भारत में खुद जजों द्वारा जजों को नियुक्त करने की विवादित व्यवस्था – कोलिजियम सिस्टम – पर यूं तो सवाल उठते रहे हैं. लेकिन इस बार सवाल कहीं और से नहीं, खुद एक जस्टिस की ओर से आया है. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एनवी रमना ने हाल ही में एक कॉन्फ्रेंस में कहा कि ‘जजों की नियुक्ति में विविधता लाने की कोई व्यवस्था नहीं है.’ वे आगे कहते हैं कि ‘अभी जजों की नियुक्ति की जो व्यवस्था है, उससे दिक्कतें हो रही हैं जिसे हर कोई जानता है.’
जस्टिस रमना आठ साल तक सुप्रीम कोर्ट में जज रहे. 16 महीने तक चीफ जस्टिस के तौर पर वे कोलिजियम के हेड भी रहे. रिटायरमेंट के बाद वे बेशक डायवर्सिटी की बात कर रहे हैं, लेकिन जस्टिस रमना के कोलिजियम के चीफ रहने के दौरान (सुप्रीम कोर्ट कोलिजियम यानी चीफ जस्टिस और 4 वरिष्ठ जजों का समूह) की गई जजों की नियुक्तियों को देखें तो उनमें डायवर्सिटी यानी विविधता का गंभीर अभाव नजर आता है.
रमना के सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस रहने के दौरान सुप्रीम कोर्ट में 11 जज नियुक्त हुए. चूंकि सुप्रीम कोर्ट में ज्यादातर जज हाई कोर्ट से आते हैं, इसलिए वे कह सकते हैं कि यहां उनके हाथ बंधे हुए थे. लेकिन हाई कोर्ट में वे एससी-एसटी-ओबीसी के जज ला सकते थे. उनके कार्यकाल में हाई कोर्ट के लिए 242 जजों की नियुक्ति की सिफारिश की गई. इनमें से 240 जज नियुक्त हुए.
जब मैंने इन 240 जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि की जानकारी ली और इसके लिए हर हाई कोर्ट में अपने संपर्कों से बातचीत की तो पता चला कि इनमें से 190 यानी 80 प्रतिशत जज हिंदू सवर्ण जातियों से थे. स्पष्ट है कि रिटायरमेंट के बाद जस्टिस रमना ने जो कहा, उसका तालमेल उनके नेतृत्व में कोलिजियम द्वारा की गई नियुक्तियों के साथ नहीं था.
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जस्टिस रमना के बयान और उनके समय में हुई नियुक्तियों के बीच के अंतर्विरोध से दो बातें निकलकर आती हैं.
1. जस्टिस रमना अच्छी नीयत के चीफ जस्टिस बेशक होंगे, लेकिन कोलिजियम सिस्टम की समस्या जजों की नीयत का नहीं, बल्कि ढांचा, व्यवस्था या संरचना का मामला है. जब तक ये व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक जज या जजों के उदार या विविधता समर्थक हो जाने से कोलिजियम की नियुक्तियों में विविधता नहीं आ जाएगी.
2. जस्टिस रमना ने अपनी बात बहुत देर से कही. इसका सबक ये भी है कि जज न्यायिक आदेश के अलावा जो बातें करते हैं, उसे ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है. सेमिनार और सभाओं में ही नहीं, कोर्टरूम में भी अक्सर वे ऐसी टिप्पणियां करते हैं, जिससे ऐसा लग सकता है कि वे कोई क्रांतिकारी बदलाव करना चाहते हैं, लेकिन ये सिर्फ टिप्पणियां होती हैं. आने वाले चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने तो ये सलाह तक दी है कि – ‘जजों को अपने फैसलों के माध्यम से बोलना चाहिए… मौखिक आदेशों से बचना चाहिए.’
मिसाल के तौर पर कई जज अपने कार्यकाल में और रिटायर होने के बाद भी, न्यायपालिका में लंबे समय से लंबित मुकदमों पर चिंता जताते हैं. जस्टिस रमना भी चीफ जस्टिस रहते हुए, सभाओं में ऐसी चिंता जता चुके हैं. लेकिन पद पर रहते हुए इन जजों को न्याय की सुस्त रफ्तार को ठीक करने के लिए जो करना चाहिए, वह काम वे नहीं करते. पिछले महीने छपी रिपोर्ट के मुताबिक विभिन्न हाई कोर्ट में लगभग 50 लाख मुकदमे पेंडिंग हैं. सुप्रीम कोर्ट में भी सत्तर हजार मुकदमे पेंडिंग हैं. ये भी मुमकिन है कि कोलिजियम सिस्टम से चुनकर आए जज समय में फैसले नहीं दे पा रहे हैं. ये सब चर्चा का विषय होना चाहिए.
बहरहाल जस्टिस रमना के हाल के भाषण से इतना तो साफ है कि कोलिजियम सिस्टम पर विवाद अब सार्वजनिक होने लगा है.
एक अन्य बेहद अशोभनीय विवाद हाल ही में हुआ, जब चीफ जस्टिस यूयू ललित ने पांच जजों को सुप्रीम कोर्ट में लाने की प्रक्रिया शुरू की. एक जज पर तो सबकी सहमति बन गई, लेकिन बाकी चार नामों पर सहमति बनाने के लिए बैठक की जरूरत पड़ी. तय किए हुए दिन कोलिजियम के सदस्य जजों की बैठक नहीं हो पाई, क्योंकि एक सदस्य जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ उस दिन रात नौ बजे तक कोर्ट रूम में मुकदमों की सुनवाई करते रहे. जस्टिस ललित ने कोलिजियम के सदस्यों को पत्र लिखकर उनकी सहमति मांगी तो दो जजों ने सहमति देने से इनकार कर दिया. इस बीच कानून मंत्रालय ने जस्टिस ललित को लिख दिया कि वे अगले चीफ जस्टिस की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करें. इसके बाद कोलिजियम की कोई बैठक संभव नहीं थी. इस तरह सुप्रीम कोर्ट में चार जजों की नियुक्ति नहीं हो पाई.
इस घटना से पहली बार ये वास्तविक रूप में सामने आया कि कोलिजियम के दो जज अगर अड़ जाएं तो सुप्रीम कोर्ट में कोई जज आ ही नहीं पाएगा, क्योंकि इस सिस्टम में कोलिजियम के पांच में से चार जजों की सहमति से ही जजों की नियुक्ति का प्रावधान है.
हमें नहीं मालूम कि चार जजों की नियुक्ति के मामले में कोलिजियम जजों के बीच आपसी तालमेल क्यों नहीं बन पाया. अगर कोई विवाद था तो वह किन बिंदुओं पर था?
इससे भी गंभीर संकट 2018 में आया था जब सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जजों – जे. चलमेश्वर, रंजन गोगोई, कुरियन जोसेफ और मदन लाकुर- ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कामकाज के तरीकों और खासकर केसेस को विभिन्न या पसंदीदा बेंचों को सौंपने को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी और कहा था कि ‘सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन ठीक से नहीं चल रहा है… अगर इस संस्था को न बचाया गया तो देश में लोकतंत्र नहीं बच पाएगा.’ किसी तरह का तालमेल करके सुप्रीम कोर्ट ने उस समय तो संकट से खुद को निकाल लिया, लेकिन इस विवाद के सामने आने से न्यायपालिका की साख को गहरा नुकसान हुआ.
कोलिजियम सिस्टम से बनी भारतीय न्यायपालिका के लगातार संकट में पड़ने के बाद अब इस बात पर विचार होना चाहिए कि क्या इस सिस्टम में किसी सुधार की जरूरत है.
कोलिजियम नियुक्तियां अब सार्वजनिक चर्चाओं में आने लगी है. सुप्रीम कोर्ट के कॉरिडोर में इस बात का मजाक उड़ाया जाता कि है कि किस तरह सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने अपने बहनोई (Brother-in-Law) को जज बनाने की कोशिश की थी. इलाहाबाद हाई कोर्ट में ये घटना हुई थी. रिश्तेदारों को जज बनाया जाना गंभीर समस्या है. सरकार खुद जजों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद पर अपनी चिंता से सुप्रीम कोर्ट को अवगत करा चुकी है.
उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की वर्तमान कोलिजियम व्यवस्था संविधान में नहीं थी. इन नियुक्तियों में 1993 तक कार्यपालिका यानी सरकार की भी भूमिका हुआ करती थी. पहले जजेज केस यानी एसपी गुप्ता बनाम भारत सरकार (1981) में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति चीफ जस्टिस से परामर्श करेंगे, लेकिन चीफ जस्टिस की राय मानने के लिए वे बाध्य नहीं हैं.
इसके 12 साल बाद, 1993 में दूसरे जजेज केस में ये व्यवस्था पलट दी गई और कोलिजियम व्यवस्था लाई गई. इसमें न्यायिक नियुक्तियों को जजों ने पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया और राष्ट्रपति यानी वास्तविक अर्थों में सरकार की भूमिका खत्म कर दी गई. कोलिजियम ने अगर अपनी सिफारिश दूसरी बार भेज दी तो राष्ट्रपति के लिए उसे मानना बाध्यकारी बना दिया गया. तीसरे जजजे केस में सुप्रीम कोर्ट ने दिशानिर्देश दिए कि कोलिजियम किस तरह काम करेगा.
कोलिजियम सिस्टम में दो मुख्य समस्याएं हैं जिसके कारण उसमें सुधार की मांग तेज हो रही है
1. कोलिजियम सिस्टम के जरिए न्यायपालिका ने राष्ट्रपति के अधिकार अपने हाथ में ले लिए हैं. ऐसा संविधान के संबंधित प्रावधानों में संशोधन के बिना किया गया है. खासकर अनुच्छेद 124 को, जिसमें व्यवस्था दी गई है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के जजों के परामर्श यानी सलाह से करेंगे. ये प्रावधान जजों की सलाह को बाध्यकारी नहीं बनाता है. परामर्श या सलाह को मानना बाध्य कैसे हो सकता है?
2. कोलिजियम सिस्टम के संकट और उसकी खामियां उजागर हो गई हैं. जजों की नियुक्ति की व्यवस्था में बदलाव समय की मांग है. नियुक्ति की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिसमें न्यायपालिका और सरकार तथा संसद तीनों की भूमिका हो. व्यवस्था में चेक और बैलेंस हो यानी असंतुलन और मनमानी रोकने की क्षमता सिस्टम में होनी चाहिए.
नरेंद्र मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस क्षेत्र में सबसे पहले सुधार करना चाहा था, वह क्षेत्र न्यायिक नियुक्तियों का ही था. इसके लिए संसद ने नेशनल ज्यूडिशियल एप्वांटमेंट कमीशन एक्ट 2014 और संबंधित 99वां संविधान संशोधन पारित किया गया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इनको निरस्त कर दिया.
नरेंद्र मोदी सरकार को अपनी इस महत्वकांक्षी परियोजना पर फिर से काम शुरू करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने जिन बिंदुओं पर इस कानून को संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ माना, उसमें संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल एप्वांटमेंट कमीशन विधेयक नए सिरे से संसद में पेश करना चाहिए. नियुक्ति आयोग में न्यायपालिका, सरकार, विपक्ष, और एससी/एसटी/ओबीसी आयोग के प्रतिनिधि होने चाहिए.
स्वस्थ और विश्वसनीय तथा विविधतापूर्ण न्यायपालिका लोकतंत्र के सुचारू रूप से चलने के लिए आवश्यक है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और मीडिया व सोशियॉलजी पर किताब लिखी है. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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