकर कहा था कि “नानी याद दिला दूंगा”, तब भी उनका इशारा सोवियत संघ या चीन की ओर नहीं बल्कि अमेरिका की ओर ही था, जिसे तब भी शैतान माना जा रहा था.

1983 के ‘नैम’ शिखर सम्मेलन के बाद बाइडन, मैक्रों और सुनक के साथ द्विपक्षीय मेलजोल वाले इस जी-20 शिखर सम्मेलन तक के 40 साल यह बताते हैं कि भारत ने एक नकली गुटनिरपेक्षता से आगे आपसी लेन-देन वाली स्वायत्त नीति तक का सफर किस तरह तय किया है.

पी.वी. नरसिंहराव ने जब परिवर्तन का पहला, हिचकता हुआ कदम उठाया था तो उन्हें खुद अपनी पार्टी और भाजपा से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि अगर उन्होंने आर्थिक सुधारों को नहीं लागू किया होता तो भारत ने आज दुनिया में जो हैसियत बनाई है वह न बना पाता.

हमारी आर्थिक वृद्धि, अर्थव्यवस्था का आकार और जनसंख्या के संकेतकों में सुधार हमारी सबसे बड़ी रणनीतिक थाती हैं. इस सबको मिलाकर अध्ययन का एक ऐसा मसला बनता है जिसे वित्त बाजारों के खिलाड़ी ‘चक्रवृद्धि ब्याज’ की ताकत कहते हैं. और इसे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी इस दौड़ में शामिल होते जाने वाले हर खिलाड़ी ने बखूबी निभाई है, चाहे वे अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों या मनमोहन सिंह, या अब मोदी.

भारत की विश्वदृष्टि में मूलभूत परिवर्तन का श्रेय इस बात को जाता है कि इसकी घरेलू राजनीति की प्रतिस्पर्द्धी ताकतें राष्ट्रहित में आपसी सहयोग को तरजीह देती रही हैं. यूक्रेन-रूस मसले पर कांग्रेस ने मोदी सरकार का जो समर्थन किया है वह उन मिसालों में शामिल है, जो हमें हमारी विभाजित घरेलू राजनीति के बारे में बेहतर एहसास से भर देती हैं.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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