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Saturday, 21 December, 2024
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INS विक्रांत का जश्न मनाइए लेकिन इसकी ज़रूरत को लेकर भारत के नेतृत्व से 3 सवाल

आईएनएस-विक्रांत का भारतीय नौसेना के बेड़े में शामिल होना जश्न का मौका है लेकिन क्या भारत को विमानवाही युद्धपोतों की जरूरत है? और किस तरह के व कितने विमानवाही युद्धपोतों की?

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लगभग पांच दशकों तक भारत का झंडा लहराने वाले, भारतीय नौसेना के प्रथम विमानवाही युद्धपोत आईएनएस-विक्रांत के नये अवतार की कमीशनिंग देश के लिए जश्न मनाने का मौका है. और इसकी वजह भी है.

मूल पोत तो 16,000 टन का था मगर यह उससे तीन गुना 42,800 टन का है और यह न केवल भारत में डिजाइन किया गया और निर्मित सबसे बड़ा युद्धपोत है बल्कि पूरी तरह स्वदेशी डिजाइन का है.

यह बेहद गौरव की बात है क्योंकि इसने भारत को उन विशिष्ट देशों की जमात में शामिल कर दिया है, जो इस तरह के युद्धपोत बनाने में सक्षम हैं. यह जमात इतनी विशिष्ट है कि उन्हें आप अपने एक हाथ की उंगलियों पर गिन सकते हैं. वैसे, फिलहाल हम ब्रिटेन को इसमें शामिल नहीं कर रहे हैं.

ऐसी राष्ट्रीय उपलब्धि की अनदेखी दुर्लभ किस्म का कोई भारतीय ही कर सकता है या फिर युद्ध से नफरत करने और शांति की पैरवी करने वाली दुर्लभ जमात का कोई शख्स ही कर सकता है. हम इन लोगों में से नहीं हैं इसलिए भारतीय नौसेना, इसके ज़हीन तथा प्रगतिशील डिजाइन ब्यूरो, इंजीनियरों, समुद्री युद्ध के मामले में दूरदर्शिता रखने वालों, और बेशक पिछले 25 वर्षों में भारत का नेतृत्व करने वाले तीन प्रधानमंत्रियों (अटल बिहारी वाजपेयी से शुरू करके) के कार्यकाल को बधाई. वाजपेयी के कार्यकाल में ही इस ‘मेक-इन-इंडिया’ या ‘आत्मनिर्भर’ युद्धपोत की डिजाइनिंग शुरू हुई थी. उनके नेतृत्व में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने इसके निर्माण की परियोजना को मंजूरी दी थी.

सवाल उठाया जा सकता है कि देश में इंजीनियरिंग का विशाल आधार होने के बावजूद इस युद्धपोत को नौसेना के बेड़े में शामिल करने में 23 साल क्यों लग गए, खासकर तब जबकि चीन इससे कहीं बड़ा युद्धपोत तीन-चार वर्षों में तैयार कर लेता है. और वैसे भी नये ‘विक्रांत’ का इंजन अमेरिका की जीई कंपनी से आयात किया गया है.

चीन के पास पूरी तरह सक्रिय दो विमानवाही हैं. उनमें से एक तो नये विक्रांत से करीब दोगुना बड़े आकार का है और पूरी तरह से देसी है, जो न केवल ज्यादा विमान ढो सकता है बल्कि जे-15 या एसयू-30 के चीनी संस्करणों जितना शक्तिशाली है. तीसरा विमानवाही युद्धपोत चीन अपनी गति से अगले वर्ष ही कमीशन कर सकता है, और यह एक लाख टन वाला होगा.


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लेकिन भारत में रक्षा उत्पादन के मामले में लेटलतीफी स्थायी समस्या है. हम इसके बारे में मीनमेख निकालते रहे हैं और आगे भी निकलते रहेंगे. यह भविष्य की ओर खुले दिमाग से नज़र डालने का समय है. इसलिए फौरी तौर पर तीन सवाल उठते हैं.

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या भारत को विमानवाही युद्धपोतों की जरूरत है? अगर है तो किस तरह के तथा कितने की? और तीसरा सवाल यह कि इन शक्तिशाली युद्धपोतों से भारत को किस तरह के मारक अस्त्रों, फायरपावर का प्रयोग करना चाहिए या वह कर सकता है, और वे अस्त्र आएंगे कहां से?

विमानवाही युद्धपोत या पनडुब्बी? यह बहस 75 साल से ज्यादा वर्षों से नौसैनिक खेमे में जारी है. दूसरे विश्व युद्ध में, खासकर विशाल अमेरिकी तथा जापानी युद्धपोतों ने समुद्री युद्ध को नया स्वरूप दे दिया था. जर्मनी अपनी पनडुब्बियों पर ज़ोर दे रहा था, जिन्हें यू-बोट कहा जाता था.

इसने इस बहस को जन्म दिया था कि युद्धपोतों का इस्तेमाल करके समुद्र पर नियंत्रण (‘सी कंट्रोल’) कायम किया जाए या पनडुब्बियों के इस्तेमाल से दुश्मन को समुद्र पर नियंत्रण न करने (‘सी डिनायल’) दिया जाए. पश्चिमी देशों ने ‘सी कंट्रोल’का मूल अमेरिकी सिद्धांत अपनाया, जबकि सोवियत नौसेना और उस खेमे ने दुश्मन को दूर रखने के उपायों पर जम कर निवेश किया. उसने सुपर-बेआवाज और बेहद मारक पनडुब्बियों से विशाल बेड़ा तैयार किया.

इस बहस के बारे में उपलब्ध सूचनाएं यही बताती हैं कि सोवियत नौसेना का पनडुब्बियों में भरोसा एक तरह का सैद्धांतिक मामला तो था ही, इसमें लागत का पहलू भी जुड़ा था. सोवियत संघ के नेताओं को पता था कि वे विशाल समुद्री युद्धपोत और उन पर तैनात किए जाने वाले महंगे हवाई अस्त्रों के निर्माण में अमीर पश्चिमी देशों से मुक़ाबला नहीं कर सकते. इसलिए उन्हें दुश्मन को समुद्र पर हावी न होने देने की ताकत हासिल करके सामरिक संतुलन बनाने का उपाय ढूंढ़ना था.

इसके अलावा, उन्हें उस भारी नुकसान का भी हिसाब रखना था, जो एक विमानवाही युद्धपोत के नष्ट होने से हो सकता था. हमें प्रामाणिक रूप से मालूम है कि 1971 की लड़ाई के बीच ही ‘यूएसएस एंटरप्राइज़’ के नेतृत्व में अमेरिकी 7वां बेड़ा किस तरह भारत की ओर बढ़ आया था और उसका सोवियत पनडुब्बियों ने किस तरह पीछा किया था.

लेकिन शीत युद्ध के अंतिम दशकों में यह स्थिति बदलने लगी. सोवियत संघ ने एक छोटा विमानवाही युद्धपोत तैयार किया और इसे एडमिरल गोर्शकोव का नाम दिया, जो उसकी अधिकतर पनडुब्बियों और मिसाइल केंद्रित नौसेना के संस्थापक थे और उसके उस सामरिक सिद्धांत के सूत्रधार थे. बाद में, उस युद्धपोत को सोवियत संघ ने भारत को बेच दिया, जिसे ‘विक्रमादित्य’ नाम दिया गया. यह आज भारत की अग्रणी विमानवाही है. इसे 44,500 टन का आकार दिया गया. इस बीच, भारतीय नौसेना ने पुराने ब्रिटिश पोत ‘एचएमएस हर्मीस’ को भी हासिल किया है, जिसे ‘आईएनएस विराट’ नाम दिया गया. यह 23,000 टन का है और पहले ‘विक्रांत’ से डेढ़ गुना बड़ा है.

हालांकि, 1964 के बाद से भारत की सेना कुल मिलाकर सोवियत/रूसी साजो-सामान और ट्रेनिंग के बूते ही तैयार हुई, लेकिन नौसेना को युद्धपोतों ने काफी पहले आकर्षित कर लिया था. 1942 में, रॉयल नेवी ने ‘मैजेस्टिक’ क्लास के नाम से जाने गए नये विमानवाही पोतों को कमीशन किया. जब युद्ध खत्म हुआ था तब तक कई पोत तो आधे-अधूरे ही बने थे. इनमें से एक, ‘एचएमएस हर्कुलस’ को भारत ने खरीदा और इसे बेलफास्ट में पूरी तरह निर्मित करवाया. यही पहला ‘आईएनएस विक्रांत’ बना.

इस तरह, भारतीय नौसेना में एक दशक से भी ज्यादा समय से जो विमानवाही बनाम पनडुब्बी बहस चल रही थी उसका फैसला हो गया, लेकिन परेशानी भरे नतीजे के साथ. 1965 का युद्ध ऐसा था जिसके बारे में भारतीय नौसेना शायद ही बात करना चाहेगी.

क्रूजर ‘पीएनएस बाबर’ के नेतृत्व में पाकिस्तानी नौसेना का सात युद्धपोतों का टास्क फोर्स गुजरात के तट पर द्वारका नगरी के काफी करीब आ पहुंचा था (जिसका जाहिर तौर पर धार्मिक मकसद भी था) और उसने 5.25 इंच वाली तोपों को तैनात कर दिया था, जिन्हें कोई चुनौती नहीं मिली. भारतीय नौसेना उस युद्ध में शामिल नहीं हुई. इसकी वजह सिर्फ यह नहीं थी कि ‘विक्रांत’ अपनी दशकों की सेवा में प्रायः जैसे रहा वैसे ही उस समय भी सूखे बंदरगाह पर था. बल्कि एक वजह यह भी थी कि उस समय इस उपमहादेश में तैनात एकमात्र पनडुब्बी ‘पीएनएस गाजी’ से खतरा भी था.

इसके बाद ही भारत ने अपनी पहली पनडुब्बी, सोवियत ‘फॉक्सट्रोट्स’ हासिल की. लेकिन 1971 में, फिर से ‘विक्रांत’ को ‘गाजी’ और फ्रेंच पनडुब्बी ‘देफ़्नेस’ के डर से अरब महासागर से दूर ले जाना पड़ा. वैसे, ‘गाजी’ को बहकाकर विशाखापत्तनम ले जाकर एक ‘ऑपरेशन’ के तहत डुबो दिया गया. ‘पीएनएस हंगोर’ ने ‘आईएनएस खुकरी’ को दीव के तट के करीब डुबो दिया.

सैन्य सिद्धांत, खासकर नौसेना के सिद्धांत ज्यादा लंबे समय तक लागू रहते हैं. इसी तरह, भारतीय नौसेना ने युद्धपोत केंद्रित कई टास्क फोर्स रखने का विचार दिल से लगाए रखा है. पूंजीगत लागत, अतीत में देश में ही निर्माण करने की अक्षमता, और राजनीतिक बदलावों के कारण एक समय में दो विमानवाही रखने के बारे में शायद ही कभी सोचा गया. लेकिन नया ‘विक्रांत’ इस स्थिति में बदलाव ला सकता है.

यह हमें वापस उन तीन सवालों पर लाता है जिनकी चर्चा मैंने ऊपर की है.

मैंने यह सवाल ‘कार्नेगी एंडाउमेंट’ के एश्ले टेलिस के सामने रखा था, जिससे भारत की रणनीतिक जमात परिचित है. उनका जवाब था कि इस सवाल से पहले आपको यह फैसला करना होगा कि भारत के भू-राजनीतिक लक्ष्य क्या हैं. अगर वे उसके प्रायद्वीप के 1000 किमी दूर तक के घेरे तक सीमित हैं तो उसे विमानवाही युद्धपोतों की जरूरत नहीं है. बेशक यह कराची और ग्वादर को अपनी जद में ले सकता है. उन्हें समुद्र तट पर तैनात विमानों, जिन्हें उड़ान के बीच ईंधन आपूर्ति की जा सकती हो, के जरिए बड़ी आसानी से और प्रभावी तरीके से अपनी जद में रखा जा सकता है.

टेलिस ने कहा कि अगर आप ज्यादा दूर तक, मसलन पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया तक जाकर अपना खेल करना चाहते हैं तो आपको विमानवाही की जरूरत पड़ेगी. लेकिन किस तरह के विमानवाही की? उनका कहना है (यह बातचीत यहां देखें) कि भारतीय नौसेना ने अब तक यथासंभव खराब फैसले ही किए हैं. उसने महंगे और छोटे विमानवाही खरीदे या बनाए हैं जिन पर बड़ी संख्या में सैनिकों आदि को तैनात करना पड़ता है और उन पर कम गोला-बारूद ही तैनात किया जा सकता है.

फिलहाल इन युद्धपोतों से अधिकतम करीब 20 मिग-29-के विमान ही उड़ाए जा सकते हैं और ये ज्यादा दूर तक मार नहीं कर सकते, कम अस्त्र ही ढो सकते हैं और ये विमान कम समय के लिए ही अड्डे पर खड़े रह सकते हैं. हमें मालूम है कि नौसेना ने अभी-अभी राफेल (मरीन) और एफ/ए-18 जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों के परीक्षण किए. इन पर मिग-29 विमानों की तुलना में ज्यादा अस्त्र ढोए जा सकते हैं और ये उनके मुक़ाबले दोगुनी दूरी तक मार कर सकते हैं. टेलिस का कहना है कि ये विमानवाही इतने छोटे हैं कि सचमुच जोरदार हमला नहीं कर सकते. न तो ये कम ख़र्चीले हैं और न लागत के हिसाब से उतने मूल्यवान हैं.

टेलिस कहते हैं कि अमेरिकी नौसेना में 40 साल तक के शोध और अनुभव से यही समझ में आता है कि विमानवाही को एक ताकत बनने के लिए 65,000 टन से ऊपर का होना चाहिए. भारतीय नौसेना ने आईएसी-3 के लिए यही सोच रखा है. लेकिन संख्या, लागत, विमान आदि के सवाल उभरेंगे. जो भी हो, इन सबके लिए पैसा कहीं से तो लाना ही पड़ेगा. क्या इसका असर पनडुब्बियों पर पड़ेगा या अधिक घातक मिसाइलों पर या दूसरी तरह के युद्धपोतों पर? वायुसेना पर या थल सेना पर?

ये ऐसे कठिन सवाल हैं, जिन पर भारतीय सेना और राजनीतिक नेतृत्व को विचार करके फैसले करने हैं. लेकिन फिलहाल तो हम नये ‘आईएनएस विक्रांत’ के आगमन का जश्न मनाएं. इस पर से जब पहला विमान परीक्षण के लिए उड़ान भरेगा, इससे काफी पहले ही इसने उस शाश्वत सैद्धांतिक बहस को फिर से शुरू करने में अपना योगदान दे दिया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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