किसी खोटे सिक्के या अवांछित चीज की तरह ‘H’ शब्द यानी हमें पाकिस्तान से जोड़ने वाला विराम-चिह्न ‘हाइफन’ फिर से भयानक रूप से उभर आया है. इसकी वापसी इसलिए भयानक है क्योंकि तीन दशकों से हमारी यहां की सरकारें भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू से तौलने की बड़ी ताकतों (अमेरिका) की कोशिशों का प्रतिकार करती रही हैं. इससे तीन बातें उभरती हैं.
पहली बात को हम ‘जीरो-सम गेम’ कह सकते हैं यानी वह खेल जिसमें एक को जितना लाभ होता है, दूसरे की उतनी ही हानि होती है. अमेरिका अगर इस उपमहादेश को इस रूप में देखता है तो उसे रिश्ते में संतुलन बनाकर चलना होगा. लेकिन भारत इस तुलना को नापसंद करता है. उसका यह मानना है कि भारत तो अपने आपमें अनूठा है और उसे पाकिस्तान से जोड़ना उसका अपमान है.
दूसरी बात है ‘हैसियत से इनकार’. भारत की ‘व्यापक राष्ट्रीय शक्ति’ (सीएनपी) में जिस तरह वृद्धि हो रही है उसके कारण वह मानने लगा है कि उसका भी एक प्रभाव क्षेत्र है. उसे यह मंजूर नहीं है कि उसका मित्र अमेरिका इस क्षेत्र को भारत-पाकिस्तान के चश्मे से देखे. इससे भारत के प्रभाव क्षेत्र की पुष्टि नहीं होती, उसका अवमूल्यन होता है.
यह दोहरी परेशानी का कारण है क्योंकि चीन भारत की अहमियत को, जिसे पाकिस्तान ‘दादागीरी’ कहता है, खारिज करने में जी-जान लगाकर जुटा हुआ है. भारत तो अमेरिका से यही उम्मीद करेगा कि इस होड़ में वह उसका साथ दे. इसलिए अमेरिका अगर पाकिस्तान के लिए अच्छी-अच्छी बातें कह रहा है तो यह उसके लिए कष्टदायक है. तब फिर, ‘क्वाड’ का क्या मतलब है? हम तो यह मान कर चल रहे थे कि चीन को घेरने की योजना में हम दोनों साझीदार हैं.
और तीसरी बात है—‘M’ शब्द यानी मध्यस्थता की वापसी. यह भी हमें खिजाती है. भारतीय जनमत मानता है कि डॉनल्ड ट्रंप ने हमारी तीन दशकों की मेहनत पर यह कहकर पानी फेर दिया है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम उन्होंने ही करवाया है.
हमें अब यह पता चल गया है कि उनकी दिलचस्पी मध्यस्थता में नहीं बल्कि खुद श्रेय लेने में है और वे कहते रहे हैं कि “कोई भी मुझे परमाणु युद्ध रोकने का श्रेय नहीं दे रहा”, “कोई भी मुझे किसी चीज का श्रेय नहीं देता”, “मैंने परमाणु युद्ध को रोक दिया लेकिन ऐसी कोई खबर मैंने कहीं नहीं देखी”, आदि-आदि.
पाकिस्तान ऐसी बातों को अगर लपक लेता है तो आप उसे दोष नहीं दे सकते. उसका मानना है कि इस क्षेत्र में ट्रंप की नई दिलचस्पी परमाणु युद्ध के खतरे की कारण जगी है. इसलिए, वह यह सोचता है कि उसने दुनिया का ध्यान फिर से परमाण्विक खतरे की ओर मोड़ दिया है, जबकि भारत आतंकवाद के खिलाफ ग्लोबल जंग के नाम पर साझीदारी बनाने की दशकों से कोशिश करता रहा है. इस जादुई जोश के साकार रूप हैं बिलावल भुट्टो, जिन्होंने अपने अथक बड़बोलेपन में यह बयान दे दिया कि जरूरत पड़ी तो अमेरिका भारत को कान पकड़कर भी बातचीत की मेज तक खींच लाएगा. पाकिस्तानी सत्तातंत्र अमेरिका के साथ कमजोर हुए अपने रिश्ते को फिर से मजबूत करने के लिए जी-जान लगाकर जुटा हुआ है, यहां तक कि गुप्त बातें भी उजागर कर रहा है. लेकिन चुपके से ट्रंप के करीब खिसक आने वाला हर शख्स अंत में यही गाना गुनगुनाने लगता है: ‘इक बेवफा से प्यार किया… हाय रे हमने ये क्या किया’.
ये पूरी तरह लेन-देन वाले ट्रंप हैं, जो किसी के प्रति वफादार नहीं हैं, जिनका पूरा ध्यान भारत के नरेंद्र मोदी की तरह अपने घरेलू जनाधार पर टीका है. अमेरिका का जो भी पार्टनर इसे कबूल नहीं करता उसे भारी विश्वासघात और अपमान महसूस होगा.
अच्छी बात यह है कि हमारे नीति नियंता भावुकता के प्रदर्शन से और चिंता की सार्वजनिक अभिव्यक्ति से बचते रहे हैं. वे फिलहाल जो महत्वपूर्ण है उस मसले को लेकर चुपचाप आगे बढ़ते रहे हैं. वह मसला है, भारत-अमेरिका व्यापार समझौता. अगर यह संपन्न हो जाता है तब काफी खलबली शांत हो जाएगी. वैसे भी, किसी ने अभी तक ‘K’ शब्द यानी कश्मीर नामक दूसरे प्रेत को जगाने की कोशिश नहीं की है. कोई नहीं कह रहा कि भारत और पाकिस्तान को कश्मीर पर बात करनी चाहिए, या यह कि हम मध्यस्थता करने को तैयार हैं. मैं कह नहीं सकता कि ट्रंप को इस तरह के किसी मसले की जानकारी है भी या नहीं.
इसके अलावा, ट्रंप पूरी दुनिया को इतिहास, तथ्यों और विचारधारा से मुक्त अपने नजरिए के अनुसार नया रूप दे रहे हैं. वे ‘नाटो’ को निरर्थक बना रहे हैं, पश्चिमी गठबंधन का मज़ाक बना रहे हैं, कनाडा के प्रधानमंत्रियों (ट्रूडो और कार्नी) को लगातार अपमानित करते रहे हैं, और नेतन्याहू के प्रति अधीरता का प्रदर्शन कर रहे हैं. वे जेलेंस्की से नफरत करते हैं, पुतिन की प्रशंसा करते हैं. उनका सबसे ताजा अनमोल बोल यह है: “पुतिन कह रहे हैं कि (दूसरे विश्वयुद्ध में) उनके 5.1 करोड़ लोग मारे गए और हम आपके मित्र थे. आज हर कोई रूस से नफरत करता है और जर्मनी तथा जापान को पसंद करता है. इसकी कभी व्याख्या करनी चाहिए. यह दुनिया अजीब है!”
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जो शख्स इतिहास के कारण उलझन में पड़े बिना अपने नजरिए में बुनियादी बदलाव कर रहा है उससे यह अपेक्षा हकीकत से परे होगी कि वह हमें पाकिस्तान से अलग माने जाने के हमारे आग्रह से अवगत भी होगा या उसकी उसे परवाह भी होगी.
मोदी सरकार ने सोशल मीडिया पर हो रहे शोरशराबे के प्रति फिलहाल जो रवैया अपनाया है वह बुद्धिमानी भरा है. अमेरिकी उप-विदेश मंत्री पद के लिए नामजद पॉल कपूर ने अपनी नियुक्ति के बारे में फैसला करने वाली कमिटी के सामने जो बयान दिया वह काफी बुद्धिमानी भरा था और भारत को उस पर कोई आपत्ति नहीं हुई. लेकिन उनके इस एक वाक्य ने भारत में कई लोगों को उपेक्षित प्रेमी होने के एहसास से नाराज कर दिया कि जब भी अमेरिका के हित के लिए जरूरी होगा, वे पाकिस्तान के साथ मिलकर काम करेंगे.
और, सेंटकॉम कमांडर जनरल माइकल कुरिल्ला ने पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ जंग में बड़ा सहयोगी जो बताया वह पेंटागन द्वारा किए गए भू-रणनीतिक विभाजन का परिणाम है, जिसके तहत सेंटकॉम पाकिस्तान और भारत को पैसिफिक कमांड के अंदर मानता है.
आप किसी भी क्राइम रिपोर्टर से पूछ लीजिए, वह यही बताएगी कि पुलिस के किसी थाने के एसएचओ की पहली चिंता यही होती है कि उसके इलाके में अपराध न हो, चाहे इसके लिए पक्के बदमाशों से सौदा क्यों न करना पड़े. लेकिन पैसिफिक कमांड के प्रमुख से आपको अलग जवाब मिल सकता है. इससे भी बढ़कर, हमारे टीवी समाचार चैनलों की अफवाह फैक्ट्री ने, जिसने भारत की रणनीतिक साख को ज्यादा खराब किया है, अपनी एक कहानी गढ़ डाली कि पाकिस्तान के नवनियुक्त फील मार्शल को अमेरिकी आर्मी डे परेड के लिए आमंत्रित किया गया था. गनीमत है कि हमें व्हाइट हाउस के इस बयान पर जनता की विक्षिप्त प्रतिक्रिया का सामना नहीं करना पड़ा कि अमेरिका ऐसे किसी मेहमान को न्योता नहीं भेज रहा है.
व्यापक भारतीय जनमत पर इस तरह की तुनुकमिजाजी तो हावी रही है, जो ‘हमें यह सब अकेले करना है’ वाले आत्मघाती जुनून को पसंद करता है, लेकिन गंभीर नीतियों को जन प्रतिक्रिया से अछूता रखना मोदी सरकार के लिए एक चुनौती होगी. सरकार सोशल मीडिया पर खलबली की बहुत चिंता करती रही है.
अंत में, अगर आप शोरशराबे को खारिज करने वाले यंत्र को सक्रिय रखते हैं, और यह देखने की कोशिश करेंगे कि हमारे संकट के दौरान विदेश की भागीदारी का क्या अर्थ रहा है, तो हमें मध्यस्थता, दखलंदाजी, और भागीदारी में फर्क समझ में आ जाएगा. शीतयुद्ध के दौर के बाद चार साल तक भारत को मानवाधिकार के मुद्दे पर कश्मीर के मामले में अमेरिका का भारी दबाव झेलना पड़ा था. लेकिन आर्थिक सुधारों के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था सुधरी तो भारत का रुतबा भी बढ़ा. 1998 तक, समीकरण बदलने लगा था.
बिल क्लिंटन की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में न केवल परमाणु शक्ति संपन्न भारत की हकीकत को कबूल किया बल्कि 1992 में इसने करगिल युद्ध के दौरान काफी रचनात्मक भूमिका अपनाई. क्लिंटन ने न केवल नवाज़ शरीफ की खिंचाई की बल्कि उन्हें अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस (4 जुलाई) पर करगिल युद्ध से इज्जत के साथ बाहर निकलने का रास्ता भी बनाया.
ऑपरेशन पराक्रम के दौरान अमेरिका के बार-बार हस्तक्षेपों और निरंतर दौरों (इनमें सबसे अहम था अमेरिकी रक्षा मंत्री डोनल्ड रम्सफेल्ड का उस दिन का दौरा, जब हम युद्ध के सबसे करीब पहुंच गए थे) ने दोनों पक्षों को शांत रखने में मदद की. 26/11 के आतंकी हमले के बाद आतंकवाद के खिलाफ जंग में एकता ने दोहरा मकसद पूरा किया. एक तो इसने भारत और पाकिस्तान को एक-दूसरे से काफी अलग कर दिया. दूसरे, पाकिस्तान के सीने पर ‘आतंकी मुल्क’ का बिल्ला चिपका दिया.
लेकिन वक़्त तो बदलता रहता है. वह, देखिए कि ट्रंप की वापसी के बाद किस तरह बदला. इस उपमहादेश के हर संकट को हल करने में अमेरिका की भागीदारी रही. वह हमारे दरवाजे पर दमकल की तरह खड़ा रहा. ट्रंप ने केवल भाषा बदली, पुराने फैशन वाली कूटनीति को खारिज कर दिया. श्रेय लेने के मामले में वे किसी पांच साल के बच्चे की तरह आग्रही दिखते हैं. यह दुनिया की नई हकीकत है, खासकर अमेरिका के मित्रों और सहयोगियों के लिए.
पोस्ट स्क्रिप्ट: जनरल परवेज़ मुशर्रफ जब आगरा शिखर सम्मेलन (14-16 जुलाई 2001) के लिए आए थे तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उनके सम्मान में ताज पैलेस होटल में नई दिल्ली के सबसे बड़े बैंक्वे हॉल में भोज दिया था. इसमें उन्होंने बड़ी चतुराई बरतते हुए फ़ारूक़ अब्दुल्ला को भी निमंत्रित किया और उन्हें सिर्फ एक मेज आगे बैठाया. डेज़र्ट के दौरान फ़ारूक़ पहले से तय योजना के मुताबिक उठे और शातिराना ढंग से मुस्कराते हुए मुख्य मेज की तरफ आए. हैरानी में पड़े मुशर्रफ को इससे बचने के लिए अचानक एक वाक्य सूझ गया, वे कह बैठे “अरे देखिए, ये तो थर्ड पार्टी इंटर्वेन्शन (तीसरे पक्ष की दखलंदाजी) हो गई”, और वहां मौजूद हर कोई हंस पड़ा.
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