‘दीवार पर लिखी इबारतें’— इस मुहावरे को मैंने अपनी यात्राओं में नए सिरे से मौजूं पाया है, खासकर पिछले 15 वर्षों में भारत के उन हिस्सों की यात्राओं में, जहां चुनाव होने वाले हों. इसकी वजह यह है कि यह उपमहाद्वीप चुनावों के दौरान अपने बड़े पर्व-त्योहारों से भी ज्यादा जीवंत हो उठता है. इस दौरान लोगों के दिमाग में क्या घूम रहा होता है? उनकी आकांक्षाएं, उनकी खुशियां, उनके सरोकार और उनकी आशंकाएं! इन सबको आप उनके इलाके की दीवारों पर लिखी इबारतों से बखूबी समझ सकते हैं. ये इबारतें चित्रों, विज्ञापनों के रूप में भी हो सकती हैं और क्षितिज पर उभरते प्रतीकों, बाड़ों और यहां तक कि मलबों के रूप में भी हो सकती हैं.
अगर आप वाराणसी में हो रहे बदलाव को देखना चाहते हैं तो वहां नए पड़े मलबे पर चहलकदमी कीजिए, कुछ दूरी पर काम कर रहे एक अकेले बुलडोजर और फिर सामने की दीवार पर नज़र दौड़ाइए. कुछ पढ़ने की कोशिश मत कीजिए, क्योंकि वहां पढ़ने को कुछ है नहीं. बस अवशेषों पर गहरी नज़र डालिए और देखिए कि पहले वहां पर क्या था. मेरे युवा साथी सोहम सेन के रेखाचित्रों को देखिए, जो फोटो से बेहतर हैं. या ‘दिप्रिंट’ के इंस्टाग्राम अकाउंट पर वीडियो को देखिए.
इनमें दरवाजों, खिड़कियों, रोशनदानों, अलमारियों के अवशेष दिखेंगे, जिन्हें मानो किसी गोंद से दीवारों में चिपकाकर रखा गया था लेकिन किसी ने बड़ी बेदर्दी से उन्हें उखाड़ दिया हो. अगर आपको आसमान से सीधे यहां उतार दिया जाए तो आपको लगेगा कि आप किसी सनकी-सी कला-रचना के बीच टपका दिए गए हैं. या इसे आप फेविकोल के अटपटे विज्ञापन की शूटिंग के लिए तैयार किया गया सेट भी समझ सकते हैं— इस फेविकोल से आप दो मकानों को ऐसा जोड़ सकते हैं कि बुलडोजर के झटके मकानों को भले गिरा दें, जोड़ नहीं टूटेगा.
यहां दरअसल यही हुआ है. करीब 4.6 हेक्टेयर (11.4 एकड़) क्षेत्र में 300 घर, मंदिर और दूसरी इमारतें खड़ी थीं. ये सब एक-दूसरे से इस कदर सटी हुई थीं और इतने वर्षों में वे आपस में इस तरह जुड़ गई थीं कि ऐसा लगता था मानो वे एक ही साथ बनाई गई हों. इनके आगे से वाराणसी की वे मशहूर या बदनाम पुरपेंच गलियां पसरी थीं, जो इतनी संकरी थीं कि उनमें एक साथ दो से ज्यादा व्यक्ति नहीं गुजर सकते थे. अब वे इतिहास बन गई हैं.
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मोदी के आलोचक कहते हैं कि इस घनी बस्ती को, जिसने हिंदू धर्म के एक सबसे पवित्र एवं प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर को अपने आगोश में बसा रखा था, इसलिए ढहा दिया गया ताकि पूरा हिंदू जगत इस मंदिर का गंगा के घाट से ही दर्शन कर सके. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग अब इस अपेक्षाकृत छोटे-से मंदिर के साथ खड़ी विशाल ज्ञानवापी मस्जिद को भी देखेंगे, जिसे मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने 1669 में मूल काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ कर बनवाया था. यह मस्जिद उग्र हिंदुत्ववादियों की आंखों का कांटा बनेगी और इसे अगला निशाना बनाया जाएगा.
लेकिन मैं इस खतरे को केवल इसलिए कम करके नहीं आंकूंगा कि काशी विश्वनाथ विकास प्राधिकरण (केवीडीए) के 36 वर्षीय सीईओ विशाल सिंह समेत दूसरे सरकारी अधिकारी मुझे यह बताते हैं कि मस्जिद को पहले ही 30 फुट ऊंचे इस्पाती खंभों और आधुनिक हथियारों से लैस सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती से सुरक्षित कर दिया गया है. मेरा दृष्टिकोण यथार्थपरक है. भले ही ऐसा वक्त आ जाए कि सत्ता उद्दंड बहुसंख्यकवादियों के हाथ में हो और संस्थाएं इतनी कमजोर हो गई हों कि वे संविधान की रक्षा करने में विफल हो गई हों, तब भी जो इमारत दबी-छुपी नहीं बल्कि सबकी नज़रों के सामने हो और सबकी पहुंच में हो उसे नुकसान पहुंचाना आसान नहीं होगा.
इसलिए घाटों से मंदिर के दर्शन या मंदिर से घाटों के दर्शन की खातिर उस इलाके के पुनर्विकास और 300 मीटर क्षेत्र की सफाई से मस्जिद को खतरा बढ़ता नहीं है. कुछ स्थानीय मुस्लिम नेताओं ने अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें इन खतरों का जिक्र किया. कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी.
लेकिन बड़ा विरोध तो दरअसल वाराणसी के हिंदू रूढ़िवादियों की ओर से किया गया है. मंदिर के नीलकंठ द्वार से प्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट की ओर जाने वाली संकरी गली से गुजरते हुए स्थानीय लेखक/पत्रकार/बुद्धिजीवी त्रिलोचन प्रसाद से मुलाक़ात होती है. वे भारी गुस्से में हैं— जिसे कभी बदला नहीं जाना था उसे बदलने की हिम्मत कोई कैसे कर सकता है? उन लोगों ने हमारी विरासत को, जो कुछ भी पवित्र था उस सबको नष्ट कर दिया; करोड़ों रुपये बरबाद कर दिए, एक जीवन-पद्धति को नष्ट कर दिया.
आप मोदी को पसंद करें या न करें, वे तो खतरों के खिलाड़ी हैं. अपने चुनाव क्षेत्र में महज 4.6 हेक्टेयर के पुनर्विकास के लिए 296 इमारतों को गिरवाने का फैसला करके उन्होंने सबसे बड़ा जोखिम मोल लिया है. इस तरह उन्होंने न केवल उदारवादियों को चिढ़ाया है बल्कि ब्राह्मण समुदाय के उन सबसे रूढ़ि पंथी जमात को नाराज किया है, जो खुद को शाश्वत एवं अपरिवर्तनीय मानता है. यहां से जिन लोगो को हटना पड़ा है उनमें 90 प्रतिशत तो ब्राह्मण ही हैं. वाराणसी में धार्मिक पंडितों की आबादी का जो प्रति व्यक्ति अनुपात होगा उससे कम अनुपात राजनीतिक पंडितों का नहीं होगा. इनमें से कई पक्के भरोसे के साथ आपको बताएंगे कि मोदी का यह ‘दुस्साहस’ उन्हें 60 से 75 हज़ार वोटों तक का नुकसान पहुंचाएगा.
उस क्षेत्र में पहले क्या था और अब आगे क्या होगा यह समझने के लिए सीईओ साहब के, जिन्होंने अमेरिका के मेरीलैंड यूनिवर्सिटी से मास्टर्स ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की डिग्री हासिल की है, दफ्तर में रखे चार्टों और प्लास्टिक के मॉडलों को देखना जरूरी है. उत्तर प्रदेश विधानसभा में नया कानून बनाकर केवीडीए को 600 करोड़ रुपये दिए गए हैं और पुरानी इमारतों का अधिग्रहण किया गया है. इनके मालिकों को सर्किल रेट का दोगुना मुआवजा देने के लिए 200 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया है, और वे कुल मिलकर संतुष्ट दिखते हैं. अतिरिक्त 15 करोड़ रुपये उन लोगों को भुगतान किए गए हैं, जो इमारतों के मालिक नहीं थे मगर जिन्होंने किरायेदार के रूप में अधिकारों के दावे किए थे. मंदिर के करीब बसे केवल 12 मालिक अभी हटे नहीं हैं.
तोड़फोड़ का काम लगभग पूरा हो चुका है. नए परिसर के लिए मोदी ने 8 मार्च को भूमिपूजन किया. पूरा काम अगले एक साल में खत्म होने की उम्मीद है. अब तक ऐसे 43 मंदिरों का पता लगा है जिन्हें घरों के भीतर प्रायः अतिक्रमण के तौर पर बनाया गया था. जब यह नया मंदिर परिसर बनकर तैयार हो जाएगा तब यह वह परिसर हो जाएगा जिस पर पुरानी वाराणसी अपने सांसद के रूप में पांच साल तक एक प्रधानमंत्री के होते हुए दावा नहीं कर सकी थी— साफ़ सुथरा, आधुनिक, और आसानी से पहुंचने लायक. सवाल यह है कि क्या यह जोखिम उठाने लायक था?
शहरों का आंतरिक विकास भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में शामिल है. इसकी पहली कोशिश संजय गांधी नाम के एक लापरवाह तानाशाह ने, जो कोई सवाल नहीं पूछता था, दिल्ली के तुर्कमान गेट और जामा मस्जिद इलाके में की थी. दूसरी कोशिश एक संप्रदाय के आध्यात्मिक प्रमुख कर रहे हैं, जिनसे कोई सवाल नहीं कर सकता— बोहरा संप्रदाय के सैयदना, जो मुंबई के भिंडी बाज़ार इलाके के पुनर्विकास की 4000 करोड़ रुपये की योजना को लागू करवा रहे हैं. इस कड़ी में तीसरे हैं मोदी, लेकिन वे पहले शख्स हैं जो कानून से लेकर मानमनौवल और खुली झोली का प्रयोग करके यह कोशिश करने में लगे हैं.
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धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी निष्ठा पर तो हम सवाल उठाते ही रहते हैं और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के उनके नारे के खोखलेपन को उजागर करते रहते हैं लेकिन हमें मानना पड़ेगा कि उन्होंने हिंदू धर्म की सामाजिक रूढ़ियों को अहम चुनौती दी है. ‘स्वच्छ भारत’ और ‘खुले में शौच विरोधी’ अभियान इसका एक पहलू है. दूसरा पहलू जिसे हम अब भूल चुके हैं वह गुजरात में सार्वजनिक स्थानों का अतिक्रमण कर रहे मंदिरों को हटाना था, जिसने उन्हें विश्व हिंदू परिषद के मूल अलमबरदार का वैरी बना दिया था. अब काशी विश्वनाथ गलियारे के साथ उन्होंने वाराणसी के रूढ़िपंथी ब्राह्मणों से ‘पंगा’ ले लिया है.
कई विद्वानों और प्रसिद्ध हस्तियों ने वाराणसी के बारे में यादगार बातें कही हैं. सबसे यादगार बात शायद मार्क ट्वेन ने कही है कि ‘बनारस तो इतिहास से भी पुराना है, परंपरा और किंवदंतियों से भी पुराना और इन सबको मिला दें तो उससे भी दोगुना ज्यादा पुराना है.’ लेकिन क्या इसे इससे भी दोगुना गंदा और अस्तव्यस्त होना चाहिए? हिंदू धर्म जिसे सबसे पवित्र और प्राचीन, मोक्ष की नगरी मानता है उसे तो बेशक बेहतर होना ही चाहिए. आज मंदिर की दीवारों के इर्दगिर्द बुलडोजर से जो नया खालीपन बना है उसके बारे में पढ़कर ट्वेन होते तो अचरज में ही पड़ जाते. ये दीवारें बदलाव को उजागर कर रही हैं.
चंद ही लोगों को शक है की मोदी यहां से दोबारा चुने जाएंगे. 23 मई को हम भी यह अनुमान लगाएंगे कि वाराणसी के पंडित उन्हें जिन हजारों वोटों के नुकसान की बातें करते हैं उनके चलते मोदी की हार होती है या नहीं. लेकिन एक साल में जब यह योजना पूरी हो जाएगी तब यह मोदी समर्थक अखिल हिंदू जमात पर जादू कर सकती है. और आप समझ सकते हैं कि मैं इस योजना को लेकर उत्साहित क्यों हूं. यह दूसरे प्राचीन शहरों के लिए एक महान उदाहरण बन सकती है, और उम्मीद है कि यह दिल्ली के चाँदनी चौक को पैदल चलने वालों के लिए सुरक्षित करके उसकी पुरानी शान को लौटाने में मददगार बनेगी.
और, मोदी अगर ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के तौर पर मजबूत होते जाते हैं तो बेहतर यह है कि ऐसा वे मध्ययुग की मस्जिदों को ढहाने की जगह प्राचीन मंदिरों का उद्धार करके बनें.
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मोदी के पवित्र विचारों को श्री योगी ने क्रियान्वित कर हिन्दुओं के महंथो के सड़े हुये अपरिवर्तनीय अंधविश्वासों को तोडने नही, बल्कि उसे सवारने का सुकृत्य किया है । उन्हें क्षणिक झटका भले ही लगे , पर इस सुंदर कदम में वे ही आगे सहयोग करेगें ।।
दी प्रिंट ने निष्पक्ष बिबेचना कर सुंदरता से प्रकाश डाला है , इसके लिये बधाइयाँँ ।