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Monday, 9 December, 2024
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चीन-पाकिस्तान से जुगाड़ू फॉर्मूले के बूते नहीं लड़ सकता है भारत, सेना का बजट बढ़ाने की ज़रूरत

भारत को अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ साफ प्रतिरोध क्षमता हासिल करनी होगी. चीन के मामले में ऐसा उसे हमला करने की बड़ी कीमत चुकाने का डर पैदा करके किया जा सकता है, तो पाकिस्तान को दंड का डर पैदा करके किया जा सकता है.

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दो सप्ताह पहले हमने भारत के रक्षा बजट को लेकर यह सवाल उठाया था कि जीडीपी और राष्ट्रीय बजट, दोनों के लिहाज़ से उसके अनुपात में गिरावट आ रही है. तब हमने वादा किया था कि इस लेख की दूसरी किश्त में हम यह बताएंगे कि संसाधनों में किस तरह वृद्धि की जा सकती है कि अगले चार साल में जीडीपी के लिहाज़ से रक्षा बजट के अनुपात को 1.9 प्रतिशत से बढ़ाकर 2.5 प्रतिशत तक पहुंचाया जा सके और इस तरह हासिल हुए फंड को कहां निवेश किया जा सकता है. पिछले सप्ताह डोनल्ड ट्रंप की नाटकीय जीत के कारण लेख का यह दूसरा भाग रह गया था, जिसे अब पेश किया जा रहा है.

इस लेख की शुरुआत 9 दिसंबर 1971 की उस भयानक रात से की जा सकती है जब ‘71’ का युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया था. वे रात इसलिए भयानक थी क्योंकि पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस हैंगर ने भारत के ‘आईएनएस खुकरी’ युद्धपोत को डुबो दिया था. भारतीय नौसेना ने लड़ाई में वही एक युद्धपोत गंवाया है. हैंगर ने छिपने की जगह अपनी मौजूदगी ज़ाहिर करके खुद को एक चारे के रूप में पेश किया था.

भारत ने चुनौती कबूल करते हुए पनडुब्बी विरोधी लड़ाई लड़ने के लिए तीन युद्धपोतों को उसका शिकार करने के लिए भेजा था. इनमें से एक, ‘आईएनएस कुठार’ के इंजन में खराबी आ गई और उसे वापस बुला लिया गया. हकीकत यह भी है उन तीनों पोतों में पर्याप्त सक्षम सोनार यंत्र नहीं थे जो ध्वनि तरंगें भेजकर पता लगाते हैं कि पानी के अंदर पनडुब्बी आदि कहां है.

‘खुकरी’ और ‘कृपाण’ में से कोई भी ‘हैंगर’ का पता नहीं लगा सका. ‘कृपाण’ पर दागे गए दो टॉरपीडो निशाना चूक गए. ‘खुकरी’ को तीन टॉरपीडो ने निशाना बनाया और वह लगभग तुरंत डूब गया. इस कारण मौतें ज्यादा हुईं और उस पर केवल 67 सैनिक बच सके. उस त्रासदी की कहानी आज तक दोहराई जाती है.

भारतीय नौसेना को पाकिस्तान की जबरदस्त पनडुब्बी ताकत की जानकारी थी मगर उसकी ‘एएसडब्लू’ (एंटी सबमरीन वार, पनडुब्बी विरोधी युद्ध) क्षमता को बढ़ाने का पर्याप्त प्रयास नहीं किया गया था. यहां तक कि उस ‘एएसडब्लू’ के लिए तैयार किए गए टास्क फोर्स के पास पर्याप्त सोनार यंत्र भी नहीं थे. भारत को इस युद्ध की तैयारी के लिए महीनों का समय मिला था, फिर भी जब युद्ध शुरू हुआ तब टाटा ग्रुप के साथ मिलकर आईएनएस खुकरी पर सोनार का अभी परीक्षण ही चल रहा था.

अब आप ही सोचिए, क्या कोई देश अपना 1200 टन का युद्धपोत ऐसे जुगाड़ू सोनार के साथ युद्ध में भेजता है जिसका अभी परीक्षण ही चल रहा हो? ज़ाहिर है, वह जुगाड़ काम नहीं आया. और यह भी जान लीजिए कि इस जुगाड़ में जुटा टाटा ग्रुप का एक इंजीनियर भी उस युद्धपोत में मारा गया. किसी युद्ध में इस तरह मारा जाने वाला वह एक दुर्लभ असैनिक बन गया. यह कहानी मैंने इसलिए बताई ताकि यह मालूम हो कि हमारे रक्षा संबंधी मामलों में ‘जुगाड़’, ‘चलता है’, ‘हम इतने विशाल हैं कि छोटे-मोटे नुकसान की परवाह नहीं करते’ वाली मानसिकता किस कदर हावी है.

यह वायरस राजनीतिक नेतृत्व से लेकर सरकारी सेवाओं और सेना में भी फैला हुआ है. तभी तो वर्षों यह मालूम रहने के बावजूद कि पाकिस्तानी पनडुब्बियां वास्तविक खतरा हैं, भारत के एंटी-सबमरीन पोतों पर इतने कमज़ोर सोनार यंत्र लगे थे. इस कमी को दूर करने में कितना खर्च होता? काफी कम, लेकिन ऐसे छोटे-मोटे सुधार करने में वह मजा कहां है जो एक नया युद्धपोत या नई पनडुब्बी या विमानों का एक स्क्वाड्रन या नई मिसाइलें खरीदने में है, लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे छोटे-छोटे सुधार करके भी हम अनावश्यक झटकों से बच सकते हैं.

लेकिन इतना ही काफी नहीं था, दूसरे दिन भारतीय नौसेना ने ‘हैंगर’ की खोज करने में अपने सभी संसाधन लगा दिए. इसमें से एक, फ्रांस में बने दो इंजन वाले एलीज़ एएसडब्लू विमान को पाकिस्तानी वायुसेना के एफ-104 विमान ने कच्छ तट पर मार गिराया. भारतीय नौसेना ने उस युद्ध में कुल-मिलाकर शानदार प्रदर्शन किया, जिस पर अनावश्यक नुकसान के कारण दाग लगा.

यह सारी कहानी आप वाइस एडमिरल जी.एम. हीरानंदानी की 2000 में प्रकाशित किताब ‘इंडियन नेवी 1965-1975 : ट्रांजीशन टु ट्रायम्फ’ में पढ़ सकते हैं. हीरानंदानी नौसेना का इतिहास लिखने वाली योजना के प्रमुख थे. आप मेजर जनरल इयान कार्डोजो की किताब ‘द सिंकिंग ऑफ आईएनएस खुकरी : सरवाइवर्स स्टोरीज़’ भी पढ़िए. आप ऐसी दर्जनों कहानियां पढ़ सकते हैं कि हमारे सैनिक किस तरह बिना ज़रूरी तैयारी के लड़ाई के मोर्चे पर गए. ऐसी अधिकतर तैयारी टेक्नोलॉजी से जुड़ी थी, जो अधिक सजगता और प्रतिबद्धता के बूते की जा सकती थी.

अब हम छलांग लगाकर 2019 के पुलवामा-बालाकोट प्रकरण पर आते हैं, जब पाकिस्तानी वायुसेना की ‘एमरम’ मिसाइलों ने भारतीय वायुसेना की फ्रांसीसी ‘माइका’ मिसाइलों के सिवा दूसरी मिसाइलों को काफी पीछे छोड़ दिया था. ‘माइका’ तब तक वायुसेना के 10 से भी कम मिराज विमानों में फिट की जा सकी थी. इन विमानों ने बालाकोट पर बमबारी करने में कवच की भूमिका निभाई. सभी मिग तथा सुखोई विमानों में पुरानी रूसी आर-73 और आर-77 मिसाइलें तैनात थीं. मिसाइलों के मामले में यह अंतर तब तक कायम रहा जब तक राफेल विमान ऑपरेशन में नहीं आए, लेकिन आज भी, सुखोई विमानों में ‘स्वदेशी’ एस्ट्रा मिसाइल फिट करने का काम चल रहा है ताकि पाकिस्तानी वायुसेना के पास 2010 से मौजूद ‘एमरम’ मिसाइलों का मुकाबला किया जा सके. इस तरह, आप देख सकते हैं कि मिसाइलों के मामले में कमी को करीब एक दशक तक पूरा नहीं किया गया.


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1971 की उस दुखद कहानी के बाद पुलवामा-बालाकोट प्रकरण में मिसाइल के मामले में कमी को विस्तार से बताना इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि ये उस मानसिकता को उजागर करते हैं कि ‘अब कोई लड़ाई नहीं होगी’ या ‘शुरू में कुछ मौतें हुईं या नुकसान हुए तो कोई बात नहीं, हम अपने संख्याबल से उसकी भरपाई कर लेंगे’. करीब 50 साल के अंतर पर हुए इन दोनों मामलों में, कहीं ज्यादा बड़ी और सक्षम भारतीय सेना को सिर्फ इसलिए नुकसान उठाना पड़ा कि छोटी-मोटी मगर बेहद अहम कमियों को दूर नहीं किया गया.

जनरल वी.पी. मलिक के कार्यकाल से शुरू हुए तीन दशकों में कई सेनाध्यक्षों को हम निराशा में यह कहते हुए सुन चुके हैं कि हमारे पास जो है उसी से लड़ेंगे. इसी तरह की बात अभी हाल में वर्तमान वायुसेना अध्यक्ष ने कही है. हर कोई चीन को असली खतरा बताता है लेकिन हम तो पाकिस्तान के खिलाफ भी निर्णायक क्षमता नहीं बना रहे हैं.

सबसे पहले हमें बुनियादी बातों को समझना पड़ेगा. किसी बड़ी लड़ाई की तैयारी करने के लिए भारत को अपने दोनों संभावित प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ साफ प्रतिरोध क्षमता हासिल करनी होगी. चीन के मामले में ऐसा उसे हमला करने की बड़ी कीमत चुकाने का डर पैदा करके किया जा सकता है. पाकिस्तान के मामले में उसे ऐसा दंड देने का डर पैदा करके किया जा सकता है कि वह चेहरा बचाने के लिए जवाबी कार्रवाई तक न कर सके. उदाहरण के लिए पुलवामा के बाद जब बालाकोट पर बमबारी की गई थी तब भारतीय वायुसेना को पाकिस्तानी वायुसेना से ऐसी बढ़त ले लेनी चाहिए थी कि वह चुनौती देने की हिम्मत तक न करती. कारगिल की लड़ाई में ऐसा ही हुआ था जब भारत ने मिसाइलों के मामले में बढ़त ले ली थी.

सेना को अगर दोनों प्रतिद्वंद्वियों को डरा कर रखना है तो उसे लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपें, हथियारबंद ड्रोनों और भारी मात्रा में गोला-बारूद की ज़रूरत पड़ेगी. तोपखाने को और मारक बनाना होगा. कुछ ज्यादा पैसा भी मिलता है तो सबसे पहले इन चीज़ों की खरीद होनी चाहिए. लड़ाई में आसमान हथियारबंद ड्रोनों और क्रूज़ मिसाइलों से पाटा जा सकता है, ऐसे में अग्रिम टुकड़ियों को अत्याधुनिक, तेज हवाई सुरक्षा उपलब्ध करानी होगी. थल सेना को मानक पोशाक, छोटे हथियारों से लेकर सुरक्षा कवच और जूते-हेलमेट और सुरक्षित संचार व्यवस्था, नाइट विज़न और टैंक-रोधी अत्याधुनिक गाइडेड मिसाइलों से लैस करना होगा. यह सब हम सैकड़े की संख्या में खरीद रहे हैं, जो कि गंभीरता नहीं दर्शाता.

वायुसेना स्क्वाड्रन की घटती संख्या को बढ़ाने में समय लगेगा. इस बीच, ‘रीफुएलर’ और ‘एईडब्लूऐंडसी’ (एअरबोर्न अर्ली वार्निंग ऐंड कंट्रोल सिस्टम’) वाले विमानों की संख्या में तीन या चार की वृद्धि से भी मौजूदा सेना की ताकत कई गुना बढ़ जाएगी. इन दोनों अहम सिस्टमों के मामले में हम चीन तो छोड़िए, पाकिस्तान की बराबरी में भी नहीं हैं. पाकिस्तान के पास ‘एईडब्लूऐंडसी’ विमान हमसे ज्यादा हैं, लेकिन यहां इनकी खरीद में वह आकर्षण नहीं दिखता है जो बड़े लड़ाकू विमानों की खरीद में है जबकि उनके लिए काफी कम पैसा चाहिए और ये कहीं ज्यादा तेज ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ हैं.

नौसेना को अपनी स्कोर्पीन पनडुब्बियों के लिए भारी टॉरपीडो के अलावा माइनस्वीपरों, स्वार्म बोटों और नौसेना लायक उस सी-295 विमान की सख्त ज़रूरत है जिसे टाटा एयरबस कंपनी के साथ मिलकर बना रहा है. ये भी ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ बनेंगे क्योंकि ये 12 P-8I के बोझ को हल्का करेंगे क्योंकि ये मीडियम रेज़ निगरानी और एएसडब्लू (आठ घंटे के उड़ान समय) का काम संभाल लेंगे.

खरीद के लिए फिलहाल चूंकि, कम पैसे उपलब्ध हैं इसलिए ज्यादा पैसा मौजूदा या भावी बड़ी ख़रीदों पर ही खर्च होगा. अतिरिक्त पैसे का उपयोग ‘फोर्स मल्टीप्लायरों’ और हरेक प्रतिद्वंद्वी के लिए न्यूनतम प्रतिरोध में कमी को पूरा करने पर खर्च किया जाना चाहिए.

और अंत में सवाल यह है कि पैसा लाएं कहां से? पहली बात तो यह है कि इस तरह की छोटी, हर साल जीडीपी के 0.2 प्रतिशत के बराबर की वृद्धि हमारे बजट में तो की ही जा सकती है. जीडीपी के 0.1 प्रतिशत के बराबर, यानी 1.9 प्रतिशत से 2.0 प्रतिशत करने वाली, वृद्धि भी खरीदों के लिए 30,000 करोड़ रुपये जुटा सकती है. अगर यह भी वित्त मंत्रालाय के लिए मुश्किल है, तो और ज्यादा निजीकरण (कई पीएसयू अभी भी बिक्री की सूची में दर्ज हैं) किया जा सकता है और उससे हासिल पैसे को रक्षा बजट में डाला जा सकता है. जनमत को सुहाने वाली इससे अच्छी बात और क्या होगी?

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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