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Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टराम ने जो मौका दिया था, कांग्रेस ने उसे गंवा दिया; देश के मूड को नज़रअंदाज़ करके इसने पुराने भ्रम को चुना

राम ने जो मौका दिया था, कांग्रेस ने उसे गंवा दिया; देश के मूड को नज़रअंदाज़ करके इसने पुराने भ्रम को चुना

मंदिर के समारोह में भाग लेने से कांग्रेस के इनकार से सवाल खड़े होते हैं कि 1996 के बाद से उसकी विचारधारा में आया ठहराव क्या आज की चुनावी राजनीति के अनुकूल है? बेहतर होता कि वह हिंदू समुदाय के साथ समारोह में शामिल होती और इस मसले का राजनीतिकरण करने के लिए मोदी-भाजपा-आरएसएस की आलोचना भी करती.

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ऐसा लगता है कि पिछले चार दशकों से कांग्रेस पार्टी किसी प्रेत-बाधा की शिकार हो गई है जिसने उसे लोकसभा में 414 सीटों से 52 सीटों पर पहुंचा दिया है. वैसे, 2014 में तो वह इससे और नीचे 44 सीटों पर पहुंच गई थी. राम मंदिर के निर्माण ने उसे मानो भगवान राम की ओर से एक मौका दिया था कि वह इस स्थिति से उबर सके, लेकिन उसने इस मौके को गंवा दिया. उसके लिए यह प्रेत-बाधा उसकी यह वैचारिक उलझन है कि वह आज धर्मनिरपेक्षता को किस तरह परिभाषित करे.

मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने से उसके इनकार से स्वाभाविक रूप से कुछ सवाल खड़े होते हैं. एक सवाल तो यह है कि 1996 के बाद से उसकी विचारधारा में आया ठहराव क्या आज की चुनावी राजनीति की मांगों के अनुकूल है? उसने मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया और अब मंदिर के उद्घाटन समारोह में शरीक होने से मना कर दिया. यह जो विरोधाभास है उसकी वह किस तरह व्याख्या करेगी, क्योंकि इस आयोजन का करोड़ों हिंदू स्वागत करेंगे और उनमें कई तो उसके प्रतिबद्ध मतदाता भी होंगे? वह अपने हिंदू, मुस्लिम और धर्मनिरपेक्षतावादी मतदाताओं को क्या कहेगी?

हिंदू मतदाता उसे एक ऐसे हताश, पराजित पक्ष के रूप में देखेंगे, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करने से लेकर ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की अपनी पुरानी नीति के बीच झूलता रहता है. मुसलमानों को मालूम है कि आप मस्जिद को बचाने में नाकाम रहे, मंदिर पर अदालत के फैसले का आपने स्वागत किया और अब मंदिर के समारोह में भाग न लेकर उनका समर्थन हासिल करना चाहते हैं.

कट्टर धर्मनिरपेक्षतावादियों की नज़र में आप उस दिन ही नाकाम साबित हुए जब आपने मंदिर-मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्वागत किया. इस तरह, तीनों तरह के मतदाता आपको पाखंडी मान सकते हैं.

इस पेंच को बारीकी से सुलझाने के लिए पार्टी को दशकों तक समय मिला. उसकी सबसे बड़ी विफलता यह रही है कि उसके अंदर चलने वाला विमर्श (अगर ऐसा कुछ होता हो) डगमग रहा है. इन बीते दशकों में वह उस बदकिस्मत कबूतर की तरह आंखें मूंदे बैठी रही, जो यह सोचता है कि बिल्ली उसे नहीं देखेगी.

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शिकार किए जाने का आंखें बंद कर इंतज़ार करता कबूतर? यह एक क्रूर उपमा है, लेकिन दुर्भाग्य से यह इस आत्म-संतुष्ट पार्टी के लिए इतनी सटीक है कि 2014 में आई आपदा के बाद भी उसे यह एहसास नहीं हुआ कि अगर उसने अपना बुनियादी वैचारिक रुख दुरुस्त नहीं किया तो उसका वजूद ही खतरे में पड़ जाएगा.

तब तक उसे समझ में आ जाना चाहिए था कि मोदी-शाह की भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर के चुनावी मुकाबले को इन तीन स्पष्ट मुद्दों के इर्द-गिर्द केंद्रित कर दिया है — संस्कृति (धर्म), पहचान (राष्ट्रवाद), और सुरक्षा. इनमें से हरेक मुद्दे पर कांग्रेस अचेत नज़र आई, दूसरे पक्ष की ओर से पहल का इंतज़ार करती रही. किसी ताकतवर सरकार को उसके खिलाफ केवल प्रतिक्रियाएं करके और बिना कोई वैकल्पिक नज़रिया पेश किए हराया नहीं जा सकता.

यह वैकल्पिक नज़रिया उपरोक्त तीन प्रमुख मुद्दों के बारे में होना चाहिए. यह हर महीने 6,000 रुपये की सहायता, मुफ्त बिजली, मुफ्त ये और मुफ्त वो के रूप में नहीं हो सकती. आप उन मुद्दों पर मुकाबला नहीं कर सकते जो सीधे लोगों के दिलों को छूते हैं और जो पूरी तरह लेन-देन वाले मुद्दे हैं. मतदाता पूछेंगे : मेरे भगवान, मेरे राष्ट्रीय गौरव या मेरे परिवार की सुरक्षा का कितना सही मोल लगाया जा सकता है?


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सच यह है कि इनमें से हरेक मुद्दे पर कांग्रेस का रेकॉर्ड शून्य नहीं रहा है. बात बस इतनी-सी है कि वह इसके बारे में बात करने को राजी नहीं है.

अयोध्या में ‘मंदिर’ का ताला कांग्रेस शासन के दौरान ही खोला गया और वहां पूजा-अर्चना शुरू हुई, उसके शिलान्यास का अनुष्ठान संभव हो सका. 1989 में राजीव गांधी ने चुनाव अभियान अयोध्या से ही शुरू किया था और वह भी ‘रामराज्य’ लाने के वादे के साथ.

इसे गलत कदम मानते हुए उन्होंने अगर इसे सही करने के लिए शाह-बानो मामले में अदालत के फैसले को रद्द करने वाला कानून लाने और सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘द सटैनिक वर्सेस’ पर प्रतिबंध लगाने (जिन्हें हिंदुओं ने मुस्लिम तुष्टीकरण के रूप में देखा) जैसे कुछ अतिवादी कदम उठाए तो यह यही उजागर करता है कि वैचारिक विरोधाभास इस पार्टी का पुराना रोग है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी, दोनों में इस मुद्दे पर अपनी-अपनी तरह से काफी स्पष्टता थी.

ऐसा भी माना जाता है कि नेहरू नास्तिक थे. इसलिए वे अपने समय में धर्म की राजनीति से दूर रह सकते थे. यही नहीं, वे पार्टी के अंदर दक्षिणपंथी झुकाव वाले हिंदू राष्ट्रवादी दिग्गजों को कायदे से दरकिनार भी कर सकते थे. इसके विपरीत, इंदिरा गांधी अपनी हिंदू छवि को गले में रुद्राक्ष माला के रूप में लटकाए रहती थीं. वे हिंदुओं को कभी जनसंघ (भाजपा के मूल) के पाले में जाने नहीं दे सकती थीं. इसलिए वे उसे कभी हिंदू पार्टी कहकर उस पर हमला नहीं करती थीं, उसे बस ‘बनियों की पार्टी’ कहा करती थीं और सावरकर को “वीर”. उन्हें यह भी पता था कि उनके मुस्लिम वोटों पर कोई उन्हें चुनौती देने वाला नहीं है. उलझन उनके जाने के बाद शुरू हुई.

आज मोदी के पक्ष में वास्तव में एक बात यह जा रही है — जो हाल में हुए विधानसभा चुनावों में भी स्पष्ट हुई — कि वे दुनिया में भारत की छवि को चमका रहे हैं, लेकिन इस मामले में कांग्रेस का रिकॉर्ड नेहरू, इंदिरा या राजीव के राज में भी बुरा नहीं रहा. कांग्रेस इन बातों को क्यों नहीं उठाती, यह एक पहेली ही है. शायद वह उन दो प्रधानमंत्रियों के बारे में भी बात नहीं करना चाहती, जो इनके बाद गद्दी पर बैठे और जो गांधी परिवार से नहीं थे.

मोदी की व्यक्ति पूजा, चापलूसी की संस्कृति का मज़ाक उड़ाना तो आसान है, लेकिन मतदाता यह सवाल कर सकते हैं कि अगर इसके बावजूद हमारे देश का नाम ऊंचा हो रहा है तो इससे क्या समस्या है? क्या आपके पास ऐसा कोई विकल्प है जो बेहतर काम कर सके? मतदाताओं को विकल्प चाहिए, नये विचार चाहिए.

राष्ट्रीय सुरक्षा, खासकर आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर मोदी का रिकॉर्ड काफी अच्छा है. उनके उत्कर्ष के बाद से जम्मू-कश्मीर को छोड़ (सिवा पठानकोट हवाई अड्डे के) और कहीं कोई उल्लेखनीय आतंकवादी हमला नहीं हुआ है. भाजपा-शासित राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति में निश्चित सुधार हुआ है, जिसका पुरस्कार मतदाताओं ने उसे दिया भी है.

लेकिन कांग्रसे तो यह तक बताने को राजी नहीं है कि उसकी सरकारों ने आंतरिक सुरक्षा को दी गई चुनौतियों का कितनी सख्ती से बल्कि क्रूरता से जवाब दिया था. कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती पी.वी. नरसिंहराव की तारीफ करने में पेश आती है, जिन्हें प्रधानमंत्री के रूप में विरासत में कश्मीर और पंजाब के सिख अलगावाद की समस्याएं मिली थीं जो तब अपने चरम थीं और राव ने 1991-93 के बीच इन्हें कुचल डाला था. कांग्रेस तो असम, मिज़ोरम में राजीव गांधी की कामयाबियों की, या संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ किए गए समझौते के रूप में पंजाब मसले के लगभग समाधान के बारे में भी ठीक से बात नहीं करती. अब सवाल उठ सकता है कि ये लोंगोवाल कौन थे? अगर आप कांग्रेस के मतदाता या शुभचिंतक हैं तो गूगल में इसका जवाब ढूंढ सकते हैं. आपकी पार्टी के नेता तो यह बताने से रहे.

मैं कभी यह नहीं समझ पाया कि वे राव और मनमोहन सिंह को जितनी आसानी से भुला देते हैं उतनी आसानी से राजीव के दौर को भी क्यों भुला देते हैं. या वे हमेशा यही कहते पाए जाएंगे कि इन सरकारों के दौरान राष्ट्रीय आर्थिक वृद्धि के आंकड़े पिछले नौ वर्षों के इन आंकड़ों से किस तरह ऊंचे थे.

ज़ाहिर है, कांग्रेस कई तरह के विरोधाभासों से ग्रस्त है. अतीत के किन नेताओं को वह मिसाल के रूप में पेश करना चाहती है और किन्हें छोटा दिखाना चाहती है? कश्मीर और अनुच्छेद 370 के मसलों पर उसका क्या रुख है? वह बदलावों को कबूल करती है, या सत्ता में आने पर उन्हें उलट देगी?

ये सब अहम सवाल हैं, लेकिन आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि मंदिर और उसके कारण भगवान राम के मामले में उसका क्या रुख है. क्या यह बेहतर न होता कि वह विशाल हिंदू समुदाय के साथ मंदिर के समारोह में शामिल होती और इसके साथ ही इस मसले का राजनीतिकरण करने के लिए मोदी-भाजपा-आरएसएस की आलोचना भी करती? यह बिलकुल सटीक विकल्प तो नहीं होता मगर हरेक शादी पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले चिड़चिड़े, मोटी चमड़ी वाले ताऊ की तरह जैसे दिखने से तो कहीं बेहतर ही होता.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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