हम कोविड महामारी में वर्तमान स्थिति की व्याख्या कैसे करते हैं?
बात को कुछ इस तरह रखें. अगर आप टीवी पर क्रिकेट मैच देखते होंगे तो आपने एक परफ्यूम का वह विज्ञापन भी देखा होगा जिसमें एक तूफान में एक नौजवान की कमीज उड़ जाती है और उसका गठीला बदन दिखने लगता है, एक लड़की उसके बदन पर भरपूर नज़र डालते हुए कहती है, ‘आपके कपड़े तो गए, लेकिन खुशबू कायम है’.
कोविड महामारी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है. दूसरी लहर लौट गई है लेकिन वह खुशबू नहीं बदबू छोड़ गई है. यह राक्षसी वायरस कहां से आया? किसी जानवर से पैदा हुआ या किसी प्रयोगशाला में बना? मनुष्य तक यह प्राकृतिक रूप से पहुंचा या किसी बेहद खतरनाक वैज्ञानिक अनुसंधान में हुई चूक के कारण पहुंचा? यह जैविक युद्ध का हिस्सा तो नहीं है? वायरस फिलहाल शांत हुआ दिख रहा है लेकिन दुनिया के ऊपर संदेह के बादल छाये हैं.
जनवरी तक तो डोनाल्ड ट्रंप अपने पद पर मौजूद थे, और कोई अगर यह संभावना व्यक्त करता था कि यह ‘ज़ूनोटिक’ (जानवर से मनुष्य तक किसी माध्यम से पहुंचने की प्रक्रिया) मामला नहीं है तो उसे हर चीज में साजिश सूंघने वाला कहके खारिज किया जा रहा था. लेकिन ट्रंप के हटते ही सब कुछ तेजी से बदल गया. उनके साथ उनका विषैला और ध्रुवीकरण वाला प्रभाव भी हट गया, जिसने तार्किकता और तथ्य आधारित तर्क के अंतिम किले, जैविक विज्ञान को भी संक्रमित कर दिया था. ट्रंप के जाते ही इस विज्ञान में समझदारी और स्वस्थ संशयवाद वापस आ गया. जो आला वैज्ञानिक वायरस के स्रोत पर बात तक करने को तैयार नहीं थे, वे अब कुछ जाहिर-से सवाल पूछ रहे हैं. अगर यह वायरस किसी जानवर से पैदा हुआ तो इन 18 महीनों में कोई जानवर इसके प्रारम्भिक या माध्यमिक भंडार के रूप में क्यों नहीं उभरा?
चीन के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने दिसंबर 2019 में अपने सारे आंकड़े सील क्यों कर दिए थे? अमेरिका या पूरी दुनिया को यह क्यों नहीं पता चला कि चीनी वैज्ञानिक ‘गेन ऑफ फंक्शन’ (जीओएफ) अनुसंधान कर रहे हैं, जिसमें मारक वायरसों के जीन को बदलने के प्रयोग किए जा रहे हैं और वह भी अमेरिकी वैज्ञानिक संस्थाओं के सहयोग और पैसे से? विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा गठित जांच कमिटी के लिए अमेरिका ने जिन सदस्यों के नाम प्रस्तावित किए थे उनमें से सिर्फ पीटर डास्क को छोड़ सारे नाम चीन ने क्यों खारिज कर दिए थे? पीटर डास्क न्यू यॉर्क के इकोहेल्थ एलायंस (ईएचए) से जुड़े हैं, जिसने वुहान प्रयोगशाला को ‘जीओएफ’ अनुसंधान के लिए पैसे दिए थे. वुहान प्रयोगशाला की मशहूर ‘बैट लेडी’ (चमगादड़ महिला) शी झेंग्ली बहुत सोच-विचार करके चुनिन्दा जानकारी सार्वजनिक करने लगी थीं. चीन आखिर क्या छिपाना चाह रहा था?
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सरकारें और वैज्ञानिक तंत्र कीड़ों से भरे बक्से को छूने से हिचक रहा था. अब यह ठोकरों से खुद ही खुल गया है तो हमें वैज्ञानिकों, गणितज्ञों, डेटा एनालिस्टों, स्काइ-फ़ाइ लेखकों और पत्रकारों की उस विशाल, विविध, बहुराष्ट्रीय ‘सेना’ का आभारी होना चाहिए जो सिर्फ यह पता लगाने के लिए एकजुट हुई— वायरस आया कहां से. उस बदबू का स्रोत क्या है.
ये सारे लोग आज ‘ड्रास्टिक’ (डिसेंट्रलाइज्ड रैडिकल ऑटोनोमस सर्च टीम इन्वेस्टिगेटिंग कोविड-19) नामक एक ढीलेढाले संगठन के हिस्से हैं. इसका गठन बैंक ऑफ न्यूज़ीलैंड में डेटा साइंटिस्ट गाइल्स डेमैनुफ़ ने किया. जल्दी ही प्रख्यात स्काइ-फ़ाइ लेखक और विद्वान जेमि मेटजी उनसे जुड़ गए और तब दुनिया भर के तेज, बेहद उत्सुक स्त्री-पुरुषों का यह ‘गिरोह’ तैयार हो गया. इसमें कुछ जाने-माने भारतीय भी शामिल हैं, जिनमें सबसे उल्लेखनीय हैं गुमनाम विज्ञान शिक्षक, जो @TheSeeker268 के नाम से ट्वीट करते हैं. हम उन्हें नहीं जानते लेकिन डॉ. मोनाली राहलकर और राहुल बाहुलिकर को जानते हैं. यह वैज्ञानिक दंपती पुणे के बायोटेक्नोलॉजी विभाग के आगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट से जुड़ा है, जिसने उस महत्वपूर्ण तथ्य को स्थापित किया जिसके आधार पर यह पता चला कि शी झेंग्ली ने अपनी प्रयोगशाला में जिस वायरस को बर्फ में जमा रखा था वह कोविड-19 से 96.2 प्रतिशत मिलता-जुलता था और उसी वायरस जैसा था जिसने 2012 में उन छह मजदूरों को बीमार कर दिया था जो यून्नान प्रांत में मोजियांग तांबा खानों में चमगादड़ों का बीट साफ करने गए थे.
फर्क सिर्फ यह है कि उनका नाम अलग दिया गया था, और उनकी चर्चा तक नहीं की गई. यह वैज्ञानिक जानकारी छिपाने की घृणित कोशिश थी क्योंकि चमगादड़ कोरोनावायरस से मनुष्य के सीधे (बिना किसी माध्यम के) संक्रमित होने की घटना पहली बार सामने आई थी. सभी छह मजदूरों को निमोनिया हुआ, तीन मर गए. चीनियों ने इसे बाकी दुनिया भर से क्यों छिपाया?
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क्या यह धोखाधड़ी थी? उन्होंने इसका नाम ‘रा टीजी 13’ क्यों रख दिया और किसी को यह क्यों नहीं बताया कि यह मूल वायरस ‘रा बीटीकोव/4991’ जैसा ही है जिसने उक्त छह मजदूरों को बीमार किया था? क्या वुहान के वैज्ञानिकों ने इस वायरस पर कोई और तेज प्रोटीन या जीन को इसकी रीढ़ की हड्डी जैसा बनाने का अनुसंधान किया था ताकि यह मनुष्य के लिए अधिक संक्रामक और मारक बने?
ऐसा लगता है कि उन्होंने यह कोशिश की. बुनियादी बातों को समझने के लिए मोनाली रहलकर से हमारी सहयोगी ज्योति मल्होत्रा ने जो बातचीत की उस शानदार इंटरव्यू को देखिए. मोनाली बताती हैं कि उन्होंने और उनके पति ने कैसे पता लगाया कि दो अलग नाम वाले वायरस एक जैसे थे. इस वायरस ने हमारी जिंदगी में जैसी उथलपुथल मचा दी है उसके कारण आप इस बारे में अधिक जानकारी पाने के लिए जरूर उत्सुक होंगे, तो मैं सुझाव दूंगा कि आप ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ के दो पूर्व विज्ञान संपादकों, निकोलस वेड का लेख ‘बुलेटिन ऑफ एटमिक साइंटिस्ट्स’ में, और डोनाल्ड मैकनील जूनियर का लेख ‘मीडियम’ में पढ़ें; और इनके अलावा प्रख्यात लेखिका कैथरीन एबान का लेख ‘वैनिटी फेयर’ में पढ़ें.
वेड ने रहस्योद्घाटन किया है कि इस वायरस का एक विचित्र जीनोमिक गुण है जिसे ‘फ्यूरिन क्लीवेज’ कहा जाता है, जो इसे अधिक संक्रामक बनाता है, और यह गुण चमगादड़ वाले कोरोनावायरस में नहीं पाया गया था. क्या इसे प्रयोगशाला में विकसित किया गया? क्या चीनी वैज्ञानिक कहीं और से जीन लेकर उस वायरस पर चिपकाने में लगे थे, जो कोविड-19 से 96.2 प्रतिशत मिलता-जुलता है, और वह नया वायरस प्रयोगशाला से बाहर निकल गया? वेड ने 1975 में नोबल पुरस्कार पाने वाले और ‘कैलटेक’ के सम्मानित जीव विज्ञानी डेविड बाल्टीमोर के साथ यह घोषणा करके हलचल मचा दी कि यह ‘स्मोकिंग गन’ उपरोक्त ‘जीओएफ’ अनुसंधान का फल है.
अगर आप एबान और वेड को पढ़ेंगे और रहलकर को ध्यान से सुनेंगे तो एक मुमकिन तस्वीर उभरेगी. वुहान प्रयोगशाला 2012 के मोजियांग खान वाले वायरस पर 2015 तक शोध करती रही और फिर उसने उस पर चुप्पी साध ली. उसने एक नया वायरस बना लिया था और ‘मनुष्य सरीखे’ चूहे पर उसका परीक्षण भी कर लिया था, जिसमें जीवकोषीय पदार्थ को जानवर में डाल दिया जाता है ताकि वह संक्रमण पर मनुष्य की तरह ही प्रतिक्रिया करे. ऐसा ‘एसीई2 रिसेप्टर’ में होता है जिसकी जरूरत कोविड-19 को होती है. यह कहीं ज्यादा संक्रामक था. ये चूहे अमेरिका की नॉर्थ कैरोलीना यूनिवर्सिटी की विशाल प्रयोगशाला से आए थे. यह अमेरिका की उन तीन प्रयोगशालाओं में एक है जहां ‘जीओएफ’ अनुसंधान होता है. इसके बॉस प्रो. राल्फ बारिक ने शी झेंग्ली को इस अनुसंधान का प्रशिक्षण दिया था.
हजारों शब्दों के इन लेखों से कई खुलासे होते हैं. इनमें प्रमुख दो खुलासे ये हैं— 1. पीटर डास्क ने महामारी के शुरू में ही उस पत्र पर न केवल दस्तखत किया था बल्कि ‘द लेंशेट’ को भेजा भी था जिसमें प्रयोगशाला से लीक होने वाली बात का खंडन किया गया था. एबान के लेख में उनके और बारिक के बीच ई-मेल पर हुई अविश्वासनीय वार्ता को उदधृत किया गया है, जिसमें वे लिखते हैं कि वे दोनों उस पत्र पर दस्तखत न करें क्योंकि इससे यह जाहिर होगा कि उनमें मतभेद हैं. डास्क ने दस्तखत किया, बारिक ने नहीं किया और वे अब इससे अलग हो गए हैं. 2. जैसे ही वुहान में पहले मामले सामने आए, चीनी सेना ने अपनी मुख्य वायरस विज्ञानी, महामारी विशेषज्ञ, तथा जैव रक्षा वैज्ञानिक मेजर चेन वाइ को अपनी टीम के साथ भेजा कि वे वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी को अपने नियंत्रण में ले लें.
इन लंबे लेखों में आप बहुत कुछ पा सकते हैं. वेड और एबान ने जो शोध किया है उस पर आप हैरान हो सकते हैं. और यह भी आश्चर्य कर सकते हैं कि सबसे पहले एक लेखक ने बिल्ली के गले घंटी कैसे बांधी. वेड को 11,000 शब्दों के अपने लेख को प्रकाशित करवाने के लिए कोई स्थापित प्रकाशन नहीं मिला. उन्होंने इसे खुद ही ‘मीडियम’ में प्रकाशित किया. मैकनील ने भी ‘मीडियम’ में लिखा, जो उनका लेख वेड के काम पर एक टीका ज्यादा है. वे बड़ी ईमानदारी और साफ़गोई से बताते हैं कि प्रयोगशाला से लीक होने की बात पर संदेह करने से लेकर उसकी गहरी पड़ताल करने की ओर वे कैसे मुड़े. वे कहते हैं कि प्राकृतिक मूल और प्रयोगशाला से लीक होने के बीच जो ‘ओक्कम रेज़र’ हासिल हुआ उसने उन्हें पड़ताल की ओर मोड़ा.
इस कहानी में अभी बहुत कुछ सामने आने वाला है. यह उतना ही मुमकिन है जितनी वायरस की नई लहर मुमकिन है. लेकिन सबसे सकारात्मक बात यह है कि विज्ञान, लोकतंत्र, जिज्ञासा, आदि ने तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों और सरहदों की परवाह न करते हुए मिलकर काम किया. इसने न्यूजीलैंड से लेकर फ्रांस होते हुए अमेरिका और बेशक भारत तक दुनिया भर के ज़हीन दिमागों को एकजुट किया कि वे उस सुपर पावर को चुनौती दे सकें, जो एक भयावह रहस्य को छिपाने पर आमादा था. दूसरा सुपर पावर खुद ही इतना बंटा हुआ था कि वह इसका खुलासा नहीं कर सकता था. और अंत में, यह एक प्रमाण है कि इंटरनेट हमेशा के लिए एक ताकत के रूप में स्थापित हो चुका है.
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