अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी (आप) की जबरदस्त हार क्यों हुई, इसके बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा रहा है. इन सबमें आपको ज्ञान की कई बातें भी मिली होंगी कि किस तरह वे कुछ नया नहीं पेश कर पाए, कि उनकी राजनीति कितनी थकी हुई थी कि केंद्रीय एजेंसियों के हमलों और कानूनी जंग ने उन्हें कितना कमजोर कर दिया था, कि वे किस तरह बेहिसाब रेवड़ियों की पेशकश कर रहे थे और उनके नेतृत्व में गहराई की कमी थी, आदि-आदि. बेशक इनमें से अधिकांश बातें सही हैं.
इसलिए हम इन सबसे आगे बढ़कर यह देखने की कोशिश करेंगे कि राष्ट्रीय राजनीति में पिछले दशक में निश्चित रूप से जो सबसे महत्वपूर्ण बदलाव आए और जो केवल दिल्ली नाम के राज्य तक सीमित नहीं थे उनके व्यापक परिणाम क्या हैं.
सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह है कि विचारधारा मुक्त राजनीति का दौर अब खत्म हो गया है. लगभग 15 वर्षों से केजरीवाल ने एक ऐसी राजनीति का ढांचा खड़ा किया था जो किसी विचारधारा के खंभे या नींव पर नहीं खड़ा था और यह जानबूझकर किया गया था. उनकी पार्टी एक बागी पार्टी थी, जो सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों और शहरी मध्यवर्ग के आक्रोश पर बनी थी. भारत ने उनके आंदोलन के रूप में लगभग एक ‘लाल क्रांति’ का अनुभव लिया था और उस दौर में अन्ना हज़ारे आंदोलन की तुलना अक्सर ‘तहरीर स्क्वायर’ आंदोलन से की जाती थी.
अखबारों के संपादकीय वाले पन्नों और टीवी चैनलों के पुराने ‘डिबेट्स’ को देखिए. अन्ना हज़ारे आंदोलन के दौर में केजरीवाल, उनके कार्यकर्ता, मैगसैसे विजेताओं के नेतृत्व में ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ नमक संगठन, दो भगवाधारी हस्तियां (स्वामी अग्निवेश और बाबा रामदेव), एक जज और दो आला वकील किस तरह आरएसएस के फ्रंट संगठनों और परोक्ष रूप से भाजपा के साथ मिलकर काम कर रहे थे. उस समय टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में जो कुछ प्रमुख लोग यूपीए सरकार को तब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार बता रहे थे और यह घोषित कर रहे थे कि सारी हदें पार हो चुकी हैं, वह भाजपा से जुड़े हुए थे.
जो उस समय पार्टी में नहीं थे वह बाद में उसमें शामिल हो गए. ज़्यादातर वैचारिक खुराक नई दिल्ली की चाणक्यपुरी में स्थित विवेकानंद फाउंडेशन से मिलती थी, जो कि पूरी तरह भाजपा-आरएसएस का ‘थिंक टैंक’ था. सबूत चाहिए तो जांच लीजिए कि इस फाउंडेशन के लिए काम करने वाले कितने सचमुच स्मार्ट लोग मोदी की पहली सरकार में शामिल हुए थे. इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और प्रधानमंत्री के पहले और लंबे समय तक प्रधान सचिव रहे नृपेंद्र मिश्र शामिल हैं. मिश्र को बाद में राम मंदिर निर्माण परियोजना की कमान सौंपी गई.
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केजरीवाल यह दिखावा तो करते रहे कि वे एक अ-राजनीतिक व्यक्ति हैं और सत्ता नहीं चाहते जबकि उनकी महत्वाकांक्षा यही थी. इसलिए उन्होंने विचारधारा का आग्रह नहीं रखा. वे भाजपा के साथ भी जा सकते थे या अपना अलग रास्ता भी चुन सकते थे. हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि भाजपा को उनकी ज़रूरत थी या नहीं, या वे एक बिचौलिया नेता के रूप में ही रहकर संतुष्ट थे. कम उम्र में ही वे अपनी लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गए थे और बड़ी हस्ती बनने के सपने देख रहे थे. उनके करीबी लोग बताते हैं कि वे 2019 में ही प्रधानमंत्री बनने की कल्पना कर रहे थे.
अन्ना हज़ारे से दूरी बनाना उनके लिए आसान था. वैसे भी वे कुछ भी नहीं थे और महात्मा गांधी की हास्यास्पद नकल ही थे. उनका इस्तेमाल करके उन्हें बिना किसी जोखिम के एहसास के साथ खारिज कर दिया गया. ‘आप’ की स्थापना के साथ राजनीति में छलांग लगा दी गई. शुरू में ‘आप’ के जो प्रमुख चेहरे थे उन्हें वामपंथी झुकाव रखने वालों में शुमार किया जा सकता था. उनमें योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण भी शामिल थे. केजरीवाल भाजपा के साथ नहीं जाने वाले थे और उनकी महत्वाकांक्षा तथा उनके दुस्साहस ने उन्हें 2014 में वाराणसी में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने तक पहुंचा दिया. उस समय मैंने अपने ‘राइटिंग्स ऑन द वाल’ नामक कॉलम में लिखा था कि हम लंबे समय के बाद एक राष्ट्रीय नेता को उभरते देख रहे हैं और यह पहला उदाहरण है कि वह कांग्रेस या भाजपा में से किसी खेमे का नहीं है.
इससे पिछले साल ही वे दिल्ली में उस समय सत्ता में रही कांग्रेस और भाजपा को मात देकर सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में उभरकर 49 दिनों की विद्रोही तेवर वाली सरकार चला चुके थे. वाराणसी में चुनाव अभियान के दौरान मैं उनसे मिला था और तब भी मैंने अपने उक्त कॉलम में लिखा था कि वे गड्डमड्ड संदेश दे रहे हैं. मई 2014 के उस कॉलम से मैं केजरीवाल का बयान उद्धृत कर रहा हूं : “मैं दिल्ली से भी आसानी से सांसद बन सकता था, लेकिन मैं वाराणसी क्यों आया हूं? मैं मोदी को हराने और भारत को इस राक्षस से बचाने आया हूं.” मैंने पूछा था: लेकिन मोदी को आप इतना बड़ा राक्षस क्यों मानते हैं? क्या वे सांप्रदायिक हैं, धर्मनिरपेक्षता के लिए एक खतरा हैं? मैंने केजरीवाल के मुंह से ऐसी कोई बात नहीं सुनी.
उन्होंने कहा था : “वे घातक हैं क्योंकि वे अंबानी और अडाणी (2014 में ही) की जेब में हैं. यह साबित करने के लिए मेरे पास दस्तावेज़ मौजूद हैं.” इसके बाद उन्होंने एक युवा, नव उदारवादी समाज सुधारक से ज्यादा एक पर्चेबाज़ की तरह एक के बाद एक कई पन्ने निकालकर दिखाए. तब मैंने लिखा था: ‘वे मौका गंवा रहे हैं. वे धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के नाम पर लोगों से मोदी के खिलाफ वोट देने की अपील करते तब तो कोई बात भी बनती, लेकिन अंबानी और अडाणी से आपको बचाने के लिए मोदी को हराने में मेरी मदद कीजिए?” खैर, यहां मैं अपने व्यक्तिगत संदर्भों को विराम देता हूं.
दिल्ली विधानसभा के 2013 के चुनाव में उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर नहीं उभरी और उन्हें कांग्रेस का बाहर से समर्थन स्वीकार करने में कोई परहेज़ नहीं हुआ, जिसे उन्होंने तीन साल की अपनी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के बाद हाल में ही हराया था. इसे आप स्वार्थ, व्यावहारिकता, खालिस सियासत, जो चाहे समझिए.
तथ्य यह है कि वे किसी सिद्धांत, दर्शन, या विचारधारा से बंधे नहीं थे. एक विशुद्ध भारतीय नेता, लेकिन भारतीय नेता भी चाहे कितना भी स्वार्थी या अनैतिक क्यों न हो, उसे किसी-न-किसी तरह की भावनात्मक सहारे की ज़रूरत पड़ती ही है. चाहे यह विचारधारा के रूप में हो या राष्ट्रवाद अथवा जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि की पहचान के रूप में. केजरीवाल के पास कुछ नहीं था. उनकी सियासत एक लीक वाली या एक रंग वाली ही थी : भ्रष्टाचार के खिलाफ हम ही हैं, बाकी सब चोर हैं और हम इस ‘सिस्टम’ को बदलने आए हैं.
वैचारिक सवाल से उन्होंने कन्नी काट ली. उन्होंने खुद को भाजपा और कांग्रेस, दोनों के विरोध में स्थापित कर लिया था और यह उम्मीद कर रहे थे वे एक नई राष्ट्रीय आशा बनकर उभरेंगे. सिस्टम को बदलने का उनका सोच भी अस्पष्ट, अपरिभाषित थी. इस तरह की चाल को हम हाल में कुछ लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में कारगर होते देख चुके हैं. अर्जेन्टीना में ज़ेवियर मीले ने सरकारी तंत्र को काटकर आधा कर देने का अभियान चलाया और राष्ट्रपति चुने जाने के बाद यह किया भी या डोनाल्ड ट्रंप जिसे ‘डीप स्टेट’ कहते हैं उसे ध्वस्त करने के लिए बुलडोजर चलवा रहे हैं जिसका ड्राइवर उन्होंने एलन मस्क को बनाया है. केजरीवाल के पास ऐसा कोई मौलिक विचार नहीं रहा. हर एक नेता को जेल भेजने का वादा करने वाला ‘जन लोकपाल बिल’ इस तरह का कोई विचार नहीं था.
वे भाजपा के हिंदुत्ववाद से ज्यादा हिंदुत्ववादी नहीं हो सकते थे और वामपंथी झुकाव उन्हें कांग्रेस की ज़मीन पर ला खड़ा करता. तो उनकी टेक क्या थी? इस सवाल को वे अपनी पार्टी और सरकार के दफ्तरों में आंबेडकर तथा भगत सिंह की तस्वीरें लगाकर बड़ी चतुराई से टाल जाते थे. यह ज़रूरत से ज्यादा चालाक बनने की चाल ही थी. अपना वर्चस्व जताने के पीछे यह प्रवृत्ति भी एक प्रमुख वजह थी.
इन वर्षों में वे वैचारिक परिदृश्य के दोनों पक्षों के साथ खेलते रहे. कुलीन तबकों के प्रति उनका विरोध उन्हें वामपंथ के नज़दीक ले जाता था, लेकिन उन्होंने इस झुकाव वाले अपने सभी कॉमरेड्स को निकाल बाहर किया, शायद इसलिए कि वह पूरी तरह उनकी हां में हां नहीं मिलाते थे. या वह अपनी ही छवि चमकाने में लगे थे.
इसके अलावा टीवी इंटरव्यू में हनुमान चालीसा का पाठ, दिल्ली में अस्थायी राम मंदिर बनवाना, आतिशी द्वारा का उनके जेल जाने की तुलना भगवान राम के वनवास से करना और यह कहना कि वे उनकी अनुपस्थिति में उसी तरह काम करेंगी जिस तरह भरत ने अयोध्या से राम की अनुपस्थिति में राजकाज संभाला था…आप यह सब करते रह सकते हैं, लेकिन राहुल गांधी को भी कई मंदिरों की यात्राएं करने, अपने जनेऊ का प्रदर्शन करने, अपने उच्च ब्राह्मण गोत्र या अपनी शिव भक्ति के दावे करने के बाद समझ में आ गया था कि आप भाजपा और मोदी को हिंदुत्ववाद की मौलिकता के मामले में पछाड़ नहीं सकते.
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केजरीवाल का 49 दिन का पहला कार्यकाल काफी नाटकीयता भरा और सुर्खियां बटोरने वाला रहा, जब उन्होंने जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया वे और उनके कॉमरेड अपने घरों से लाई रज़ाई ओढ़कर भीषण ठंड में खुले में ‘सोये’. ‘जन लोकपाल बिल’ न पास किए जाने के विरोध में उन्होंने उतने ही नाटकीय ढंग से इस्तीफा देकर पटाक्षेप किया. इसने दिल्ली की जनता को इतना प्रभावित किया कि उसने अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें भारी बहुमत से जिता दिया. 2015 और 2020 में मोदी जबकि अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे, केजरीवाल ने दिल्ली के चुनावों में सबका सफाया कर दिया, लेकिन अगले पांच साल में विचारधारा मुक्त अधपकी राजनीति का उपसंहार हो गया.
तथ्य यह है कि वे एक विकल्प तो बने लेकिन एक अस्थिर, स्वार्थी नेता के रूप में. अनुच्छेद 370, राम मंदिर, रोहिंग्या मुसलमानों, बांग्लादेशी प्रवासियों आदि के अहम मसलों पर वे भाजपा के साथ खड़े थे और जब उन्हें ठीक लगता तो कांग्रेस के साथ हो जाते थे, जैसा कि लोकसभा चुनाव के दौरान किया, अन्यथा ज़्यादातर तो उसके खिलाफ ही रहे.
उनकी राजनीति का बुनियादी विरोधाभास यह है कि जबकि उन्हें ‘इंडिया’ खेमे (जिसकी धुरी कांग्रेस है) के साथ होना चाहिए, तब वे एकमात्र जिस राजनीतिक ज़मीन पर कब्जा करना चाहते हैं वह उसी खेमे की है. दिल्ली में उन्होंने कांग्रेस के वोट साफ कर दिए.
इसके बाद उन्होंने गुजरात, गोवा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में पैर रखे. वे ‘आप’ को नई कांग्रेस बनाना चाहते थे और जब लोकसभा चुनाव खत्म हो गए तब उन्होंने हरियाणा में कांग्रेस का गला पकड़ लिया. कांग्रेस ने दिल्ली में उन्हें इसका जवाब दे दिया. ‘दिप्रिंट’ के सौरभ रॉय बर्मन का चुनाव विश्लेषण बताता है कि दिल्ली की 13 सीटों पर ‘आप’ जितने वोटों के अंतर से हारी उन सीटों पर उससे ज्यादा वोट कांग्रेस ने हासिल किए. इनमें ‘आप’ के अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सोमनाथ भर्ती, सौरभ भारद्वाज और दुर्गेश पाठक सरीखे दिग्गज शामिल हैं.
वोटों की अदला-बदली मामूली जोड़-घटाव जितनी आसान नहीं होती, लेकिन कांग्रेस के साथ काफी उदार तालमेल भी ‘आप’ को 10 और सीटें दिला सकता था और कांग्रेस को तीन-चार सीटें मिल सकती थीं. हरियाणा में केजरीवाल अगर नहीं होते तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ जातीं. उनकी राजनीति के इस विरोधाभास की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं. भाजपा उन्हें नेस्तनाबूद करने पर आमादा है, लेकिन उन्हें लगता है कि वे कांग्रेस की कीमत पर ही अपना विस्तार कर सकते हैं. एक सहयोगी के रूप में उन्हें इसकी ज़रूरत है. यह ‘आप’ को ‘इंडिया’ गठबंधन का खास तौर से प्रतिकूल घटक भी बनाता है.
अब केजरीवाल और ‘आप’ समाप्त नहीं, तो ध्वस्त तो हो ही चुके हैं. वैसे, हारने के बाद भी उनके पास अभी पंजाब जैसा बड़ा राज्य है, दिल्ली का नगर निगम है और 43 प्रतिशत वोट हैं. केजरीवाल पहले भी कई संकटों से उबर चुके हैं, लेकिन यह उनके लिए सबसे गंभीर संकट है, खासकर इसलिए कि भाजपा उन्हें नष्ट कर देना चाहती है. वह दिल्ली में उसके विधायकों और पार्षदों को तोड़ने और पंजाब में उसकी सरकार को गिराने की कोशिश करेगी. केजरीवाल में लड़ने का राजनीतिक कौशल और साहस है. उनके पार्टी के कार्यकर्ता उन पर भरोसा कर सकते हैं. इस पराजय ने उनके सामने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में ध्रुवीकरण करने वाले प्रमुख मसलों पर अपना रुख स्पष्ट किए बिना क्या वे अपनी राजनीति को ज़िंदा रख सकते हैं और भाजपा तथा कांग्रेस के दो मोर्चों पर संघर्ष भी कर सकते हैं?
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