पाकिस्तान और उसके आईएसआई पर आप एक यह आरोप नहीं लगा सकते कि उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कब वे क्या कर बैठेंगे. पिछले 45 वर्षों से, जब से उन्होंने आतंकवाद को भारत के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया है, तब से उनके अगले कदम का पहले से ही पता लगता रहा है.
आईए, पहले हम यह समझें कि यह रणनीति क्या है. इसे कई नाम दिए जाते रहे हैं— छद्मयुद्ध, हजार जख्म देना, हिंसक जिहाद, आदि-आदि.
वैसे, आईएसआई के तौर-तरीके एक सूत्र में गुंथे नजर आते हैं. यह सूत्र है—भारत में हिंदुओं को निशाना बनाने के लिए जिहादी लश्करों का या छद्म आतंकवादियों के रूप में भारतीय अल्पसंख्यकों का इस्तेमाल करना.
एक समय, उनका सोच यह था कि यहां के हिंदू अपने यहां के अल्पसंख्यकों से बदला लेने पर उतर आएंगे. वे भारत में इस तरह का संकट पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं कि इस देश में गृहयुद्ध छिड़ जाए. एक तरह से यह दूसरों के दुख में खुश होने के उल्ट होता—हम जिस गृहयुद्ध में फंसे हैं वैसे ही गृहयुद्ध में आप भी उलझ जाएं. और दूसरे स्तर पर यह भारत को सामरिक, सैन्य, राजनीतिक और मनोबल की दृष्टि से कमजोर और दिशाहीन करता. तीसरा पहलू सबसे महत्वपूर्ण है: भारत का बहुसंख्यक हिंदू समुदाय जब गुस्से तथा हताशा में अपने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ खड़ा हो जाएगा तब दो कौम वाला सिद्धांत सही साबित हो जाएगा.
इस पहलू को हमने सबसे महत्वपूर्ण क्यों कहा? पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने विदेश में रह रहे पाकिस्तानियों के बीच 16 अप्रैल को जो भाषण दिया उसे ध्यान से सुनिए. अपने ही घर में उनकी साख जिस तरह गिर रही है और वे जिस तरह कुरान के हवाले देकर आक्रामक भाषण दे रहे हैं उस पर अगर आप ध्यान देंगे तब आप समझ जाएंगे कि दर्द कहां से उठ रहा है.
यह दर्द पाकिस्तान की वैचारिक बुनियाद, दो कौम वाले सिद्धांत की विफलता से उपजता है, जिसे 1971 में ध्वस्त कर दिया गया था. उस सिद्धांत को फिर से चुनौती पाकिस्तान के पश्चिमी सूबों में स्थानीय अल्पसंख्यकों की ओर से मिल रही है. वे सब मुसलमान ही हैं. लेकिन उनमें से कई इससे बाहर आना चाहते हैं और इसके लिए मरने-मारने तक को तैयार हैं.
ऐसे में आप दो कौम वाले सिद्धांत और पाकिस्तान की वैचारिक बुनियाद की वकालत कैसे कर सकते हैं? यह आप यह साबित करके कर सकते हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है. इसके लिए क़ायदे आज़म, आपका शुक्रिया! भले ही वे इस बात पर आपत्ति करते कि पाकिस्तान का निर्माण इस्लामी कलमे के आधार पर किया गया है. या लगभग अंग्रेज़ बन चुके जिन्ना को यह समझने में काफी मुश्किल होती कि पाकिस्तान की वैचारिक बुनियाद का यह स्वयंभू रखवाला अपनी खराब अंग्रेजी में क्या कह रहा है.
हमने 45 साल पहले के समय से शुरुआत इसलिए की क्योंकि तभी बहुत कुछ बदल गया था—अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के ठीक बाद अमेरिका और उसके पश्चिमी तथा मध्यपूर्वी साथियों ने पाकिस्तान को अपना अग्रणी साथी बनाया था और ‘काफिर’ सोवियतों के खिलाफ इस्लामी जिहाद का इस्तेमाल शुरू किया था. मुस्लिम जमात अगर कम्युनिस्टों को काफिर घोषित कर सकती थी तो हिंदुओं को भी काफिर घोषित किया जा सकता है.
इसकी शुरुआत 1980-81 में पंजाब में भिंडरांवाले के उभार के साथ हुई. उसने शुरू में तो पुलिस और निरंकारियों को निशाना बनाया लेकिन जल्दी ही हिंदू भी उसके लोगों के निशाने पर आ गए. साफ तौर पर हिंदुओं को चुन कर उनकी हत्या करने की पहली घटना 5 अक्तूबर 1983 को हुई. पंजाब में ढिलवान कस्बे से कपूरथला जा रही बस को रोक कर छह हिंदुओं को बाहर निकाला गया और उनकी हत्या कर दी गई थी.
आधुनिक इतिहास में हिंदुओं को चुनकर उनकी आतंकवादी हत्या की यह पहली घटना थी. इसने शोक की ऐसी लहर पैदा की कि पूरे देश में आक्रोश फैल गया. इंदिरा गांधी ने पंजाब की अपनी ही दरबारा सिंह सरकार को बरखास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लगा दिया.
इसके बाद हिंदुओं की चुनकर हत्या करने की घटनाएं बढ़ गईं. यह आतंकी हमले का फॉर्मूला बन गया. इसके बाद 1989 से कश्मीरी आतंकवादी गुटों के हमले शुरू हो गए, जिनकी शुरुआत कश्मीरी पंडितों की हत्याओं, और उन्हें पलायन के लिए मजबूर करने से हुई. यह सिलसिला पूरे भारत में चल पड़ा, जब आईएसआई समर्थित गिरोहों, ‘एलईटी’ के लोगों ने मंदिरों, शादी के समारोहों, होली तथा दिवाली के आयोजनों, रामलीलाओं, हिंदुओं के धार्मिक जुलूसों आदि पर हमले शुरू कर दिए. एक समय तो आईएसआई से पूरी तरह जुड़ा हुआ एक भारतीय आतंकवादी गुट भी उभर आया. इस तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन ने पूरे भारत में जहां-तहां सीरियल बम धमाके करके दहशत फैला दिया. इसके बम धमाकों में 2005 में दिल्ली में 62 लोग, 2008 में जयपुर में 63 लोग, और 2008 में फिर दिल्ली में 20 लोग मारे गए.
इन 45 वर्षों में हिंदुओं को निशाना बनाकर हमला करने की करीब 100 घटनाएं हुईं. 1994 तक, इन हमलावरों में पंजाब के आतंकवादी भी शामिल थे. निश्चित विवरण के लिए आप ‘साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल’ (एसएटीपी) को देख सकते हैं. दिल्ली और जयपुर में हुए बम धमाकों के अलावा मैं यहां कुछ और हमलों का जिक्र कर रहा हूं.
इनमें से हर मामले में मृतकों (सभी हिंदू, एकाध आतंकवादी भी) की संख्या कोष्ठक में दी गई है. ढिलवान बस हमला (1983, 6 मृतक), फतेहाबाद बस हमला (1987, 34 मृतक), रुद्रपुर रामलीला बमकांड (1991, 41), लुधियाना ट्रेन कांड (1991, 125), जी हां, 125 का आंकड़ा टाइप की गलती नहीं है. इनके अलावा चेन्नै आरएसएस कार्यालय बमकांड (1993, 110), नई दिल्ली के लाजपतनगर में बम धमाके (1996,13), दौसा, राजस्थान कांड (1996,14), कोयंबटुर बमकांड (1998,58), जम्मू रघुनाथ मंदिर में हुए बम धमाके (मार्च और नवंबर 2002, क्रमशः 12 और 14), अक्षरधाम मंदिर कांड (2002, 33), नदीमार्ग में कश्मीरी पंडितों की हत्या (2003, 24), अफ़जल गुरु की रिहाई की मांग करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में बम धमाके (2011, 15), आदि-आदि.
एक सौ से ज्यादा हमलों में से ये कुछ उदाहरण हैं. इनमें मुंबई की रेलों में 26/11 के सीरियल बम धमाकों को शामिल नहीं किया गया है.
मुझे लगता है कि ये दुखद तथ्य हमारे इस मूल मुद्दे की पुष्टि करने के लिए काफी हैं कि भाड़े के प्रत्यक्ष और परोक्ष तत्वों का इस्तेमाल करके भारत में हिंदुओं को निशाना बनाना ही आइएसआइ की चाल रही है. वे चाहते हैं कि भारत में अपने ही अल्पसंख्यकों के खिलाफ गुस्सा पैदा हो और उन्हें निशाना बनाया जाए. इसकी भनक भी पाकिस्तानी फौज की लोकप्रियता बढ़ाएगी, खासकर तब जबकि आज की तरह वह गर्त में हो.
अब हम आपको 1993 के मुंबई बम धमाकों की याद दिलाएंगे. इससे पहले एक-47 राइफलों और हथगोलों को चुनिंदा स्थानों पर जमा कर दिया गया था, जिनमें फिल्म अभिनेता संजय दत्त का घर भी शामिल था. इसके पीछे सोच यह था कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद कांड के बाद दंगे हुए थे और शिवसैनिक मुस्लिम बहुल इलाकों में हमला कर सकते थे, तब उन्हें और पुलिस को हजारों नहीं तो सैकड़ों की तादाद में मौत के घाट उतारने में इन हथियारों का इस्तेमाल किया जाएगा. इसके बाद पूरे भारत में जो आग लगती उसे भला कौन काबू में कर सकता था? उस दौरान मुंबई के पुलिस प्रमुख रहे एम.एन. सिंह ने बताया कि तब तक महाराष्ट्र पुलिस के पास एक भी एक-47 नहीं थी.
मेरे ‘वाक द टॉक’ शो में मुझे यह बताने के लिए प्रेस में शरद पवार की आलोचना होने लगी कि उन्होंने जानबूझकर झूठ बोला था कि बम धमाका एक मस्जिद पर भी किया गया था. वे कोई सांप्रदायिक दंगा फूटने से पहले संवेदनशील स्थानों पर पुलिस को तैनात करने के लिए समय लेना चाहते थे. यह एक अनुभवी नेता का बुद्धिमानी भरा साहसी कदम था. इसलिए बम धमाकों के बाद कोई दंगा नहीं हुआ और बॉम्बे ने आईएसआई के इरादों को नाकाम कर दिया था.
आप पाकिस्तान के खेल को ‘विध्वंस 101’ नाम दे सकते हैं. भारत के हिंदुओं पर इतनी देर तक इतना कहर बरपाओ कि आखिर वे अपने यहां अल्पसंख्यकों पर हमले कर बैठें. इसीलिए कनाडा के सिख उग्रवादी पाकिस्तानियों के साथ मिलकर हिंदू मंदिरों पर हमला करते हैं, उन्हें अपवित्र करते हैं.
अब यह देखें कि इस बात को कौन अच्छी तरह समझता है. ऐसे लोगों में हम वैचारिक रूप से दो विपरीत ध्रुवों पर स्थित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा आरएसएस से लेकर असदुद्दीन ओवैसी तक को गिन सकते हैं. मोदी ने बिहार में दिए अपने भाषण में हिंदू, कलमा या ऐसे किसी शब्द का जिक्र नहीं किया जिससे सांप्रदायिक स्वर निकलता हो. यह काफी विवेकपूर्ण कदम था. क्या यह किसी चूक के कारण हुआ? मैं सकारात्मक होते हुए इसे आरएसएस के शीर्ष नेताओं में नंबर दो दत्तात्रेय होसबले के बयान के साथ जोड़कर देखूंगा, जिन्होंने पहलगाम में हुए हमले को ‘सैलानियों’ का जनसंहार कहा. उन्हें मालूम है कि इस मोड़ पर आंतरिक स्थिरता और शांति भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण है.
इसीलिए ओवैसी आतंकवादियों के लिए ‘कुत्ते, कमीने, हरामजादे’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिनका इस्तेमाल हमारी राजनीति में भाजपा से भी ज्यादा धुर दक्षिणपंथियों या योद्धा चैनलों तक ने कभी नहीं किया था. ओवैसी को मालूम है कि पाकिस्तानियों ने हिंदुओं को चुन कर, निशाना बनाकर भारी तकलीफ पहुंचाई है. वे हिंदुओं को यह संदेश देना चाहते हैं कि भारत के मुसलमान उनके साथ खड़े हैं, वे उनके साथी हैं और वे दुश्मनों की हौसला अफजाई नहीं करना चाहते.
पाकिस्तान और उसकी आईएसआई ने भारत के बहुसंख्यकों पर भारी दबाव डालकर उनके सब्र का फिर से इम्तिहान लेने की कोशिश की है. 45 वर्षों से जो खेल कामयाब नहीं हो पाया उसका यह महज एक और सबसे क्रूर रूप है. अब इसे फिर से नाकाम करना हिंदुओं के हाथ में है. आखिर, अपना कहने को हमारे पास एक ही देश है.
और हमारा वजूद 5,000 साल से भी पुराना है, जो किसी विभाजनकारी विचारधारा के आधार पर रातोंरात नहीं बन गया.
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