इस सप्ताह, कॉलम का विषय चुनने के लिए मैंने गूगल पर ‘मौत और पत्रकारिता ’ (डेथ एंड जर्नलिज्म) शीर्षक से सर्च किया. मजे की बात यह है कि इसमें शुरू की 20 में से 19 इंट्री पत्रकारिता ‘की’ मौत के बारे में थीं. मैं अपने स्वार्थवश यह भी बता दूं कि इनमें से दो इंट्री यह कह रही थी कि यह कहना गलत है कि पत्रकारिता की मौत हो चुकी है. यह कहने के लिए शुक्रिया.
वैसे, यह बता दूं कि मेरी सर्च इस बारे में थी कि पत्रकारिता मौतों की खबर किस तरह देती है या कहें कि बड़ी संख्या में लोगों की मौत के प्रति क्या रुख रखती है. ‘पॉयंटर वेबसाइट’ पर मुझे एक लेख मिला, जो मौतों के बारे में खबर दे रहे पत्रकारों के लिए उपयोगी मानक निर्देशिका का काम कर सकता है. लेकिन इस सप्ताह मैं जिस कुछ अप्रिय किस्म के विषय से उलझ रहा हूं उसमें अपनी सर्च के शुरू में इस तरह के दांव की उम्मीद नहीं कर रहा था. बेशक मुझे इस विषय पर लिखने का विचार ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ की उस रिपोर्ट से सूझा जिसमें भारत में खास तौर से कोविड की दूसरी लहर के कारण हुई मौतों के वास्तविक आंकड़े का अनुमान लगाया गया है.
यह आंकड़ों की पत्रकारिता (डेटा जर्नलिज्म) का शानदार नमूना है. ग्राफिक्स उम्दा हैं, विवरण सारगर्भित और संक्षिप्त हैं, स्रोत बताने, श्रेय देने की शैली शानदार है. और ऐसा केवल इस एक खबर के मामले में नहीं है. भारत में हुई मौतों का वास्तविक आंकड़ा क्या है, इस पर ग्लोबल मीडिया, थिंक टैंक समूहों और सोशल मीडिया पर असर डालने वालों में काफी चर्चा हुई है.
यह भी सच है कि भारत में कोविड के कारण हुई मौतों के आंकड़े कम बताए गए हैं. ऐसा हर जगह हुआ है. लेकिन हमारी स्थानीय पालिकाओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का जो हाल है, उसके कारण यही उम्मीद की जाती है कि भारत में आंकड़े अमेरिका की तुलना में काफी कम होंगे और ऐसा लगता है कि वे एक तिहाई कम करके बताए गए होंगे.
अब तक के अनुमान के मुताबिक अमेरिका में नौ लाख मौतें हुई हैं (सरकारी आंकड़ा छह लाख है). डॉ. एंथनी फाउची ने इसका हाल में ही खंडन किया है. उन्होंने प्रतिमान के विज्ञान की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनिया भर में हुई कुल मौतों की संख्या का जो अनुमान लगाया है वह सभी देशों में हुईं मौतों के सरकारी आंकड़ों के कुल योग के दोगुने से थोड़ा ही कम है. लेकिन कोई बात नहीं. अमेरिका और दुनिया भर में हम आंकड़ों में 50 से 100 फीसदी तक की कमी का अनुमान लगा रहे हैं.
‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ कि रिपोर्ट ने 24 मई तक के आंकड़ों में कमी का जो अनुमान लगाया है उसके लिए तीन संभावनाएं बताई हैं. सरकारी आंकड़ो के मुताबिक भारत में तब तक कोविड के 2.69 करोड़ मामले हुए और 3.7 लाख मौतें हुईं. लेकिन रिपोर्ट में जो अनुमान लगाया है, वो दुनिया भर के बारे में डब्ल्यूएचओ की गणनाओं के करीब है. इसके मुताबिक कोविड के मामले 40.42 करोड़ हुए और मौतें करीब 6.0 लाख हुईं. यानी दर्ज किए गए हरेक मामले में 15 मामले छूट गए और मृत्यु दर 0.15 प्रतिशत थी. इस हिसाब से मौतों का आंकड़ा सरकारी आंकड़े से दोगुना है.
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दूसरी संभावना ‘ज्यादा करीबी’ लगती है. इसके अनुमान के मुताबिक 53.9 करोड़ लोग संक्रमित हुए यानि एक पॉज़िटिव मामला दर्ज हुआ तो 20 मामले छूट गए. छूट गए मामलों का औसत 15 से बढ़कर 20 हो गया, तो संक्रमण मृत्यु दर (आईएफआर) 0.15 प्रतिशत से बढ़कर 0.30 प्रतिशत हो गई. इस तरह, मौतों की संख्या 16 लाख पर पहुंच जाती है, यानि भारत के सरकारी आंकड़े से पांच गुना ज्यादा.
और अंत में हम हेडलाइनों पर आते हैं. ‘बदतर’ हालात! ध्यान रहे, अभी ‘बद से बदतर’ हालात का अनुमान नहीं लगाया गया है. या हो सकता है कि इसके बारे में लिखने या पढ़ने के लिए मैं या आप ही न जिंदा रहें. इसमें यह मान कर चला जा रहा है कि टेस्ट किए गए हरेक मामले पर औसतन 26 मामले छूट गए. और मृत्यु दर 0.6 प्रतिशत हो गई. तब कुल मौतों का आंकड़ा 42 लाख हो जाता है, भारत में जो दर्ज किया गया है उसका 14 गुना. अब, बात करें पहली और तीसरी संभावना के बीच छूट गए मामलों की जिनकी संख्या 15 से 26 पर पहुंच गई. लेकिन मृत्यु दर के डिनोमिनेटर में चार गुना वृद्धि हो गई, वह 0.15 से 0.60 पर पहुंच गया. यह कैसे हो गया, यह साफ नहीं है.
कुछ गणितीय/सांख्यिकीय कारण हैं. पहले किए गए भारतीय सीरो सर्वेक्षणों के आधार पर कुछ सांख्यिकीय अनुमान लगाए गए हैं. इनमें से अंतिम सर्वे 8 जनवरी तक की अवधि का था. भारत के कम-से-कम एक सरकारी डेटा प्वाइंट को विश्वसनीय माना गया. और सीधे दोगुना और चौगुना कर लेना गणना के झंझट से तो मुक्ति देता ही है.
किसी भी संख्या पर सवाल उठाने का हमारे पास कोई आधार नहीं है. हम तो केवल यह जानना चाहते हैं कि इन आंकड़ों के आधार क्या हैं. अगर ये इस रिपोर्ट में महामारी विशेषज्ञों और गणित ‘मॉडलरों’ की क्रिकेट टीम जितनी बड़ी टीम ने दिए हैं, तो यह देखना बेहतर होगा कि 2020 की पहली लहर में हरेक ‘मॉडल’ ने क्या अनुमान लगाया था. या शायद वे गलत साल में अपने सुपरकंप्यूटर से जुड़े थे.
भारत सरकार ने इन आंकड़ों का खंडन नीति आयोग के सदस्य और शीर्ष नियोनेटोलॉजिस्ट वी.के. पॉल के जरिए करवाया. संक्रमितों की संख्या के बारे में उनके अनुमान में जो चीज छूट गई वह है ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ द्वारा बताए गए ‘बदतर’ हालात का जायजा. उनके आंकड़ों पर दिप्रिंट की हेल्थ एडिटर अबंतिका घोष की विस्तृत रिपोर्ट को भी पढ़ें. भारत में कोविड की पहली लहर पर उनकी किताब ‘बिलियन्स अंडर लॉकडाउन’ (ब्लूम्सबरी, 2021) भी आपको पढ़नी चाहिए.
अगर आप संक्रमण के दर्ज न किए गए मामलों के लिए भारत सरकार के डिनोमिनेटर का इस्तेमाल करेंगे तो अनुमानित आंकड़ा 63 करोड़ हो जाएगा. यह आश्चर्यजनक रूप से ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ द्वारा बताए गए ‘बदतर’ हालात के आंकड़े 70 करोड़ के करीब है. इनमें अंतर वह आधार है जिस पर मौतों के आंकड़ें हासिल किए गए हैं. डॉ. पॉल कहते हैं कि संक्रमण से मृत्यु की दर 0.05 प्रतिशत है. ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ 0.6 प्रतिशत के आंकड़े का इस्तेमाल करता है और इससे तुरंत वह अविवादित हेडलाइन बनता है, जो 12 गुना ज्यादा का आंकड़ा बताता है. 3 लाख और 42 लाख मौतों में अंतर को यह बताता है.
पॉल उलटी तरफ से गिनती करते हैं: मौतों का मेरा यह आंकड़ा है (3 लाख, प्रतिदिन 4,000 की दर से बढ़ रहा है) और संक्रमितों का मेरा आंकड़ा यह रहा, एक से दूसरे को भाग दीजिए. वे यह नहीं बताते कि उनके आंकड़े कहां से मिले और उलटकर देखें तो हरेक पॉज़िटिव मामले पर 23 मामले दर्ज नहीं किए गए. गौरतलब है कि 8 जनवरी के बाद कोई सीरो सर्वे नहीं किया गया. इसलिए यह कहना उचित होगा कि भारत सरकार के दावे के पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है. लेकिन मुझे दूसरे आंकड़ों में भी कोई वैज्ञानिक आधार नहीं नज़र आता, जिसमें ‘आईएफआर’ में 12 गुना वृद्धि बताई गई है.
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मृत्यु एक गंभीर मामला है, खासकर उनके लिए जो जीवित हैं. हरेक मौत से परिवार, दोस्त, साथी, काम अधूरे छूट जाते हैं. यह यातनादायी है. इसलिए हम पत्रकारों को मौतों और उनकी संख्या के बारे में बड़े संवेदनशील तरीके से बात करनी चाहिए.
आज़ादी के बाद पिछले तीन महीने बहुत ही गंभीर राष्ट्रीय त्रासदी, शासन की अक्षमता और राष्ट्रीय शर्म के रहे. अंतिम संस्कार के लिए शवों की कतारों, श्मशानों में लकड़ी और कब्रिस्तानों में जगह की कमी, सड़कों पर ऑक्सीजन के लिए तड़पते मरीजों, नदियों में बहते शवों, नदी के तटों पर बिखरे शवों की तस्वीरें इस पीढ़ी के मन पर हमेशा के लिए उसी तरह दर्ज हो गई हैं जिस तरह बंटवारे के दौरान जनसंहार और सामूहिक बलात्कारों की तस्वीरें उनके माता-पिता के मन पर दर्ज हो गई थीं. दुनिया भर के प्रेस के साथ भारतीय मीडिया ने भी इस त्रासदी का विस्तृत, सजीव और सटीक विवरण दिया, बशर्ते आप प्राइम टाइम पर गलत टीवी चैनल न देख रहे हों.
दिप्रिंट के रिपोर्टरों, कैमरामैन्स ने भी इन सब पर लिखा और इनकी तस्वीरें और वीडियो जारी किए. उन सबके शानदार काम की आभा में खुद को शामिल करते हुए मैं यही कहूंगा कि देश की जो क्रूर सच्चाई है उसे आप तक पहुंचाने में वे किस भी समाचार संगठन से पीछे नहीं रहे. और वे सक्रिय हैं. साहसी और तेज ‘दैनिक भास्कर’ ने गंगा में बहते या उसके किनारे पड़े शवों के बारे में खबर देने के लिए अपने सैकड़ों रिपोर्टरों को लगा दिया. क्या उनकी रिपोर्टों से ऐसा लगता है कि आंकड़े कम करके बताए गए? हां. क्या सरकारी आंकड़े बहुत कम हैं? हां. कितने कम हैं? क्या लाखों मौतें गुमनाम रहीं? जमीन पर काम कर रहे इन तेज रिपोर्टरों के पास वह डिग्री नहीं होगी, जो ‘मॉडलरों‘ के पास होती है. लेकिन वे देख सकते हैं और जो सामने दिख रहा है उसे गिन सकते हैं, न कि कल्पना के आधार पर लिखते हैं.
अगले साल तक हमें आंकड़े मिल ही जाएंगे. कोविड से हुई मौतों की संख्या निश्चित ही कम बताई गई है. लेकिन कुल मौतों की संख्या के बारे में इतने बड़े पैमाने पर चूक? यहां मैं हमारी रिपोर्टर अनीशा बेदी का शुक्रिया अदा करते हुए 2020 के कुछ आंकड़े दे रहा हूं. मुंबई और दिल्ली में जन्म और मृत्यु का लगभग 100 प्रतिशत रजिस्ट्रेशन होता है. 2020 में मुंबई में कुल 1,11,942 मौतें हुईं, 2019 में 91,223 हुई थीं. शहर में कोविड से 11,116 मौतें दर्ज की गई थीं. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि बाकी जो करीब 10,000 ज्यादा मौतें हुईं वे कोविड के कारण हुई होंगी जो दर्ज नहीं हो पाईं.
दिल्ली का मामला ज्यादा रहस्यपूर्ण है. इसकी सभी चारों पालिकाओं में 2020 में कुल 1,42,693 मौतें हुईं जो 2019 में हुईं 1,49, 998 मौतों से काफी कम थीं, जबकि कोविड से 10,557 मौतें दर्ज की गईं. मुझे बताया गया कि दिल्ली में सड़क हादसों, हत्याओं, नशे में ड्राइव करने आदि जैसे कारणों से मौतें लॉकडाउन के कारण लगभग कम हो गईं. ऐसी ही दो और कहानियां हैं. एक दिप्रिंट की तेनजिन जोंपा और दूसरी द इंडियन एक्सप्रेस के आनंद मोहन जे की, जिन्होंने दिल्ली के बड़े श्मशानों और कब्रिस्तानों से डेटा इकट्ठा किया. इसमें मौत न दर्ज करने की दर 40 प्रतिशत बताई गई, जो शर्मनाक है लेकिन 4,000 प्रतिशत नहीं बताई गई है.
तथ्य यह है कि पिछले साल के मौतों के आंकड़े दर्ज संख्या से दोगुने नहीं हो सकते. ऐसे में, उन महामारी विशेषज्ञों के आंकड़ों पर गौर कीजिए जिन्होंने सितंबर 2020 तक 25 लाख भारतीयों के मारे जाने का अंदाजा लगाया था. इसके बाद 2021 के लिए उनके अनुमानों के आधार पर नये ‘बदतर’ हालात के बारे में विचार कीजिए.
इसलिए हम कहते हैं कि जिंदा बचे लोगों के लिए मौत एक गंभीर मामला है. पिछले दो महीने में कई भारतीय मौत के शिकार हुए, जिनमें से अधिकतर को बचाया जा सकता था. लेकिन पिछले साल अगर केवल 2 लाख मारे, तो क्या इन सात सप्ताहों में 40 लाख लोग मारे? यह तो बंटवारे के बाद दो वर्षों में मौत के घाट उतारे गए लोगों की संख्या से दोगुनी संख्या है.
मैं जानता हूं कि इस तरह के तर्क देकर मैं अपनी गरदन और पीठ फंसा रहा हूं. प्रसिद्ध लेखक अमिताव कुमार ने एक सोशल मीडिया पोस्ट पर मुझसे सवाल किया कि इस अप्रैल में इतना कुछ घटा है तो क्या मेरे मुंह में राख का स्वाद नहीं आता, जबकि मैंने लिखा था कि अप्रैल 2020 में ऐसा कुछ नहीं घटा?
अपने इतने सारे साथी-संगियों को खोने के बाद मेरे मुंह में राख का स्वाद बेशक आता है क्योंकि उन्हें सम्मानजनक अंतिम विदाई नहीं मिली, क्योंकि प्रायः उन्होंने ऑक्सीजन, अस्पताल में बिस्तर और दवा न मिलने के कारण दम तोड़ दिया. मेरे मुंह में राख का स्वाद है क्योंकि मेरी सरकार ने कोविड की दूसरी लहर का कितनी अक्षमता से मुकाबला किया. मेरे मुंह में राख का स्वाद है क्योंकि अप्रैल 2021 में इतना कुछ गलत घटा. लेकिन मेरे मुंह में राख का स्वाद नहीं है क्योंकि अप्रैल 2020 के बारे में मैंने बिलकुल सही लिखा था. आप इसके बारे में इस कॉलम में फिर पढ़ सकते हैं.
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