राष्ट्रीय गंगा नदी (पुनर्जीवन, संरक्षण एवं प्रबंधन) ड्राप्ट बिल 2018, संसद के पटल पर रखा जा रहा है. हर बिल में जुर्माने और सज़ा वाला कॉलम ही लोगों को रूचिकर लगता है. गंगा बिल में तो इसकी भरमार है.
बानगी देखिए- सूरन महतो एक किसान और मछुआरे हैं और डायमंड हार्बर में रहते हैं. वे सीजन पर एक ट्राला (समुद्र में मछली पकड़ने जाने वाली नाव) किराए से लेते हैं और गांव के 20 दूसरे मछुआरों को साथ लेकर मछली पकड़ने समुद्र में जाते हैं. सभी मछुआरों ने मिलकर अपने गांव के पास ही एक जेट्टी जैसा कुछ कच्चा-पक्का ठिकाना बना लिया है, ताकि लौटकर वहीं ट्राला लगा दें और ऐजेंट वहीं से उनकी मछली खरीद लें और दूर मंडी भी न जाना पड़े. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हल्दिया जैसे बड़े बंदरगाह में छोटे व्यापार होते नहीं है और मंडी या स्थापित जट्टी तक जाने में अतिरिक्त डीज़ल और ट्राला किराए की मार झेलनी पड़ती है.
बहरहाल, ड्राप्ट बिल के चैप्टर 13 में सेक्शन 40 कहता है कि गंगा तट पर जेट्टी और बंदरगाह नहीं बनाए जाएगें. अब सूरन महतो और उनके साथियों की बात छोड़िए, यह सोचिए कि उस महान जलमार्ग का क्या होगा जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री ने पिछले साल किया था.
लेकिन गंगा ड्राप्ट बिल आगे कहता है कि आप यह सब बना सकते हैं पूर्व अनुमति लेकर. अब यह सामान्य समझ का विषय है कि अनुमति किसे मिलेगी- जहाजरानी मंत्रालय को या सूरन महतो को. यही हाल बांधों का भी है. गंगा पर कोई भी निर्माण कार्य करने की मनाही है, लेकिन पूर्व अनुमति से बांध बनाए जा सकते हैं. अब इस मासूम एक्ट लिखने वालों से कोई पूछे कि आज तक एक भी बांध बिना सरकारी अनुमति के बना है क्या.
यह भी पढ़ें : पैसे से गंगा साफ होनी होती तो राजीव गांधी बहुत पहले ही कर चुके होते
गंगा पथ पर एक नहीं लाखों सूरन महतो हैं. उन सबका जीवन कठिन होने जा रहा है, क्योंकि गंगा किनारे छोटी जोत की किसानी भी इन्हीं की है और बिना किसी बजटीय समर्थन के उन्हे मज़बूर किया जाएगा कि वे अपने यहां जैविक खेती करें. जिनका संबंध किसानी से है, वे जानते हैं कि हमने अपने वातावरण को इतना ज्यादा खराब कर लिया है कि भिंडी, बैगन, करेले और परवल जैसी सब्जियां बिना पेस्टिसाइड डाले हो ही नहीं सकती. इनमें लगने वाले कीड़ों ने खुद को बेहद मज़बूत कर लिया है. गंगा किनारे पेस्टिसाइड ना डाला जाए यह अच्छा विचार है. लेकिन बिना केमिकल के जमीन को उपजाऊ स्थिती में आने में दस साल लगेंगे, इन सालों में छोटे किसान को यदि कोई मदद नहीं मिली तो वह केमिकल का उपयोग करेगा ही और यह स्थिती सिर्फ भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगी.
सेक्शन 41 तो व्यावसायिक तौर पर मछलियां पकड़ने पर भी रोक लगाता है. यूपी और बिहार में सैकड़ों मछुआरा संघ हैं. यह लोग बड़े पैमाने पर महाजाल डालकर मछलियां पकड़ते हैं. डीजल से चलने वाली नावों पर भी रोक है. बिना वैकल्पिक इंतजाम के लाखों नावों में कांटा डल जाएगा. कुल मिलाकर गंगा के प्रथम हितग्राही मछुआरों को नदी तट पर रहने की कीमत चुकानी होगी.
नल से जल और गंगा बचाने के बीच विरोधाभास
ड्राफ्ट का सेक्शन 41 और 44 भूमिगत जल के दोहन पर रोक लगाता है. गंगा ड्राप्ट बिल कहता है कि गंगा के दोनों किनारों पर एक हजार मीटर तक जल बचत क्षेत्र माना जाएगा. लेकिन जलशक्ति मंत्री गजेंद्र शेखावत तो गंगा तट पर बोरवेल लगाकर हर घर नल जल पहुंचाने की तैयारी कर रहे हैं. विडंबना है, निमंत्रण और निषेध दोनों एक मंत्रालय के तहत हो रहा है. यानी वही कह रहे हैं कि ग्राउंड वाटर नहीं निकालने देंगे और वही निकाल रहे हैं.
सेक्शन 43 कहता है कि गंगा के बाढ़ क्षेत्र में हर तरह की गतिविधि पर रोक है. इस एक्ट को बनाने वालों ने शायद गंगा का बाढ़ क्षेत्र देखा ही नहीं है, गतिविधि तो छोड़िए वहां अच्छी-खासी संख्या में बसाहट है. लाखों लोग गंगा के बाढ़ क्षेत्र में रहते हैं. क्या किसी जादू से रातों रात उन्हें गायब कर दिया जाएगा?
तकनीकी भाषा में रूचि न रखने वाले यह जान लें कि नए एक्ट में किसी घर से निकली नाली के लिए पेनाल्टी है. लेकिन इंडस्ट्रियल नालों के लिए पूर्व अनुमति या शोधित जल का क्लॉज लगाकर अनुमति है.
यह कानून गंगा के पुनर्जीवन, संरक्षण एवं प्रबंधन का दावा करता है. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसमें से सबसे महत्वपूर्ण तत्व ही गायब है, जिसकी वजह से गंगा, गंगा है. यानी इसमें गंगा के गंगत्व (बैक्टेरियो फेज) पर कोई बात नहीं की गई है. इस पूरे एक्ट को इस तरह डिजाइन किया गया है गोया (जैसे कि) गंगा कोई मामूली नदी हो और जिसके पानी को रिसोर्स की तरह उपयोग किया जाना हो. यदि सरकार वास्तव में गंगा एक्ट को लेकर गंभीर है तो उसे इस प्रापर्टी (गंगत्व) पर बात करनी चाहिए. इसमें 17 तरीके के माइक्रो बैक्टेरिया से लड़ने की क्षमता है और इसके लड़ने की क्षमता टिहरी के बाद 90 फीसद तक कम हो जाती है. इस एक्ट में सरकार ने यह मानने से ही मना कर दिया है कि गंगा जल में कोई विशेष गुण होते हैं जिससे गंगा जल कभी खराब नहीं होता.
यह भी पढ़ें : गंगा स्वच्छता के दस कदम, ना तो सरकारों को समझ आते हैं ना ही पसंद
इस गंगा ड्राप्ट बिल में अविरलता और निर्मलता को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया. गंगा ड्राप्ट बिल में कहा गया है कि कानून सुनिश्चित करेगा कि गंगा अविरल बहे. यानी एक मामूली सा दस फीसद जल भी बह रहा है तो वह अविरल गंगा मानी जाएगी. जबकि होना यह चाहिए था कि सरकार न्यूनतम पर्यावरणीय बहाव सुनिश्चित करें. जिसका वादा प्रधानमंत्री ने भी किया है और जिसके लिए जीडी अग्रवाल ने अपनी जान दे दी. इसी तरह निर्मलता का मतलब ट्रीटेड वाटर से है. फैक्ट्रियां अपना वेस्ट यदि ट्रीट करके गंगा में डालेगी तो गंगा निर्मल मानी जाएगी.
गंगा एक सामाजिक-सांस्कृतिक नदी है, जबकि एक्ट में इसे प्राइवेट लिमिटेड टाइप बनाने की कोशिश है. गंगा ड्राप्ट बिल में कहा गया है कि एनएमसीजी को ज्यादा पॉवर दी जाएगी और गंगा प्रोटेक्शन कोर का गठन किया जाएगा. इस प्रोटेक्शन कोर को थोड़ा समझ लिजिए. यह ऐसे कार्यकर्ताओं का समूह (बजरंग दल टाइप) होगा जो लोगों को गंगा में साबुन लगाकर नहाने या फूल माला डालने से रोकेगा. अब अंदाज लगाइये कि घाटों पर क्या हालात होने वाली है. इसी एनएमसीजी की बजाए चुनाव आयोग की तरह एक स्वतंत्र ईकाई बनाई जानी चाहिए जिसकी संवैधानिक वैधता हो और जो गंगा पर सरकार को बाध्यकारी सलाह दे सके.
सूरन महतो इस एक्ट के साथ हीं यह भी समझने की कोशिश कर रहे है कि गंगा के प्रदूषण के लिए वे कैसे ज़िम्मेदार हैं और सज़ा उन्हे ही क्यों मिल रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)