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Saturday, 12 April, 2025
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दो महाशक्तियों की खींचतान में भारत को खुद को ‘घास’ नहीं, बल्कि ‘खिलाड़ी’ साबित करना होगा

दो महाशक्तियों के इस व्यापार युद्ध ने सभी प्रभावित देशों के लिए संभावनाओं के दरवाजे खोल दिए हैं. ऐसे देशों में भारत सबसे बड़ा और सबसे निर्णायक देश है, उसे कोविड दौर वाले सुधारों को फिर से आगे बढ़ाना होगा.

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डॉनल्ड ट्रंप ने जो व्यापार युद्ध छेड़ा है उसे चीन को छोड़ बाकी तमाम देशों के लिए विराम देकर और स्पष्ट कर दिया है. इस बीच चीन पर उन्होंने 145 फीसदी टैरिफ ठोक दिए, तो चीन ने भी जवाब में अमेरिका पर 125 फीसदी दिया. चीन भारत के लिए जिस उपमा का प्रयोग करता है उसका उससे माफी मांगते हुए प्रयोग करें तो कहा जा सकता है कि यह दो महाबली हाथियों की टक्कर है.

जब दो हाथी आपस में भिड़ जाते हैं तब क्या होता है यह हम अच्छी तरह जानते हैं. तब छोटे-मोटे जीव पिस जाते हैं. ऐसे में तीन सवाल उभरते हैं—

  • क्या भारत छोटा-मोटा जीव है?
  • क्या भारत छोटा-मोटा जीव बनना गवारा कर सकता है?
  •  इस दंगल में भारत किसी छोटे जीव की तरह पिस जाने से बचने के लिए क्या कर सकता है, और इस दंगल से लाभ कैसे उठा सकता है?

दो महाशक्तियों के इस व्यापार युद्ध ने सभी प्रभावित देशों के लिए संभावनाओं के दरवाजे खोल दिए हैं. ऐसे देशों में भारत सबसे बड़ा और सबसे निर्णायक देश है. इन टैरिफ़ों के मद्देनजर भारत कम-से-कम इतना तो कर ही सकता है कि अमेरिका के बाज़ारों के लिए ऐसी चीजें बनाए जिनमें चीन उसकी बराबरी नहीं कर सकता. ऐसी सबसे पहली चीज एपल फोन हो सकती है लेकिन, चीन अमेरिका को जो चीजें निर्यात करता है उनकी सूची पर नजर डालें और उन पर 30-40 फीसदी की ड्यूटी जोड़ दें (वैसे, 145 फीसदी की टैरिफ में अंततः कटौती की जाएगी) तो अरबों डॉलर मूल्य के निर्यातों की संभावना बनती है. इसी तरह, अमेरिका से चीन को निर्यात की जाने वाली कुछ चीजें भारत, टैरीफ़ों में अंतर के मद्देनजर, उसे निर्यात कर सकता है.

किसी दोस्त या सहयोगी की दुविधा का लाभ उठाना आम तौर पर अच्छी बात नहीं मानी जाती लेकिन ऐसे वक़्त में, जिसे ट्रंप ने असामान्य बना दिया है और जब वे अपने साथियों के प्रति आक्रामक और अपमानजनक रवैया अपना रहे हैं, इसे बुरा नहीं माना जाना चाहिए. ट्रंप बयान दे रहे हैं कि ‘वे सब मुझे फोन करके कह रहे है कि “सर, यह सौदा हमसे कर लीजिए, हम कुछ भी करने को तैयार हैं”… वे सब मेरी … चूमने को तैयार हैं’. ट्रंप यह सब चीन के लिए नहीं बल्कि बाकी उन 75 देशों के लिए कह रहे हैं जो उनके सहयोगी हैं, जिनमें यूरोप, ऑस्ट्रेलिया के प्रमुख देश और भारत भी शामिल है.

हम यह तो कहते रहते हैं कि किसी संकट का लाभ उठाने से मत चूको, लेकिन इधर भारत ने ऐसे अवसरों का लाभ नहीं उठाया है. कोविड के संदर्भ में जो वादे किए गए थे उन सबको भुला दिया गया है. कृषि सुधारों के क़ानून और श्रम कानून (जिनका इस लेखक ने स्वागत किया था) हवा-हवाई हो गए हैं.

प्रधानमंत्री ने 2021 में साफ-साफ कहा था कि सरकार रणनीतिक मामलों को छोड़ व्यवसाय के सभी क्षेत्र निजी क्षेत्र के हवाले कर देगी. लेकिन एअर इंडिया की बिक्री, जिसकी प्रक्रिया 2017 से चल रही थी, के सिवा निजीकरण की अब कोई बात भी नहीं की जाती.

आईडीबीआई बैंक का ‘लगभग हो चुका’ निजीकरण अभी ‘लगभग’ के चक्र में ही उलझा हुआ है. इस साल के बजट में 5 ट्रिलियन रुपये ‘पीएसयू’ में निवेश के लिए रखे गए हैं. मोदी सरकार ने प्रशंसनीय काम यह किया कि महामारी के दौरान धैर्य बनाए रखा, कई पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों की तरह नोट छापकर नहीं बांटे और वित्तीय घाटे को संभाला. लेकिन अफसोस की बात यह है कि लंबे समय से जिस बड़े सुधार की उम्मीद की जा रही थी वह संकट का लाभ उठाने से चूक गया. सरकार ने ‘आत्मनिर्भरता’ और ‘मेक इन इंडिया’ पर आधारित एक नया आर्थिक एजेंडा पेश किया. उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहनों (पीएलआई) और व्यवसाय करने की सुविधाओं (ईओडीबी) के नाम पर बड़ी राशियां आवंटित करने का वादा किया गया.

पीएलआई के मोर्चे पर आधी-अधूरी प्रगति हुई है. मैनुफैक्चरिंग गतिरोध में फंस गया है. कुछ पीएलआई आगे बढ़ी है, मुख्यतः आई-फोन के मामले में. और देखिए कि इस एक चीज ने हाथियों की लड़ाई के बीच भारत को कितनी ताकत दी है.

ईओडीबी के मोर्चे पर क्या हालत है? भारत की रैंकिंग बेहतर हुई है लेकिन घिसटती हुई. इसके बारे में उद्यमी और सीरियल निवेशक मोहनदास पई आपको ज्यादा बता सकते हैं, जो सरकार के खुले आलोचक हैं. उन जैसे अनुभवी अगर इतने हताश हैं तो आप कल्पना  कर सकते हैं कि नये उद्यमियों की क्या हालत होगी. जीएसटी को मोदी दशक में किया गया एक युगांतरकारी आर्थिक सुधार बताया जाता है. लेकिन मझोले और लघु उद्यमियों (एमएसएमई) से पूछिए कि इसकी प्रक्रियाएं कितनी उलझन भरी, कानूनी रूप से विवादित और आर्थिक रूप से बोझिल हैं. इसी मानसिकता वाली उसी जमात को देखें, तो उसे जो भी नई सिस्टम दी जाती है उसे वह उसी पुरानी मशीन गन का नया मॉडल ही मानती है.

घास की तरह कुचले जाने से बचने के लिए भारत को कोविड युग वाले सुधारों के विचार को अपनाना होगा. व्यापार वाला मसला पूरी तरह मैनुफैक्चर्ड और कृषि सामान तक सीमित रहेगा. अमेरिका को हमारे कुल निर्यात में 40 फीसदी हिस्सा सर्विस सेक्टर का है लेकिन यह गिनती में नहीं है. इन पर कोई टैरिफ नहीं लगता क्योंकि कोई सामान सीमा पार नहीं जाता.

चीन से जो पलायन हो रहा है उसका लाभ उठाने के लिए भारत नयी मैनुफैक्चरिंग कितनी जल्दी शुरू कर सकता है? इसके विपरीत, टैरिफ़ों में अगर भारी कटौती की गई— जो निश्चित ही की जाएगी और की जानी चाहिए—तब हमारी मैनुफैक्चरिंग क्या इतनी मजबूत है कि अपना वजूद बचा सकेगी? इसके लिए सरकार को क्या करना चाहिए? सब्सीडी देना आलसी, प्रतिगामी, महंगा कदम होगा, और ट्रंप इसे अनुचित बताकर खारिज कर देंगे.

अमेरिका कुल मिलाकर टैरिफ मुक्त अर्थव्यवस्था है. यह भारत को 45 अरब डॉलर का व्यापार सरप्लस उपलब्ध कराता है. शुल्क खत्म भी कर दिए गए तो अमेरिका भारत को निर्यात करने के लिए इतना कम. मैनुफैक्चर करता है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. खनिज तेल और कीमती ‘स्टोन’, दो ऐसी चीजें हैं जो वह सबसे ज्यादा निर्यात करता है.

मैनुफैक्चर की जाने वाली चीजें, मसलन मशीनरी और उपकरण, बिजली के सामान और आंखों के उपचार के उपकरण मिलकर करीब 8 अरब डॉलर मूल्य की होती हैं. इसके विपरीत भारत बिजली और औषधि (हमारे निर्यातों में सबसे बड़ी हिस्सेदारी करने वाली दो चीजें) के सामान इससे तीन गुना मूल्य (26.5 अरब डॉलर) के होते हैं.

इनके अलावा भारत अमेरिका से सबसे ज्यादा कृषि से जुड़ी चीजें खरीदता है. ट्रंप अब इसे बड़े स्तर पर बढ़ाना चाहते हैं. ये उनके किसानों को सीधा लाभ पहुंचाती हैं. ‘पीकन’ अखरोट से लेकर खाद्य तेलों तक भारत जो भी कृषि उत्पाद वहां से आयात करता है उन पर ऊंची टैरिफ लगाई जाती है. मछली, मांस, और दुग्ध उत्पादों पर इतना ऊंचा टैक्स लगाया जाता है कि उनका अमेरिकी निर्यात असंभव है. अमेरिका निर्यात सरप्लस के रूप में केवल यही चीजें ‘मैनुफैक्चर’ करता है.

विभिन्न देशों के प्रतिबंधात्मक कदमों पर अमेरिकी ‘ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव्स रिपोर्ट’ में भारत से संबंधित खंड को जरा ध्यान से पढ़िए. आप पाएंगे कि कृषि उत्पादों के लिए भारत जिस ‘नॉन-जीएमओ’ प्रमाणपत्र की मांग करता है या उन दुग्ध उत्पादों की मांग करता है जो शुद्ध निरामिष आहार वाली अमेरिकी गायों के दूध से बने हों उन्हें नॉन-टैरिफ प्रतिबंधों में शामिल किया जाता है.

कृषि ट्रंप के लिए बेहद जरूरी है, और कोई अगर यह सोचता है कि वह मशीनरी, ब्वायलर, इलेक्ट्रॉनिक्स और कीमती ‘स्टोन’ पर कम ड्यूटी लगाकर मगर कृषि को ठंडे बस्ते में डालकर बच निकलेगा तो वह मुगालते में रहेगा. वैसे, बार-बार यह दोहराया जाता है कि भारत अमेरिका का एक महत्वपूर्ण सहयोगी है, कि मोदी और ट्रंप बड़े अच्छे दोस्त है इसलिए भारत को एक विशेष दर्जा हासिल है. लेकिन ट्रंप अपने सहयोगियों के प्रति सबसे रूखे हैं. वे यह भी कह सकते हैं कि ‘मेरे मित्र जरा समझदारी क्यों नहीं दिखा सकते, जबकि मैं चीन जैसे हाथी से कुश्ती कर रहा हूं तब वे क्या मुझे जीतने में मदद नहीं कर सकते?’

यह कुछ कड़े कदम उठाने का मौका है. गैर-कृषि चीजों पर कस्टम ड्यूटी कम करना आसान है. लेकिन भारत के पारंपरिक असुरक्षा भाव और स्वदेशी/आरएसएस तथा वामपंथी बौद्धिकों के दोहरे दबाव के कारण क्या भारत दुग्ध उत्पादों और मांस के आयातों के लिए दरवाजे खोल सकता है? एक असुविधाजनक सवाल यह है कि क्या हम अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त दूध और दुग्ध उत्पादों का उत्पादन कर रहे हैं? यह सबसे कठिन सवाल है, और ट्रंप इस मामले में ट्रंप भारी दबाव डाल सकते हैं.

बायोटेक और आधुनिक बीजों को लेकर साजिश की कहानियों ने भारतीय कृषि को पीछे धकेल दिया है. इसने हमें कपास के एक बड़े निर्यातक से आयातक बन गया है. मोदी सरकार अब जीएम बीजों के विरोध में नहीं है, यह दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘मेक-इन-इंडिया’ सरसों के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में उसके रुख से जाहिर है. इसके लिए साहसी पहल की जरूरत है.

भारत को मैनुफैक्चरिंग को संरक्षण और कृषि के मामले में इतिहास प्रदत्त हिचक के दोहरे दबाव से मुक्त होने और नयी आर्थिक आजादी का दावा करने का समय आ गया है. संरक्षणवाद से मुक्ति भारतीय उद्योग, इस्पात उद्योग को भी समाजवादी दूध पी-पीकर मोटे होते जाने की बजाय प्रतिस्पर्द्धी बनाएगी. और इतिहास प्रदत्त हिचक से मुक्ति कृषि सुधारों की ओर वापसी की रफ्तार बढ़ाएगी, और अतिरिक्त उत्पादन कर रहे भारतीय किसान को गेहूं-चावल की गिरफ्त से बाहर निकालेगी. इस सबके लिए राजनीतिक कौशल और साहस की जरूरत होगी.

इस स्तर के आर्थिक सुधार ही भारत को नुकसान से बचाकर अपने हितों की सुरक्षा तथा उन्हें आगे बढ़ाने में सक्षम बनाएंगे. इस तरह का मौका किसी पीढ़ी को एक बार ही मिलता है. दो हाथी, आपके एक सबसे अच्छे मित्र और सबसे बुरे प्रतिद्वंद्वी आपस में गुत्थमगुत्था हैं. अब फैसला आपको करना है कि आप क्या बनना चाहते हैं. आप बेशक कुचले जाने वाली घास नहीं बनना चाहेंगे.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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