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Monday, 23 December, 2024
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बहुमत नहीं मिलने के डर से घबराए पीएम मोदी, चले वाजपेयी की राह

मोदी और शाह दिग्गजों को ध्वस्त करने और तमाम राजनीतिक अवसरों को हथियाने वाले नेताओं की अपनी छवि को चुपचाप बदल रहे हैं.

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नरेंद्र मोदी को आलोचक भले ही मात्र एक दबंग नेता के रूप में देखते हों, पर वास्तव में वह अपनी छवि बदलने में माहिर हैं. मोदी अतिवादी हिंदुत्व के प्रतीक से बदलकर विकास के लिए चर्चित व्यक्ति बन गए. उन्होंने खुद को एक क्षेत्रीय गुजराती नेता से अखिल भारतीय स्तर के जननेता के रूप में बदल लिया. अब वह एक और छवि परिवर्तन की प्रक्रिया में हैं. वह क्षेत्रीय दलों और सहयोगी पार्टियों के साथ अच्छा व्यवहार कर रहे हैं, जिससे ये संकेत निकलता है कि 2019 के मोदी 2014 के मोदी जैसे नहीं होंगे.

2014 के शुरुआती महीनों में चलाए जा रहे भाजपा के अभियान को ‘मिशन 272+’ कहा गया था. यह इस मंशा का इजहार था कि भाजपा अपने दम पर कम-से-कम 272 सीटें जीतना चाहती है. यह इस बात की खुली घोषणा थी कि भाजपा सहयोगी दलों पर निर्भर नहीं रहना चाहती है. लेकिन मोदी ने चुनाव के बाद अहंकार में एनडीए गठबंधन को खत्म नहीं किया. वह जानते थे कि भावी चुनावों में उन्हें इसकी ज़रूरत पड़ेगी.

आजकल हम जो देख रहे हैं वो ‘मिशन 272 माइनस’ है. भाजपा क्षेत्रीय सहयोगी दलों को खुश रखने की कोशिश कर रही है, उनके लिए जगह बना रही और सीटें छोड़ रही है. यह इस बात की स्वीकारोक्ति है कि इस बार शायद वह 272 सीटें नहीं जीत पाए. यह उस पार्टी की विनम्रता है जिसने कि पिछले पांच वर्षों के दौरान क्षेत्रीय दलों के प्रति विनम्र भाव का कतई प्रदर्शन नहीं किया.

एकदलीय शासन

हर कोई थोड़ा कम एकपक्षीय प्रधानमंत्री चाहेगा, यहां तक कि भाजपा वाले भी. इसी बात पर तो नितिन गडकरी जैसे व्यक्ति को उम्मीद दिखती है. आखिर गडकरी के बड़े और छोटे, विपक्षी और सहयोगी, हर राजनीतिक दल से अच्छे संबंध रहे हैं.

मोदी की छवि एक एकाकी व्यक्ति की रही है जो अपनी बात मनवाना चाहता है, जो सहमति बनाने की परवाह नहीं करता. उन्होंने नोटबंदी की घोषणा करने से पहले रिज़र्व बैंक की स्वीकृति तक का इंतज़ार नहीं किया!
बहुत से आलोचक काफी पहले घोषित कर चुके हैं कि ‘मोदी किसी गठबंधन के नेता नहीं हो सकते.’ कोई भी क्षेत्रीय दल मोदी के मंत्रिमंडल में भला क्यों रहना चाहेगा जब मोदी के मंत्रियों को हाल के वर्षों के सर्वाधिक कमज़ोर केंद्रीय मंत्रियों के रूप में देखा जाता हो? पीडीपी हो या शिवसेना, सब अनुभव कर चुके हैं कि मोदी और अमित शाह सहयोगी दलों के साथ कितना बुरा व्यवहार करते हैं. भारत को एकदलीय राष्ट्र बनाने की उनकी आकांक्षा किसी से छुपी नहीं रही है (याद करें अमित शाह की ‘विस्तार यात्राओं’ को).


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एक समय तो प्रधानमंत्री मोदी ने ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के डरावने विचार के लिए भी समर्थन जुटाने की कोशिश की थी. वह चाहते थे कि आम चुनाव के साथ ही सारे राज्यों के चुनाव भी हों ताकि भाजपा स्थानीय कारकों पर हावी हो जाए और एक ही साथ सारे राज्यों के चुनाव भी जीत जाए, फिर मोदी एक राजा की तरह शासन कर सकें.

2018: मोदी को बदल देने वाला साल

दिसंबर 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद, यह साफ हो गया था कि ब्रांड मोदी थोड़ा पिछड़ने लगा है. लोग तब भी मोदी के बारे में अच्छी बातें करते थे, पर उनके आर्थिक कुप्रबंधन से लोगों को इतनी परेशानी होने लगी थी कि उन्होंने चुनाव में भाजपा के लिए स्थिति मुश्किल कर दी और मई 2018 में कर्नाटक चुनाव में अपने पक्ष में एकतरफा परिणाम लाने में भाजपा की नाकामी के बाद यह साफ हो गया था कि मोदी लहर थमती जा रही है.

उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा गठजोड़ के कारण सीटें छिनने की आशंका ने भाजपा की चिंता को और बढ़ा दिया. वैसे भी, हिंदी पट्टी में पार्टी 2014 में ही अपने चरम पर पहुंच चुकी है.

हर राज्य में रियायतें देने को बाध्य

जुलाई 2018 में अमित शाह ने तमिलनाडु में कहा था, ‘हम अपने मौजूदा सहयोगी दलों को सम्मान देंगे और लोकसभा चुनावों से पहले नए सहयोगी बनाएंगे और राष्ट्र को एक साफ-सुथरी सरकार देंगे.’

पिछले साल अक्टूबर में अमित शाह ने घोषणा की थी कि भाजपा बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल (यू) के साथ बराबर की भागीदारी करेगी. हालांकि, 2014 में भाजपा ने राज्य की 40 सीटों में से 22 सीटें जीती थी और बगैर नीतीश कुमार के एनडीए को राज्य में कुल 31 सीटें मिली थीं. नीतीश कुमार को बराबर के सहयोगी का दर्ज़ा देकर और दोनों दलों के 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ने, यानि भाजपा के पांच सीटें छोड़ने, की घोषणा कर पार्टी ने एक बड़ा संदेश दिया. अब पार्टी क्षेत्रीय सहयोगी दलों को सम्मान देने की बात पर अमल करने को तैयार थी.


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अमित शाह ने महाराष्ट्र के भाजपा-शिवसेना गठजोड़ को भी इसी तरह बचाया. भाजपा राज्य की 25 सीटों पर और शिवसेना 23 पर चुनाव लड़ेगी. उनके बीच इस बात पर भी सहमति हो चुकी है कि दोनों दल इसी साल आगे होने वाले विधानसभा चुनावों में बराबर संख्या में सीटों पर चुनाव लड़ेंगे.

नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु में हाल ही में कहा कि वह पुराने दोस्तों का हमेशा स्वागत करेंगे. उनका इशारा डीएमके की ओर भी हो सकता था! तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और पीएमके के साथ गठजोड़ भाजपा के ये साबित करने के प्रयास के तहत हुआ है कि वह भारत के किसी भी हिस्से के दल के साथ गठबंधन बना सकती है और उसका नेतृत्व कर सकती है.


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झारखंड में भी इसने ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन से गठजोड़ करने के लिए एक सीट पर अपना दावा छोड़ दिया.
भाजपा उत्तरप्रदेश में छोटे सहयोगी दलों को मनाने का प्रयास लगभग पूरा कर चुकी है. इसने तेलंगाना में टीआरएस और आंध्रप्रदेश में वायएसआरसीपी को तटस्थ बना दिया है.

उत्तर प्रदेश में अपने छोटे सहयोगी दलों को खुश करने का काम भाजपा लगभग पूरा कर चुकी है. इसने तेलंगाना में टीआरएस और आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी के राजनीतिक विरोध होने की धार को कम दिया है.

कांग्रेस का अहंकार

जिस तत्परता से भाजपा ने अपने गठजोड़ किए हैं, उसके कारण अब कांग्रेस पार्टी गठबंधन राजनीति करने में असमर्थ दिखने लगी है. कांग्रेस अपने कई प्रमुख सहयोगी दलों के साथ सीटों के बंटवारे के समझौते को अंतिम रूप नहीं दे पा रही है. उसे उत्तप्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन से अपमानजनक तरीके से बाहर रखा गया और मात्र अमेठी और रायबरेली की सीटें उसके लिए छोड़ी गईं.

यहां भाजपा और कांग्रेस में यही अंतर है कि भाजपा झुकने के लिए और बदली वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए तैयार है. वह राज्य विधानसभा के पिछले चुनावों के परिणामों और जमीनी हकीकत के अनुरूप बदलने के लिए तैयार है. भाजपा अपनी क्षमता से ज़्यादा भार उठाने की कोशिश नहीं कर रही है. ज़रूरत पड़ने पर वह अपमान सहने को भी तैयार है. मोदी-शाह का ये वाला पक्ष हमें पहले देखने को नहीं मिलता था.


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दूसरी ओर, बुरे हाल में होने के बाद भी कांग्रेस अपना अहंकार नहीं छोड़ पा रही है. राहुल गांधी ममता की रैली में नहीं जाते, वह हताश आम आदमी पार्टी के साथ समझौते का बिंदु नहीं ढूंढ सकते, वह अखिलेश यादव का कॉल नहीं उठाते. एनडीए की एकजुटता का सूचकांक पहले ही विपक्षी एकता के सूचकांक से ऊपर पहुंच चुका है.

मोदी सफलतापूर्वक अपनी छवि बदल रहे हैं और वाजपेयी की तरह गठबंधन के सहयोगी दलों को संभालने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि कांग्रेस प्रतिगामी रुख अपना रही है और दुस्साध्य बन रही है, हालांकि इसे समझौतापरक बनने की कहीं ज़्यादा दरकार है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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