अगर आप इस लेख के अंतिम हिस्से को पहले ही न पढ़ लें, तो आपको सावधान करना चाहूंगा. इस कॉलम में इस बार मैं आपको एक पहेली बुझा रहा हूं.
वर्षों बाद भारत को एक ऐसा सेना प्रमुख मिला है जो ठोस सच बोल रहा है. भारतीय वायुसेना के एअर चीफ मार्शल ए.पी. सिंह लगातार बड़े स्पष्ट रूप से बताते रहे हैं कि भारतीय वायुसेना अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले संख्या और टेक्नोलॉजी के मामले में कितनी पिछड़ी हुई है. उन्होंने हमारे सबसे पवित्र सरकारी उपक्रम हिंदुस्तान एअरोनॉटिकल लिमिटेड (एचएएल) को कैमरों और माइक्रोफोन के मामले में भी आईना दिखाया है. उनका यह रुख इस लिहाज से नया है कि अब तक हम सेना प्रमुखों को अपने ऊपर दया जताते हुए यही कहते हुए सुनते रहे हैं कि ‘हमारे पास जो है उसी से लड़ेंगे’.
वायुसेना प्रमुख ने जो चुप्पी तोड़ी है उस पर उम्मीद के मुताबिक ही प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं. सेना के अभावों की बात जिसने भी उठाई उसे फौरन आयातित माल का भूखा, और बिका हुआ बताया जाता रहा है. आरोप यह लगाया जाता है कि एक दुष्ट मंडली है जो भारत को विकास करने से रोकती है और उसे बेहद महंगे आयातों पर निर्भर बनाने की कोशिश में जुटी रहती है. देश की रक्षा का मामला भी ‘इन्फ़्लुएंशरों’ (दलालों) का खेल बन गया है और सेनाओं के प्रमुख भी सावधान हो गए हैं. इस बीच डोनाल्ड ट्रंप ने इस आग में एफ-35 नाम का घी डाल दिया है.
इस डर ने रक्षा संबंधी खरीद को लगभग असंभव बना दिया है. भारत में रक्षा संधि सामान बेहद कम बनाए जाते हैं, और उनमें से अधिकतर संयुक्त उपक्रम के तहत बनाया जाता है. हम ‘देसीकरण’ (इसे भारतीयकरण क्यों नहीं कहते?) के दावे तो बहुत करते हैं लेकिन जरा खुद से यह सवाल पूछकर देखिए कि 200 से ज्यादा सुखोई 30-एमकेआई और न जाने कितने जगुआर या मिग विमान बनाने के बाद क्या हम आज पूरी तरह अपने बूते पर एक भी विमान बना सकते हैं? हम तो कंजूस चीनियों की तरह ‘’रिवर्स इंजीनियरिंग’ (किसी सामान के निर्माण के पेंच को समझने के लिए उसे तोड़कर फिर से जोड़ने की प्रक्रिया) भी नहीं कर सकते.
यह सारा कुछ इसलिए हुआ क्योंकि हमने 36 राफेल विमानों की खरीद को दुस्साहस बता दिया था. इस खरीद ने गतिरोध को तोड़ा और नयी दिल्ली में होने वाली रहस्यमय ‘लॉबिइंग’, खुलासा-दर-खुलासा होने वाली लड़ाई की अनदेखी की. लेकिन हमने जवाबी तर्कों के महत्व को भी स्वीकार किया था कि भारत पर यह दाग क्यों लगा? क्या इसका नतीजा यह हुआ कि 5 अरब डॉलर कीमत की सीधी खरीद इतनी तेजी से की गई मानो हम कोई युद्ध लड़ रहे थे. ‘हथियारों का टॉप आयातक’ वाला सबसे बड़ा ठप्पा हमने खुद अपने ऊपर लगवाया, और यह भारतीय सिस्टम के लिए एक अभिशाप है.
आयातों का आकलन डॉलर के 1990 वाले स्थिर मूल्य के आधार पर करने वाली स्टॉकहोम की संस्था ‘सिपरी’ ने आकलन किया है कि भारत ने 2015-24 के बीच दस साल में 23.7 अरब डॉलर मूल्य के हथियार आयात किए, जो कि कुल ग्लोबल हथियार आयात के 9.8 फीसदी के बराबर है. औसत के हिसाब से यह 2.3 अरब डॉलर प्रति वर्ष बनता है.
अब दो मुद्दे उभरते हैं. पहला यह कि नरेंद्र मोदी ने राफेल विमानों, अपाशे, एम-777 माउंटेन होवित्जर, हार्पून मिसाइल, एमएच-60 रोमियो नौसैनिक हेलिकॉप्टर, एमक्व्यू-9बी ड्रोन आदि की सीधी खरीद करने का जो फैसला किया वह क्या वैसा ही उचित और साहसी फैसला था जैसा कोई सीनियर डॉक्टर रोगी की गिरती हालत को देखकर तुरंत कई तरह की सर्जरी की जोखिम उठाने का फैसला करता है? दूसरा सवाल यह उठता है कि दुनिया में चौथी सबसे बड़ी ‘मिलिटरी मशीन’, जो अपनी सीमाओं के दो मोर्चों पर निरंतर दबाव झेल रही है वह क्या खुद हमेशा ‘आइसीयू’ में दाखिल रह सकती है, जिसे अक्सर बीच रात में इमरजेंसी सर्जरी की जरूरत पड़ती हो ?
या आप इस लेखक को परेशानी में डालते हुए सवाल को इस तरह रख सकते हैं: संपादक महोदय, जाइए अपने दिमाग का इलाज करवाइए. दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार आयात करने वाले देश पर आप यह आरोप कैसे लगा सकते हैं कि वह खरीद से डरता है? वह अहम हथियारों की कमी से हमेशा कैसे ग्रस्त रह सकता है?
ये सवाल बिलकुल जायज हैं और भारत की रक्षा योजना के कई विरोधाभासों को उजागर करते हैं, जिन पर ग्रंथ लिखे जा सकते हैं. मेरा पसंदीदा ग्रंथ है ‘आर्मिंग विदाउट एमिंग’, जिसे दिवंगत स्टीफन पी. कोहेन और सुनील दासगुप्त (जो तीन दशक पहले ‘इंडिया टुडे’ में मेरे सहयोगी थे और रक्षा मामलों को कवर करना सीख रहे थे) ने मिलकर लिखा है. यह किताब भारत में रणनीतिक सोच तथा नियोजन की कमी की संस्कृति पर अफसोस जताती है.
उनका कहना है कि भारतीय सैन्य सिद्धांत पूरी तरह तात्कालिक सामरिक जरूरतों और घटनाओं पर आधारित रहा है. इस मामले में मेरा अपना नजरिया कुछ कच्चे किस्म के पुराने निजी दस्तावेजों पर आधारित है. यह कागज के एक टुकड़े पर पूर्व रक्षा मंत्री जसवंत सिंह द्वारा पेंसिल से लिखा एक नोट है. दिवंगत नेता ने यह कागज 1994 में साल्ज़्बर्ग में रणनीतिक मामलों पर हुए एक गंभीर विचार-विमर्श के दौरान मुझे मुस्कराते हुए थमा दिया था. उस सम्मेलन में जनरल सुंदरजी ने भारत के रणनीतिक सिद्धांत की खामियों पर अपने विचार रखे थे. जसवंत सिंह ने मुझे बढ़ाए गए उस कागज पर लिखा था : ‘भारत के सैन्य व रणनीतिक सिद्धांत की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति का मैं अध्यक्ष था. हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि हमारी कोई रणनीति नहीं है, हमारा कोई सिद्धांत नहीं है’.
अब यह स्थिति बदली है, इसका कोई प्रमाण नहीं है. क्योंकि अगर बदली होती तो हम फ्रंटलाइन फाइटरों की इस तरह सीधी खरीद नहीं करते, मानो हम किसी सुपरमार्केट में किराने का सामान निकाल रहे हों या हैमलेज में खिलौने खरीद रहे हों. या हम एक बार में कुछ सैकड़ा स्पाइक एंटी-टैंक मिसाइलें, थलसेना के लिए 60,000 के बैचों में राइफलें आदि न खरीदते. हमारी रक्षा खरीद का इतिहास ऐसा ही रहा है. हां, राजीव गांधी का 1985-89 वाला दौर इस मामले में एक अपवाद है. लेकिन यह बोफोर्स नामक भूत छोड़ गया.
इस भूत के कारण पैदा हुए डर ने खरीद को न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया. वरना बालाकोट के बाद मिग-21 बाइसन को एफ-16 विमानों के झुंड में क्यों शामिल कर दिया जाता ? याद कीजिए, करगिल युद्ध में वायुसेना को किस तरह नुकसान झेलना पड़ा था जब उसके दो मिग विमान और एक एमआइ-17 लड़ाकू हेलिकॉप्टर नष्ट हो गए, उनके चालक दल के (उसमें से एक को छोड़, जिसे युद्धबंदी बना लिया गया) सभी सदस्य मारे गए. शक्तिशाली टोही विमान फोटो-रीकॉनेसां कैनबरा का इंजिन नाकाम हो गया था लेकिन कुशल चालक उसे वापस लौटा लाया था. इसके बाद उसे रिटायर कर दिया गया. इन चारों पर कंधे से दागी गईं मिसाइलों से हमला किया गया था. वायुसेना की नींद टूटी तो उसने रातों में काफी ऊंचाई पर उड़ान भरने वाले अपने मिराज विमानों के लिए इजरायल से रातोरात लेज़र उपकरण खरीदे. इसके बाद तस्वीर बदल गई.
यह सब हमारी ‘चलता है’ वाली प्रवृत्ति की मिसालें देने के लिए नहीं कहा गया है. यह एरिका जोंग से माफी मांगते हुए सिर्फ यह सवाल पूछने के लिए कहा गया है कि आखिर हमें खरीद से डर क्यों लगता है? 1987 के बाद से इस डर का एक कारण तो बोफोर्स का भूत है. रक्षा संबंधी हर एक खरीद से परहेज किया जाता है, उसे लटकाया जाता है, और पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस के शब्दों में कहें तो उससे जुड़ी फाइल को अनिर्णय के अटूट घेरे में डालने के लिए ‘ऑर्बिट में फेंक दिया जाता है’. यह नई दिल्ली को हथियार के डीलरों, बिचौलियों और अब एक नई जमात ‘बी-टु-बी’, हथियार बाज़ार मीडिया के खेल का मैदान बना देता है.
जनता सौदे की वार्ताओं, बदलती जरूरतों, और इस चिंता को लेकर उलझन में फंसी रहती है कि इस सिस्टम पर इस बुरे हथियार व्यापार का कब्जा है. लेकिन इसके साथ यह भी एक तथ्य है कि हम दूसरे किसी देश के मुक़ाबले सबसे ज्यादा आयात कर रहे हैं. आप विरोधाभास को देखना चाहते हैं तो ए.के. एंटनी को देखिए, जो 1991 के बाद अमेरिका विरोधी और जोखिम से सबसे ज्यादा दूर रहने वाले रक्षा मंत्री रहे लेकिन जिन्होंने आज़ाद भारत में अब तक अमेरिका से सरकारी स्तर पर सबसे ज्यादा खरीद की, जिसमें सी-130, सी-17, पी-81आई विमानों की खरीद शामिल है. अब मोदी ने वही जोखिम मुक्त, आपात खरीद शुरू की है, हालांकि ज्यादा हड़बड़ी से.
इस डर से लड़ने का एकमात्र तरीका उससे लड़ना है. राजीव गांधी को बोफोर्स आदि के लिए कोसना फैशन बन गया है लेकिन सच यह है कि हमारे इतिहास में सिर्फ 1985-89 वाला दौर ही ऐसा था जब हथियारों की खरीद भविष्य के मद्देनजर आगे बढ़कर की गई और इसने हमारे प्रतिरक्षा संबंधी सामरिक सिद्धांतों को व्यापक तौर पर पुनःपरिभाषित किया. सुंदरजी ने ‘ब्रासटैक्स’ और ‘चेकरबोर्ड’ नामक जो युद्धाभ्यास करवाए वे दुश्मन क्षेत्र में सफलतापूर्वक संपन्न हुए. आज भी, तीनों सेनाएं जिस अधिकतर हार्डवेयर का उपयोग करती हैं उनकी खरीद राजीव गांधी ने की थी, चाहे वह मिराज विमान हों या टी-72 टैंक हों या मिग विमानों की नयी सीरीज हो, बीएमपी से लैस युद्धक वाहन हों या बेशक बोफोर्स तोपें हों. उन वर्षों में हमारे रक्षा बजट ने जीडीपी के 4 फीसदी की लक्ष्मण रेखा को पार किया था.
यह डर कितना आत्मघाती है इसे समझने के लिए कुछ आंकड़ों पर गौर कीजिए. दस साल में हमने रक्षा संबंधी जितना आयात किया है वह औसतन एक साल में सोने के हमारे आयात के मूल्य के आधे से भी कम के बराबर है; और तो और, यह रिलायंस इंडस्ट्रीज के आयात बिल के 5 फीसदी से, और सार्वजनिक उपक्रम इंडियन आयल के आयात बिल के 8 फीसदी से भी कम के बराबर है. रक्षा संबंधी सालाना आयात का हमारा बिल 2.3 अरब डॉलर मूल्य का है, जो खाद के हमारे आयात के बिल के एक चौथाई से भी कम है. सवाल यह उठता है कि किसानों के लिए किया जाने वाला आयात जवानों के लिए किए जाने वाले आयात से कम घोटालाग्रस्त या ज्यादा पवित्र क्यों है?
रक्षा संबंधी आयातों के साथ विवाद इसलिए नहीं जुड़ जाता कि वे बड़े आकार के होते हैं बल्कि इसलिए जुड़ता है कि वे छोटे आकार के और टुकड़ों में होते हैं, और कई वेंडर तथा ‘सिस्टम’ इस डर से खेलते हैं. अगर हमने इस डर को परास्त नहीं किया तो हम जब-तब आइसीयू में जाते रहेंगे और हमें तुरंत सर्जरी करवाने की जरूरत न भी पड़े, इमरजेंसी में खून चढ़वाने की जरूरत पड़ती रहेगी.
पोस्टस्क्रिप्ट: मैंने शुरू में आपको जो पहेली बुझाई थी वह यह थी कि मैंने इस कॉलम में 27 अप्रैल 2015 को राफेल विवाद पर एक लेख लिखा था. अब इस सप्ताह आपने ऊपर जो लेख पढ़ा उसका मजमून लगभग उसी पुराने लेख का है, सिर्फ आंकड़े बदले हैं और संदर्भ को अपडेट किया है. इससे यही साबित होता है कि चीजें बदलें या न बदलें, दुनिया में चौथी सबसे विशाल सैन्य ताकत के साथ मज़ाक जारी है.
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