अडाणी विवाद भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कुछ संबंधित पहलुओं की ओर भी हमारा ध्यान खींच रहा है. इनमें सबसे पहला है— विपक्ष का सरकार पर यह आरोप कि वह ‘क्रोनिज़्म’ चला रही है यानी अपने दोस्तों को बेजा फायदा पहुंचा रही है. इसे अगर विस्तार से देखें तो इसके दायरे में कॉर्पोरेट इंडिया के चार-पांच टॉप लीडर भी आ जाएंगे.
आप इस सूची में अंबानी, टाटा, बिरला, और वेदांता को भी शामिल कर सकते हैं. इन सबको विशाल कंपनी समूह कहा जा सकता है. इन सबके हित अलग-अलग व्यापक क्षेत्रों से जुड़े हैं. और, बेशक इस सूची को अंतिम नहीं माना जा सकता.
उदाहरण के लिए, टाटा को नमक से लेकर सॉफ्टवेयर तक से जुड़ा समूह कहा जाता है. वह ऑटोमोबाइल और सैन्य विमान भी बनाता है, और अब एयरलाइन का विशाल कारोबार भी चला रहा है. और वह इस्पात भी बनाता है.
मुकेश अंबानी का रिलायंस ग्रुप मुख्य रूप से तेल शोधन से लेकर टेलीकॉम का व्यवसाय करने के साथ-साथ खुदरा बिक्री और बायो-साइंस के क्षेत्र में अनुसंधान से लेकर मीडिया तक में पैर फैलाए है.
आदित्य बिरला ग्रुप के हित धातुओं (मुख्यतः एल्युमिनियम), टेलिकॉम, सीमेंट, धागों आदि-आदि से जुड़े हैं. वेदांता मुख्यतः धातुओं के क्षेत्र में है लेकिन अब उसने एनर्जी (तेल तथा गैस) के उत्पादन के क्षेत्र में भी कदम रख दिया है.
इन सबमें तीन बातें समान हैं.
पहली यह कि ये सब विरासत वाले या परिवारों के नियंत्रण वाले उपक्रम हैं. रिलायंस (अंबानी) और बिरला पिछली पीढ़ियों द्वारा निर्मित साम्राज्य हैं. वेदांता और अडाणी पहली पीढ़ी के संस्थापकों वाले, और सीधे उनके नियंत्रण में चलने वाले उपक्रम हैं. उनके प्रमुख व्यवसायों पर परिवार के कितने सदस्यों का नियंत्रण है, यह संख्या अलग-अलग है जिसमें एक सिरे पर अडाणी हैं तो दूसरे सिरे पर टाटा हैं.
दूसरी बात यह है कि इन सबके अधिकांश व्यवसाय उन क्षेत्रों में हैं जिन पर सरकार का साया बड़ा और निर्णायक है. ये ऐसे क्षेत्र हैं जो नियमन की कड़ी व्यवस्था के अधीन हैं और अक्सर (खासकर अडाणी के मामले में) पारिभाषिक रूप से एकाधिकार वाले क्षेत्र हैं— चाहे मुंबई हवाई अड्डा हो या बिजली वितरण का व्यवसाय, या मुंद्रा बंदरगाह या बिजली खरीद समझौते के साथ विशाल बिजली उत्पादन के संयंत्र हों. यह बात तेल शोधन और टेलिकॉम, खनन, तेल के कुओं के मामले में रियायत पर भी लागू होती है. इन सबके मामले में सरकार से सीधा और विस्तृत संवाद निर्णायक होता है.
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तीसरी, और इस सप्ताह के विमर्श के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से कोई भी वास्तव में ग्लोबल इंडियन ब्रांड का मालिक नहीं है. मैं जानता हूं, टाटा इस बात पर आपत्ति कर सकते हैं क्योंकि उनके पास ताज होटल हैं और अब एयर इंडिया भी वापस उनके कब्जे में है. लेकिन मैं विनम्रता के साथ कहना चाहूंगा कि ताज अभी भी ऐसा होटल ब्रांड नहीं है जो दुनिया को चकित कर दे. इसकी वजह शायद यह है कि वे सुपर लक्ज़री महलों से लेकर नौकरी-पेशा वाले स्तर तक कई वर्गों में फैले हैं. और जहां तक एयर इंडिया की बात है, वह दशकों पहले सरकारी जहर के दंश से बेजान हो चुकी थी और अब उसे उसकी पुरानी शान लौटाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ेगा.
अडाणी की जो आलोचना हो रही है उसकी बड़ी वजह मोदी सरकार से उनकी नज़दीकियां है, खासकर इसलिए कि उनके प्रमुख व्यवसायों के लिए सरकार के साथ मिलकर काम करना बेहद अहम है. अगर भारत के समुद्र तट पर बंदरगाह चलाना ऐसा व्यवसाय है जो पूरी तरह सरकार द्वारा नियंत्रित है, तो आप विदेश में बंदरगाह की परिसंपत्तियां तब तक नहीं खरीद सकते जब तक सरकार आपकी समर्थक न हो. अब सवाल यह नहीं है कि यह सही है या गलत. बहस जब दो खेमों में बंटी हो तब इसे प्रायः ‘क्रोनिज़्म’ बताया जा सकता है.
उदाहरण के लिए, कांंग्रेस कहती है कि मोदी सरकार ऐसी विदेश नीति चला रही है जिससे उसके “अपने दोस्त अडाणी को फायदा पहुंचे”. दूसरा पक्ष कह सकता है कि जब चीन अपनी ‘बेल्ट ऐंड रोड’ पहल और अकूत खजाने के साथ आक्रामक रूप से पैर फैला रहा है तब विदेश में प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए जरूरी है कि जो भी सरकार हो वह भारत के ताकतवर व्यावसायिक समूहों के साथ मिलकर काम करे.
इसी तरह हवाई अड्डों, हाइवे, रेलवे, सुरंगों, मेट्रो के साथ वे तमाम चीजें शामिल हैं जिनका भारत अब, ‘द इकोनॉमिस्ट’ के ताजा अंक के मुताबिक, निर्माण कर रहा है. इन सारे इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के लिए आपको बड़ी थैली और बड़ी बैलेंसशीट वाली कंपनियों की जरूरत पड़ेगी ही. क्या इसके लिए आप दुनिया की ‘बेकटेल’ (विशाल अमेरिकी कंपनी) जैसी कंपनियों का इंतजार करते बैठे रहेंगे, या भारत के विशाल कंपनी समूहों से यह करवाएंगे? कोई भी कंपनी सरकार के साथ मिलकर काम किए बिना यह सब नहीं कर सकेगी. इसलिए मुद्दा यह नहीं है. बहस इस पर होनी चाहिए कि ‘बेकटेलों’ समेत सबके लिए समान अवसर उपलब्ध हैं या नहीं?
यह, सरकार-कॉर्पोरेट ‘सहयोग’ (साजिश सूंघने वाले इसे मिलीभगत कह सकते हैं) मोदी सरकार के आने से ही नहीं शुरू हुआ है. अडाणी ग्रुप को कई बड़े लाइसेंस, ठेके, और पर्यावरण संबंधी मंजूरियां यूपीए सरकार के जमाने में ही दी गई थीं. वे कह सकते हैं कि यह सब उन्होंने बड़ी निष्पक्षता के साथ जरूरी पूछताछ करके और प्रतिस्पर्द्धियों को समान अवसर देकर किया. लेकिन तथ्य यह है कि विकासशील अर्थव्यवस्था में, जिसमें इन्फ्रास्ट्राकचर के लिए बड़ी मांग होती है, ऐसे कई क्षेत्र होते हैं जिनमें निजी पूंजी और सरकार को साथ मिलकर काम करना ही पड़ता है.
हमने अडाणी के मामले की विस्तार से चर्चा की है क्योंकि आज यह तमाम बहसों का मुद्दा बना हुआ है. लेकिन ये सारे कंपनी समूह अपना अधिकांश व्यवसाय भारत में, और ऐसे क्षेत्रों में कर रहे हैं जिनमें वे सरकारी छाया से बच नहीं सकते. उनकी अधिकांश कमाई घरेलू ही है. बेशक, कुछ अपवाद भी हैं, जैसे टाटा का सॉफ्टवेयर का व्यवसाय.
इसे बेहतर तरीके से समझने के लिए भारत के कमजोर पूर्वी समुद्र तट ढामरा बंदरगाह का उदाहरण ले सकते हैं. टाटा ने इसे भारी अड़चनों के बीच बनाया, खासकर पर्यावरणवादियों के विरोध के बावजूद जिनकी आवाज यूपीए में ज्यादा सुनी जाती थी. कई सवाल उठाए गए, मसलन यह कि उसे आरक्षित वन क्षेत्र को काट कर तो नहीं बनाया जा रहा जिससे ऑलिव रिडले कछुओं के प्रजनन क्षेत्र नष्ट होगा? कई मुकदमे दायर हुए.
लेकिन इसे कानूनी मंजूरी यूपीए के काल में ही दी गई. बेशक इसमें देर हुई क्योंकि पर्यावरणविद् के प्रति प्रेम के बावजूद सरकार के आला नेता इतने समझदार थे कि उन्होंने पूरब में एक और कारगर बंदरगाह की जरूरत को समझा. यूपीए ने इस पर रोक नहीं लगाई. यह और कहानी है कि टाटा ने बाद में इसे अडाणी को बेच दिया. कई लोग इस बात पर विश्वास करते होंगे कि टाटा को इसे अडाणी के हाथों बेचने के लिए जरूर मजबूर किया गया होगा, लेकिन मोटे तथ्य इस धारणा का खंडन करते हैं. यह सौदेबाजी यूपीए-2 के काल में चली और इसकी घोषणा 16 मई 2014 को की गई, जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आने शुरू ही हुए थे.
तीसरी बात यह है कि ग्लोबल ब्रांड बना पाने में इन सुपर शक्तिशाली भारतीय कॉर्पोरेटों की नाकामी वास्तव में निराशाजनक है. ब्रांडों को हम मोटे तौर पर तीन वर्गों में बांट सकते हैं—देश, कंपनी और उत्पाद के ब्रांडों में. पहले वर्ग में भारत के कुछ ब्रांड हैं, मसलन योग, आयुर्वेद, अध्यात्म आदि. इंजीनियरिंग और गणित में प्रतिभा, आइआइटी, आइआइएम, जेनरिक दवाएं. इस सूची में आप और भी जोड़ सकते हैं.
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दूसरे देशों, खासकर कारोबार जगत में कई भारतीय कंपनियां ताकतवर ब्रांड के रूप में विख्यात हैं—टाटा, रिलायंस, वेदांता. और कंपनी समूहों की कुछ कंपनियां—टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो, एचसीएल, और कुछ टेक कंपनियां.
लेकिन किसी ने ऐसा प्रोडक्ट ब्रांड नहीं दिया है जो दुनिया पर छा गया हो. भारत के पास पूरी तरह देश में बनी कार, दोपहिया, कोई सॉफ्टवेयर या ऑपरेटिंग सिस्टम, कोई परफ्यूम या पेय तक नहीं है. हम तमाम तरह के उत्पादों—मुख्यतः कृषि उत्पादों और हस्तशिल्पों— के लिए ‘जीआई’ टैग इकट्ठा कर रहे हैं, लेकिन ऐसा कोई ब्रांड नहीं है जो पूरी दुनिया की दुकानों में नज़र आता हो.
कॉर्पोरेट इंडिया कोई गारमेंट ब्रांड नहीं दे पाया है, और हमारे कारखाने जो बना और निर्यात कर रहे हैं वे अंतर्राष्ट्रीय स्टोर चेन्स के लेबेल के नाम से बिक रहे हैं. इस तरह, हमारे गारमेंट निर्माता बाहर के काम भी कर रहे हैं. पीएलआइ और दूसरी रियायतें देकर मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देकर मोदी सरकार दरअसल इसी काम का वादा कर रही है.
बेशक यह बड़ी बात है कि भारत अब निर्यात के लिए खूब मोबाइल फोन बना रहा है लेकिन कोई भारतीय नाम वाला ब्रांड नहीं है. दूसरी ओर, चीन और कोरिया वालों ने आधा दर्जन ब्रांड फैला दिए हैं जो दुनिया के बाज़ारों में छाये हैं. मोदी सरकार मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा दे रही है, यह अच्छी और जरूरी बात है लेकिन वह भारतीय मैनुफैक्चरिंग को हमारी सॉफ्टवेयर (सेवा) उद्योग वाली दिशा में ही ले जा रही है—आउटसोर्सिंग की ओर.
‘क्रोनिज़्म’ निंदनीय है, और यह अच्छी बात है कि इस पर जोरदार बहस जारी है. लेकिन इन अविश्वसनीय रूप से ताकतवर, अमीर, सफल कंपनियों के साथ-साथ सरकारी नीति की सबसे बड़ी विफलता भारत की ब्रांड विहीन आर्थिक वृद्धि है.
(संपादन शिव पाण्डेय)
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