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Friday, 3 May, 2024
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2024 के चुनाव में उत्तर बनाम दक्षिण का मुक़ाबला नहीं होने वाला, BJP की सीमाएं और गणित को समझें

यह कहना एक आलसी सरलीकरण होगा कि भारतीय राजनीति भाजपा-प्रेमी उत्तर भारत, और भाजपा- विरोधी दक्षिण में बंट चुकी है. 2024 का मुक़ाबला भाजपाई ‘हार्टलैंड’ बनाम परिधि वाले राज्यों का होगा.

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चार विधानसभाओं के चुनाव नतीजे आने के बाद हमारे राजनीतिक विमर्श में उत्तर बनाम दक्षिण का एक नया पहेलीनुमा स्वर उभर आया है. इसके पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं वे यकीनी लग सकते हैं. कहा जा रहा है कि भाजपा उत्तर भारत पर तो राज कर रही है लेकिन दक्षिण उसे खारिज कर रहा है इसलिए भारतीय राजनीति विंध्य पर्वत के इधर-उधर सीधे दो भागों में बंट गई है.

मैंने ‘पहेलीनुमा’ शब्द का प्रयोग नरमी बरतने के लिए किया है जबकि सरलीकरण करने वाले आलसी सैद्धांतिक विश्लेषण के लिए ज्यादा सख्त शब्द का प्रयोग किया जा सकता था.

सबसे पहली बात तो यह है कि भाजपा के वर्चस्व को केवल दक्षिण में चुनौती नहीं मिल रही है. भारत के राजनीतिक नक्शे पर नजर डालते ही पता लग जाता है कि भाजपा केवल उत्तर-केंद्रित पार्टी नहीं है, बल्कि वह अपने ही प्रिय क्षेत्र (हार्टलैंड) की पार्टी है. अगर पूरे दक्षिण भारत में वह कहीं भी सत्ता में नहीं है, तो पूर्वी तटीय क्षेत्र में भी वह हाशिये पर ही है. इसमें पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और दक्षिण का तमिलनाडु भी शामिल हैं.

पश्चिमी तटीय राज्यों पर नजर डालिए तो भाजपा इस क्षेत्र में केवल गुजरात और छोटे-से गोवा में सत्ता में है. महाराष्ट्र में वह गठबंधन करके सत्ता मैं है और उसे मुख्यमंत्री की कुर्सी सहयोगी दल को सौंपनी पड़ी है. इस पश्चिमी तटीय क्षेत्र के बाकी राज्य, कर्नाटक और केरल विपक्ष के कब्जे में हैं.

यह सब जान लेने के बाद क्या अब भी इसे उत्तर-दक्षिण विभाजन कहेंगे? इसके विपरीत यह परिधि वाले और तटीय क्षेत्रों के राज्यों में पहुंच न बना पाने की भाजपा की बड़ी कमजोरी को उजागर करता है, जबकि वह अपने राजनीतिक ‘हार्टलैंड’ में पर्याप्त लोकसभा सीटें जीत लेती है. अगर हम आलसी सरलीकरण के उत्तर-दक्षिण विभाजन वाले तर्क को ही मान लें, तो उत्तर-पूर्व को कहां रखेंगे?

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महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भाजपा ताकतवर और सर्व विजेता भले दिखती हो, वह उस अखिल भारतीय विस्तार और प्रमुखता की बराबरी करने से कोसों दूर है, जो विस्तार व प्रमुखता कांग्रेस को इंदिरा गांधी के दौर में हासिल थी. 1984 में राजीव गांधी ने 414 लोकसभा सीटों का जो ‘स्कोर’ बनाया था उसे हम अपवाद ही मान कर चलते हैं.

1971 के बाद से इंदिरा के ‘सामान्य’ दौर में कांग्रेस को पूरे देश में सीटें मिलती थीं और वह आम तौर पर 350 के आंकड़े के इर्द-गिर्द रहती थी. भाजपा ने 2019 में हिंदी प्रदेशों के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में भी विपक्ष का सफाया करके अब तक की सबसे अधिक 303 सीटें हासिल की. इसके चुनाव प्रचारकों के बड़े दावों को छोड़ अगर हम भारत के राजनीतिक नक्शे पर फिर से नजर डालें तो साफ हो जाएगा कि 350 के आंकड़े को छूने के लिए उसे कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.


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क्या अब हम यह भी कहेंगे कि उत्तर-दक्षिण विभाजन के साथ-साथ एक उत्तर-पूर्व विभाजन भी है? या क्या हम यह कहेंगे कि जिस भी राज्य में हिंदी प्रमुख भाषा है और जहां भाजपा सबसे आगे है, तो वह राज्य जरूर उत्तर भारतीय राज्य है? क्या मध्य प्रदेश उत्तर भारतीय राज्य है? बिहार को ऐसा कह सकते हैं क्योंकि उसकी उत्तरी सीमा नेपाल को छूती है. लेकिन छत्तीसगढ़? झारखंड? ये तो मध्यवर्ती या पूर्वी-मध्यवर्ती राज्य हैं. असली बात यह है कि भारतीय राजनीति को क्षेत्रीय या भौगोलिक आधारों पर विश्लेषित नहीं किया जा सकता.

जब हम उत्तर-दक्षिण विभाजन के विचार पर तथ्यों के आधार पर सवाल उठाते हैं तब हमें इस विचार के मुख्य मुद्दे की भी जांच करनी चाहिए. फिलहाल, मानो यह कहा जा रहा है कि कम आधुनिक, कम शिक्षित, कम प्रगतिशील, और इसलिए अधिक कट्टरपंथी उत्तर भारत नरेंद्र मोदी की भाजपा को बिना कोई सवाल उठाए वोट देता है, जबकि दक्षिण भारत इसके विपरीत अधिक समझदार और सम्मानजनक है. यह भी कहा जा रहा है कि दक्षिण के पास इतने आंकड़े नहीं हैं कि वह भारत को मोदी से बचा सके. इसके अलावा, भविष्य में जब नयी तरह से, संभवतः अगली जनगणना के बाद, परिसीमन किया जाएगा तब ‘सभ्य’ दक्षिण और ज्यादा हाशिये पर चला जाएगा.

इस तरह के सरलीकरण खतरनाक हैं. हमने दिखा दिया है कि भौगोलिक रूप से भाजपा के लिए चुनौती वास्तव में उत्तर-बनाम-दक्षिण वाली नहीं है बल्कि ‘हार्टलैंड’-बनाम-परिधि वाली है. यह पार्टी केंद्र (मध्य प्रदेश इसका सबसे मजबूत गढ़ रहा है) से चारों ओर फैल रही है लेकिन कई तटवर्ती राज्यों, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में नहीं जम पाई है.

इसके अलावा, अगर आप गुणात्मक पहलू को देखें तो आप 1977 के चुनाव नतीजों की क्या व्याख्या करेंगे? और, जिसे आज ‘उत्तर भारत’ या हिंदी पट्टी कहा जाता है उसने इंदिरा गांधी की कांग्रेस को इमरजेंसी की ज़्यादतियों के लिए जिस तरह खारिज कर दिया था, तो उसके बारे में क्या कहेंगे? दक्षिण के राज्यों ने इसके बिलकुल उलट फैसला सुनाया था.

कांग्रेस ने दक्षिणी राज्यों की कुल 154 लोकसभा सीटों में से ज़्यादातर जीत ली थी. भाजपा आज जिन राज्यों (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तब के अविभाजित बिहार, राजस्थान, और हरियाणा) में भारी बहुमत में है उनमें कांग्रेस कुल मिलाकर सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी. इंदिरा गांधी और संजय गांधी, दोनों अपनी-अपनी सीटों (राय बरेली और अमेठी) से हार गए थे.

उन चुनाव परिणामों और 2019 वाली स्थिति में बहुत अंतर नहीं था. तो क्या हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि 1977 में उत्तर भारत राजनीतिक रूप से ज्यादा होशियार और सजग था, जबकि दक्षिण आंख मूंदकर इंदिरा गांधी के पीछे चल रहा था? या क्या उत्तर को नागरिक स्वाधीनताओं की ज्यादा चिंता थी और उसने इमरजेंसी को खारिज कर दिया था जबकि दक्षिण अनुदार और संवेदनहीन था? मुझे पता है कि यह सब कहना अच्छा नहीं लगता है, ठीक उसी तरह कि आज यह कहा जा रहा है कि ‘दक्षिण भारत ज्यादा समझदार है क्योंकि उसने कट्टरपंथी भाजपा को वोट नहीं दिया’.

कड़वी राजनीतिक सच्चाई यह है कि भाजपा के आलोचक जब हताशा में उत्तर-दक्षिण विभाजन की बात करते हैं तब वे खुद को ही नीचा दिखाते हैं. हमारा विश्लेषण यही दिखाता है कि भारत का वर्तमान राजनीतिक भूगोल भाजपा की ताकत को भी दर्शाता है और उसकी कमजोरियों को भी.

उसे चुनौती देने वाले जब स्थिति को इस तरह से देखेंगे तो तस्वीर इतनी निराशाजनक नहीं नजर आएगी. इसे भाजपा से ज्यादा दूसरा कोई नहीं समझता है. अति आत्मविश्वास की जगह ठोस हकीकत की पहचान ही इस पार्टी को जीत दिलाती रही है.

भाजपा, विपक्ष का सफाया करने वाली जीत हासिल करके अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को मानसिक रूप से भी शिकस्त तो दे रही है मगर उसकी भौगोलिक सीमाएं भी उजागर हैं. अपने लिए प्रमुख राज्यों में वह सर्वोच्च स्तर को छू चुकी है. इन राज्यों में लोकसभा चुनावों में उसकी जीत के अंतरों के मद्देनजर उसके वर्चस्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है.

उदाहरण के लिए 2019 में, 224 सीटों पर उसने 50 फीसदी से ऊपर वोट हासिल किए, जो कि ‘सबसे आगे वाला ही विजेता’ वाली व्यवस्था में मारक आंकड़ा है. इनमें से अधिकतर सीटें उन राज्यों में थीं जिन्हें भाजपा का ‘हार्टलैंड’ कहा जा सकता है (उनमें कर्नाटक की 22 सीटें भी हैं). जहां तक उसकी अजेयता की बात है, तो देश के बाकी हिस्से की 319 सीटों में से वह केवल 79 ही जीत पाई और उसका कुल आंकड़ा 303 पर पहुंचा. यह बहुमत के लिए जरूरी 272 के आंकड़े से केवल 31 ज्यादा है.

भाजपा का ‘थिंक टैंक’ इस हकीकत को समझता है और इसको लेकर चिंतित भी है. जिन सीटों पर उसने 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए उन पर वह 60, 70 या 100 फीसदी वोट भी हासिल कर ले तो उसका आंकड़ा केवल 224 पर ही पहुंचेगा. इसके लिए भाजपा को महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना में वे सभी सीटें जीतनी होंगी जो उसने पहले जीती थी. ये ही वे राज्य हैं जहां से उसने 303 के आंकड़े तक पहुंचाने वाली बाकी 79 सीटें जीती थी.

ये ऐसे राज्य भी हैं जहां ‘इंडिया’ के नेता वोटों की अदला-बदली करा पाए तो यह गठबंधन अपना दबदबा दिखा सकता है. यही वजह है कि भाजपा ‘इंडिया’ पर जोरदार हमला करती रहती है.

2024 के मुक़ाबले का समीकरण इसी तरह बनता दिख रहा है. यह भाजपा ‘हार्टलैंड’ बनाम शेष भारत व खासकर परिधि वाले राज्यों का मुक़ाबला होने जा रहा है. लेकिन यह केवल उत्तर बनाम दक्षिण का मुक़ाबला नहीं होने जा रहा है, जैसा कि भाजपा के हताश और हतोत्साहित आलोचक आज नासमझी भरा दावा कर रहे हैं.

(संपादन : इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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