संसद के इस बजट सत्र ने हमारी राष्ट्रीय राजनीति में आए नये मोड़ का संकेत दे दिया है. दशकों तक व्यक्तियों या धार्मिक तथा जातिगत पहचानों के इर्द-गिर्द बुनी गई प्रतिद्वंद्वी विचारधाराओं पर लड़ते रहने के बाद भारत आर्थिक नीतियों पर स्पष्ट बहस के युग में कदम रख रहा है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस भाषण से साफ हो जाता है जिसमें उन्होंने निजीकरण की खुली और बेबाक वकालत की है; जिसका जवाब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘हम दो, हमारे दो’ वाले अपने भाषण में सरकार पर याराना पूंजीवाद का आरोप लगाने के अलावा तीन कृषि-कानूनों को गरीब विरोधी तथा निजी क्षेत्र द्वारा गरीब किसानों को बंधक बनाने वाला कानून बताकर दिया है. यह अहम बदलाव है.
और हम इसका स्वागत क्यों कर रहे हैं, इसकी वजह यहां बता रहे हैं. सैन्य इतिहास में कहा गया है कि युद्ध के दो तरीके हैं— स्थिर, खंदक की लड़ाई, जो हम प्रथम विश्वयुद्ध में देख चुके हैं; और स्थान बदलती लड़ाई, जिसे हम द्वितीय विश्वयुद्ध में देख चुके हैं. हम यह भी जानते हैं कि इनमें से कौन-सा युद्ध ज्यादा निर्णायक था.
आम तौर पर 1947 और खासकर 1969 के बाद से, जब इंदिरा गांधी ने धुर वामपंथी राह पकड़ी, भारतीय राजनीति आर्थिक मसले को लेकर एकध्रुवी रही है. पहले तो नेहरू ने अपने पार्टी में जो दक्षिणपंथी थे उन्हें अकस्मात किनारे किया, उसके बाद उनकी बेटी ने उनकी पूरी तरह छुट्टी कर दी. उसी दौरान राष्ट्रवाद में लिपटे समाजवादी मार्का लोकलुभावन कदमों से उन्होंने उदारवादी दक्षिणपंथी विपक्षी दल स्वतंत्र पार्टी को बर्बाद कर दिया. लेकिन उनके सबसे मुखर विरोधियों में समाजवादी, लोहियावादी, और कम्युनिस्ट ही थे. इंदिरा गांधी इतनी चतुर थीं और कम्युनिस्ट पार्टियां मॉस्को और बीजिंग के बीच इस कदर विभाजित थीं कि उन्होंने इन पार्टियों में फूट डाल दी. मॉस्को समर्थक सीपीआई ने उनका पूरा समर्थन किया, यहां तक कि इमर्जेंसी थोपने के उनके फैसले को भी मंजूर कर लिया.
भारत की राजनीतिक अर्थनीति में सैद्धांतिक ध्रुवीकरण की गुंजाइश न के बराबर रह गई थी. अब चुनौती यह थी कि सबसे ज्यादा समाजवादी कौन बनता है. यह ख़्वाहिश इतनी तेज हो गई कि जनसंघ और बाद में भाजपा तक इस तंबू की ओर खिंची चली आई.
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पांच दशकों तक हर खेमा अपने समाजवादी खंदक से दूसरे खेमों पर गोलाबारी करता रहा. इस बीच वे सब आर्थिक सुधारों की बातें भी करते रहे— मानवीय किस्म के सुधारों, सबको साथ लेकर चलने वाले, समाजवादी किस्म के सुधारों की. कुल मिलाकर सुधारों के छलावे की बातें. या जैसा कि सीताराम केसरी ने मेरे इस सवाल पर, कि वे चीन समर्थक कम्युनिस्टों को डीटीसी के बस ड्राइवर जैसा क्यों बताते हैं, यह कहा था, ‘क्योंकि वे बायीं तरफ हाथ देकर दायीं तरफ मुड़ जाते हैं.’
लेकिन दुखद तथ्य यह है कि हम मुड़ते नहीं हैं, बस सुस्त चाल से, तमाम गलियों में भटकते हुए सीधे ही चलते रहे हैं, जो कि भारतीय खासियत है. मोदी के शुरू के छह साल भी ऐसे ही रहे हैं. बल्कि उन्होंने तो 1991 के बाद हुए सुधारों की घड़ी की सुई को उलटा घुमा दिया. नतीजतन, भारतीय अर्थव्यवस्था और इसी के साथ इससे जुड़ी राजनीति भी ठिठक गई.
अब स्थिति बदली है. एक पक्ष ने खुद को निजीकरण का खुला समर्थक घोषित कर दिया है, जबकि दूसरा पक्ष समाजवाद का समर्थन कर रहा है. अब इससे उलझन में पड़ने की जरूरत नहीं है कि पहले किसने क्या किया और कौन किस पृष्ठभूमि से आया है. आज जो सूत्र मिला है, हम उसे ही पकड़कर आगे बढ़ें.
सबसे पहली बात यह कि बजट ने निजीकरण की बात की है, विनिवेश की नहीं. बजट वाले दिन मैंने कहा था कि पहली बार किसी भारतीय सरकार ने विनिवेश या ऐसे ही किसी लुभावन जुमले की जगह निजीकरण शब्द का प्रयोग किया है, वह भी बिना किसी संकोच के. रेकॉर्ड के लिए बता दूं कि यशवंत सिन्हा ने इस पर मुझे मैसेज भेजा कि 2001 के बजट भाषण में उन्होंने भी इस शब्द का प्रयोग किया था. बहरहाल, उसे औपचारिक नीति के तौर पर नहीं कहा गया था और न ही उस अर्थ में उसका प्रयोग किया गया था.
दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री ने निजी क्षेत्र का बिलकुल साफ-साफ पक्ष लिया. उन्होंने कहा कि उसे सम्मान के साथ देखने की जरूरत है, और वे दिन गए जब उद्यमियों को कोसने से वोट मिला करते थे. उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र की बदौलत ही आज पूरी दुनिया कृतज्ञ भाव से भारत में बनी वैक्सीन खरीद रही है. उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के बारे में वह सब कहा, जो सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों ने आज तक नहीं कहा था. उन्होंने सवाल किया कि कोई आईएएस अफसर व्यवसाय क्यों चलाए? अगर वह भारतीय है, तो निजी उद्यमी भी तो भारतीय ही हैं. राष्ट्र निर्माण में वे भी योगदान देते हैं. उन्होंने कहा कि संपदा का निर्माण करने वालों का अपमान मत कीजिए, क्योंकि अगर उसका निर्माण नहीं किया गया तो आप बांटेंगे क्या?
इसके बाद दूसरों ने भी प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाया. भाजपा के उगते सूरज माने जा रहे तेजस्वी सूर्य ने दिवंगत नानी पालखीवाला के मशहूर व्याख्यानों में से एक के उद्धरण के हवाले से बताया कि भारत गरीब है तो ‘किसी संयोग से नहीं बल्कि अपनी पसंद से है, क्योंकि गरीबी को उसने अपनी सरकारी नीति बना ली है और उस समाजवाद को अपनाया है जो धन का स्थानांतरण अमीरों से गरीबों की तरफ नहीं करता बल्कि ईमानदार अमीर से बेईमान गरीब की ओर करता है.’
भारत के सत्ता पक्ष की ओर से सदन में ऐसी बातें आपने पहले कभी सुनी थी क्या?
यह अगर संपदा का निर्माण करने वालों के पक्ष में एक भारतीय प्रधानमंत्री का सबसे मजबूत बचाव था, वह भी संसद में; तो राहुल गांधी के संक्षिप्त मगर वजनी जवाब ने उनकी पार्टी के वामपंथी झुकाव को फिर से स्पष्ट किया, जिस ओर वह दशकों से झुकी रही है. राहुल ने कहा कि तीन नये क़ानूनों में पहला कानून मंडियों को खत्म कर देगा, तो दूसरा कानून बड़े निजी व्यापारियों को अनाज, फल और सब्जियों की मनमर्जी जमाखोरी करने की छूट देगा क्योंकि भंडारण की सीमा खत्म कर दी गई है, जिससे अनाज गोदामों का एकाधिकार हो जाएगा; और तीसरे कानून का मतलब यह है कि पीड़ित किसान इंसाफ के लिए अदालतों के पास नहीं जा सकेंगे. सप्लाई और कीमतों पर धन्ना सेठों का नियंत्रण हो जाएगा. गरीब किसान उनकी दया पर निर्भर हो जाएंगे.
यह सब ‘हम दो’ यानी मोदी और शाह अपने (‘हमारे दो’) दो दोस्तों यानी अंबानी और अडानी के लिए कर रहे हैं. राहुल ने उनके नाम नहीं लिये मगर कोई भ्रम नहीं छोड़ा. परिवार नियोजन के पुराने विज्ञापनों के वीडियो फिर से चलाकर देख लीजिए उन क्यूट-से, सुंदर-सुंदर-से, मोटे-मोटे-से चेहरों को. संसद के दोनों सदनों में, कांग्रेस के दूसरे प्रमुख और सबसे कुशल वक्ताओं ने इसी स्वर में बयान दिए. पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा कि यह बजट अमीरों के द्वारा, अमीरों का, और अमीरों के लिए है. उनका कहना था कि यह बजट उन 1 प्रतिशत भारतीयों के लिए है, जो 73 प्रतिशत राष्ट्रीय संपदा पर कब्जा किए बैठे हैं. दीपेंद्र हुड्डा ने सुझाव दिया कि इस 1 प्रतिशत के साथ क्या किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ में पत्रकार हरीश दामोदरन ने लिखा है कि सभी किसानों को एमएसपी की गारंटी देने पर कुछ लाख करोड़ का खर्च ही आएगा. तो उन लोगों पर थोड़ा टैक्स क्यों न थोपा जाए जिनकी संपत्ति में महामारी वाले साल में 13 लाख करोड़ का इजाफा हो गया? इतने में तो वह लागत निकल आएगी. कांग्रेस में सबसे उदार आर्थिक विचार रखने वाले सांसद शशि थरूर उस हद तक तो नहीं गए मगर कहा कि इन क़ानूनों से किसानों का वजूद ही खतरे पड़ गया है, और बजट तो ‘ना जवान का है, ना किसान का.’
विरोधी खेमे के सांसद-दर-सांसद कुल मिलाकर इसी लाइन पर कायम रहे. हम जानते हैं कि नेताओं पर इतना तो भरोसा किया ही जा सकता है कि वे वादा कुछ करेंगे और काम ठीक उसका उलटा करेंगे. लेकिन इस बहस से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारतीय राजनीति में विचारधाराओं को लेकर नयी मोर्चाबंदी शुरू हो गई है. और यह मोर्चाबंदी अर्थनीति के मैदान पर हुई है.
सभी बदलाव अच्छे नहीं होते मगर यह अच्छा बदलाव है. युद्ध की तरह राजनीति में भी अपने खंदक की कथित सुरक्षा के अंदर से बेमतलब गोले दागते रहने से बेहतर है कि सक्रिय रहिए और पैंतरे बदलते रहिए. कृषि क़ानूनों ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों ने विपक्ष की बड़ी एकजुटता के लिए पहली चिंगारी सुलगा दी है. सरकार व्यापक उभार वाली सबसे बड़ी चुनौती से मुक़ाबिल है. महत्वपूर्ण श्रम कानून भी इसी दौरान पास किए गए हैं. इसके अलावा, बड़ी और शोपीस मानी गईं कंपनियों— जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं दो सरकारी बैंक और एक बीमा कंपनी— के निजीकरण के वादे भी किए जा रहे हैं. इसके साथ एलआईसी को शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध करने की भी बात है. इन सबमें मजदूर संघों से जुड़े कामगारों की बड़ी संख्या है. इसलिए विरोध किसी भी समय शुरू होने की उम्मीद रखिए. विपक्ष के लिए बेशक इन्हें हवा देना मुफीद होगा और सत्ता में अपनी वापसी की उम्मीद में वह इन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है. और, वह ऐसा क्यों न करे.
लोकतंत्र में राजनीति इसी तरह तो चलती रही है. दूसरे पक्ष के प्रति सद्भावना या निष्पक्षता दिखाकर कोई सत्ता नहीं हासिल कर पाया है. आज नयी बात यह हुई है कि हमारी राजनीति में अर्थनीति को लेकर दक्षिण-वाम का स्पष्ट विभाजन पहली बार हुआ है. राजनीतिक अर्थनीति को लेकर मेरे विचार क्या हैं यह सर्वविदित है. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. फर्क इससे पड़ता है कि अगली बार लोग जब वोट देने जाएंगे तब उनके सामने निजी क्षेत्र की खुल कर पैरवी करने वालों और नये समाजवादियों के बीच चुनाव करने का स्पष्ट विकल्प उपलब्ध होगा.
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