पत्रकारों को शर्मिंदगी के कीचड़ में लोटने की जरूरत नहीं है क्योंकि उनमें से कोई भी कोबरापोस्ट स्टिंग में पकड़ा नहीं गया है।
हम पत्रकार वास्तव में बुरे नज़र आ रहे हैं। जनता को यह सोचने के लिए आश्वस्त किया जा रहा है कि हम सब भ्रष्ट हैं। राजनेता अट्टहास कर रहे हैं। धार्मिक टिप्पणीकार बेबुनियाद ख़बर फैला रहे हैं कि हम पत्रकार सिर्फ धूर्त ही नहीं हैं बल्कि आपराधिक रूप से दुराग्रही भी हैं। और हम एक गुनहगार अंतःकरण को पाल रहे हैं, यह भूलते हुए कि हमारे व्यापार का पहला अध्याय है: अपने तथ्यों की जांच करना।
स्टिंग वीडियो हमेशा भद्दे दिखाई देते हैं। यहाँ तक कि छिपे हुए कैमरे पर एक सामान्य बातचीत भी आपको मूर्ख दिखा सकती है, खासकर यदि यह आपको कुछ मूर्खतापूर्ण कार्य करते हुए रिकॉर्ड कर ले। लेकिन यह कैमरा ऐसी पिक्चर भी ले आता है जो कुछ लोगों को और भी भद्दे तरीके से दिखाती है जैसे नाक में ऊँगली करते हुए या शरीर के कुछ विशेष हिस्सों में खुजली करते हुए। इनमें से कुछ भारतीय मीडिया में सबसे शक्तिशाली लोग हैं। इनमें से कोई भी पत्रकार नहीं है, मैं दोहराता हूँ कोई भी नहीं।
तो यह पहला महत्वपूर्ण तथ्य है। पत्रकारों को शर्मिंदा होने या जौहर अथवा सामूहिक-सती होने जाने के समतुल्य नैतिक कृत्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है। निश्चित रूप जहाँ सम्पादकीय और राजस्व के बीच की चीनी दीवारों में दरार पड़ती है, वहां जवाबी हमले का आवाहन होता है।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य: एक बहुत बड़े स्वामित्वधारी और कुछ संगठनों में सेल्समैनों को छोड़कर, न ही किसी ने पैसे के लिए सम्पादकीय बेचने की पेशकश की है या न ही किसी ने कैश के लिए एक सांप्रदायिक प्रचार हेतु समय या स्पेस बेचने का प्रस्ताव दिया है, भले ही यह उनके शीर्ष उद्योगपति मित्रों के माध्यम से आया हो। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यहाँ पर नामित टाइकून्स, जो सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा अहमियत रखने वाली कंपनियों के रूप में सूचीबद्ध सार्वजनिक कंपनियों को चला रहे हैं, वे काले धन को सफ़ेद में तब्दील करने के लिए एक संभावित चैनल के रूप में नामित होने पर अति क्रुद्ध होंगे। आप “कुमार”, अदानी या अंबानी से पूछना चाहेंगे कि क्या वे ऐसा करेंगे। दोनों तरफ के पहलुओं को देखने के बाद में , सेल्स वाले लोग क्या कहते हैं या क्या वादे करते हैं, के बारे में ज्यादा चिंता नहीं करता। आप अपने सेल्समैनों को उनके कार्य के दौरान देखना नहीं चाहते ठीक वैसे ही जैसे एक प्रतिबद्ध रूप से मांसभक्षी व्यक्ति एक जानवर को कसाई द्वारा काटते हुए नहीं देखना चाहता।
तीसरा तथ्य: मीडिया का प्रभाव अपने वित्तीय आकार या शक्ति से कहीं अधिक है। भारत की सबसे अमीर समाचार मीडिया कंपनी के पास 1 बिलियन डॉलर (या 6,700 करोड़ रुपये) से ज्यादा का कारोबार है। अन्य ज्यादातर कम्पनियाँ करोड़ में चार अंकों के आंकड़े तक भी नहीं पहुंची हैं। रिलायंस के 4.3 लाख करोड़ रुपये या आदित्य बिड़ला समूह के 2.9 लाख करोड़ रुपये या यहां तक कि डीएलएफ के 7,663 करोड़ रुपये से उनकी तुलना करें। यदि हम बिकने को तैयार हैं तो ये टाइकून हमें अपनी जेब के छुट्टे पैसों से खरीद सकते हैं। यह डरावना है कि यदि हमारे सबसे अमीर मालिक लालच में इतने अंधे हो जाते हैं कि वे एक ‘बंटी और बबली’ जैसे ठग को भी नहीं पहचान सकते। बिना किसी वेबसाइट के, बिना किसी पूर्ववृत्त के, बिना किसी डिजिटल पहचान के साथ, बस ऐसे कपडे पहनने और बात करने वाले लोग क्या सैकड़ों करोड़ में सौदा करते हैं? क्या आप या आपके कार्यकारी सहायक अजीब व्यक्तित्व वाले व्यक्ति “आचार्य अटल” से मिलने से पहले उन्हें गूगल नहीं करते हैं? आप भाग्यशाली हैं, उसने आप को ताजमहल नहीं बेच दिया। कोई भी पत्रकार अपने दिमाग को थोड़ा सा ही सक्रिय करके इसे पकड़ लेता ।
चौथा तथ्य: लोग इन बारीकियों को नहीं समझ पाते। जब वे बड़े लोगों को इतना लालची पाते हैं तो वे हम सब को बिक चुके लोगों के रूप में देखते हैं। और जब हम में से कुछ वास्तव में दबाव और धमकी और खतरों का सामना करेंगे, तो हम उनसे संशयवाद का सामना करेंगे: यह स्टिंग इसे और खराब बना देगा। यही कारण है कि खुद के प्रोपगंडा, आत्म-समालोचना और कल्पना से तथ्यों को छानना जरूरी है।
पाँचवां, विचारधारा या राजनीतिक दल के लिए झुकाव, जहाँ मालिक राजनेता बन गए हैं, वे सबसे कम पारदर्शी हैं। मैं स्वीकार करता हूँ कि अधिकांश भाषाओं में बड़ी मुख्यधारा मीडिया ने अपनी स्वच्छता बरकरार रखी है। चैनलों (जिन्हें अरुण शौरी नार्थ कोरियाई चैनल कहते हैं और मैं कमांडो-कॉमिक) के रंग और गंध में घुलमिल जाना बेवकूफी है। हमें इस एक्सपोज़ पर सही प्रश्न उठाना चाहिए लेकिन इसे पूरे संस्थान की विश्वसनीयता को नष्ट नहीं करने देना चाहिए। चाहे जो भी हो, यह अटल और अडिग लोगों (और कई संगठन हैं, और हजारों पत्रकार) द्वारा हमारे जीवन और स्वतंत्रता के लिए लायी गयी अतुलनीय बहुमूल्यता की याद दिलाता है। स्वयं को ही पीड़ा पहुँचाने वाली हथौड़े की कुछ चोटों का मतलब यह नहीं है कि संस्थागत स्तम्भ टूट गया है।
छठा, यह भयानक रूप से बेहूदा, हालाँकि लोकाचार के अनुरूप एक धारणा है कि मुख्यधारा की मीडिया (या सिर्फ एमएसएम) टूटी हुई है और सोशल मीडिया सब रोगों की एक दवा है। एमएसएम द्वारा नरेन्द्र मोदी सरकार को शर्मिंदा करने वाली बड़ी-बड़ी कहानियों को चलाया गया है जिसमें प्रधानमंत्री के कुख्यात सूट की कहानी भी शामिल है। यह मीडिया हाउस के स्वामित्व वाले एक समाचार पत्र द्वारा चलायी गयी कहानी थी, जिसका शीर्ष प्रबंधन मूर्ख दिखाई दिया, और फिर बाद में जब स्पष्टीकरण दिया तो और भी बेवक़ूफ़ नज़र आये। दूसरी तरफ, सभी नकली खबरों का 99 प्रतिशत हिस्सा सोशल मीडिया से निकलता है।
सातवाँ, यह एक खतरनाक भ्रम है कि स्टिंग दर्शाता है कि विज्ञापन-आधारित मॉडल टूट चुका है, चलिए तो कुछ और खोजते हैं: दर्शक अथवा संस्थान जो वित्त प्रदान करें। यह अद्भुत है यदि संगठन वित्त पोषण के नए तरीकों के माध्यम से आगे बढ़ते हैं। वे प्रतिस्पर्धा में वृद्धि करते हैं, गुणवत्ता युक्त बहस करते हैं और इसमें विविधता लाते हैं, पत्रकारों को नियोजित और प्रशिक्षित करते हैं। परन्तु यह मानना काहिलपना है कि ये बाजार-आधारित पत्रकारिता का स्थान ले सकते हैं ठीक वैसे ही जैसे यह मानना कि भीड़ या संस्थान द्वारा वित्त पोषित पत्रकारिता अनिवार्य रूप से गैर-पक्षपातपूर्ण है। लोकोपकार के कारण दि गार्जियन लगातार कायम है। जिस तरफ वह है शायद आप पसंद करेंगे, लेकिन क्या यह गैर-पक्षपातपूर्ण है?
लोकोपकार इस मिश्रण के लिए एक बढ़िया संयोजन है जिस तरह से डिजिटलीकरण ने प्रवेश बाधाओं को कम किया है। लेकिन स्वतंत्रता किसी मंच की मोहताज नहीं होती है। यह एक मंच या समूह के लिए नैतिक श्रेष्ठता का दावा करने के लिए आडम्बरपूर्ण है। यदि हम दृढ़ता के साथ गाय से अधिक पवित्र होने की बात करते हैं, तो गाय ही ज्यादा पवित्र होगी।
आठवां, घटनाओं के नवीनतम मोड़ पर राजनीतिक वर्ग से ज्यादा खुश कोई नहीं है। ट्विटर पर समाजवादी पार्टी के घनश्याम तिवारी ने आनंद के साथ प्रताप भानु मेहता की दुर्भाग्यपूर्ण पंक्ति को दोहराया कि समाचार मीडिया लोकतंत्र के लिए खतरा बन गयी है। मुझे यकीन है कि भाजपा-आरएसएस संस्थान सहमति में तालियाँ बजा रहे हैं। और कांग्रेस? पत्रकारों का मजाक उड़ाने वाला राहुल गाँधी का वीडियो देखें। आप इतने डरे हुए क्यों हैं? तब तक प्रतीक्षा करें जब तक हम सत्ता में वापस न आ जाएँ और अपनी स्वतंत्रता बहाल न कर लें। क्या हम अपनी स्वंत्रता के लिए किसी पार्टी पर निर्भर हैं।
नवां, क्या इस तरह के ‘स्टिंग्स’ ‘खोजी’ पत्रकारिता हैं? बिना किसी पूर्व प्रकटीकरण या पारदर्शिता के साथ या बिना किसी आधिकारिक संबद्धता या उत्तरदायित्व के साथ? कुछ समाचार एजेंसियां स्टिंग्स को पसंद करती और कुछ नहीं (दिप्रिंट सहित)। विकीलीक्स और कैम्ब्रिज एनालिटिका समेत विदेशों के सभी प्रसिद्ध खुलासों ने उन अवैध गतिविधियों का खुलासा किया था जो पहले ही हो चुकी थीं, या गुप्त कैमरों द्वारा रिकॉर्ड किए गये मैच-फिक्सर और क्रिकेटर के बीच सौदे का खुलासा किया था। कई देशों में “छुपे हुए कैमरा और माइक के साथ” एक पत्रकार एक फिक्सर या हथियार एजेंट होने का नाटक करता है और केवल यह जाँचता है कि क्या दूसरा व्यक्ति प्रलोभन में आएगा या नहीं, ऐसी स्थिति में उस पत्रकार पर आपराधिक जालसाजी का मुकदमा चलाया जायेगा। बहस कीजिये यदि यह पत्रकारिता है। विशेष रूप से तब जब आप दूसरे पक्ष द्वारा कुछ कहे बिना ही इसे प्रकाशित कर देते हैं।
और अंत में, हम में से कई अपने नियोक्ताओं के साथ मतभेद रखते हैं। लेकिन हम इसे अपनी पत्रकारिता के बीच में न लायें । साथ ही साथ, ईमानदारी के कहियेगा, क्या सभी नियोक्ता अनाड़ी और चोर हैं। मैंने दो बड़े मीडिया संगठनों में ठीक 37 साल (1977-2014) काम किया। क्या मुझे कभी किसी चीज़ के लिए खबर बेचने के लिए कहा गया था? मुझे अपनी कहानियां बताने में बहुत अच्छा लगता कि मैं कैसा था, लेकिन मुझे रोका गया। मुझे दो अद्भुत नियोक्ताओं द्वारा ऐसा करने से इनकार कर दिया गया था। उनमें से एक ने हमें हमारे शुरुआती जीवन में एक बड़ा मन्त्र भी दिया: आसान धन पर अत्यंत सावधानी से नज़र डालो। मुझे आशा है कि उनका ऐसा करना जारी है।
तो, प्रताप भानु मेहता जी, आपकी भारतीय पत्रकारिता की निधन-सूचना अच्छी है, लेकिन अभी यह समयपूर्व है। यदि लोग आपसे कहते हैं कि हम मर गये हैं, यह खबर झूठी है और हम भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं बने हैं। आप गलत चैनल देख रहे हैं।
Read in English : Death of Indian media is fake news. But scary, some greedy owners fall for a silly con