राजनीति के छात्र अक्सर मतदाताओं को एक सरल द्विविकल्पी आधार पर बांटते हैं: वे जो हमारी विचारधारा के साथ हैं और जो उसका विरोध करते हैं. आज भारतीय राजनीति को ज्यादातर लोग इसी तरह देखते हैं. आप या तो नरेंद्र मोदी के विरोधी हैं या नरेंद्र मोदी के समर्थक.
थोड़ी और बारीकी से देखा जाए, खासकर चुनावी व्यवहार को ध्यान में रखते हुए, तो समाज में दो तरह के वोटर हैं: निश्चित/ठोस मतदाता और अनिश्चित (स्विंग) मतदाता. इस तरह की सोच में इस मान्यता को महत्व दिया जाता है कि वैचारिक रुझान को लेकर हर कोई उतना सख्त नहीं होता है जितना कि विचारक माना करते हैं.
वामपंथी विचारकों की एक अजीब समस्या ये है कि वे वैचारिक शुद्धता पर ज़ोर देते हैं और वैचारिक अशुद्धि वालों को अलग-थलग करने की कोशिश करते हैं. इस तरह के ‘कट्टरपंथ’ में किसी को सहमत करने की कोशिश नहीं की जाती है और केवल अपनी वैचारिक आत्मतुष्टि पर मुदित हुआ जाता है. नई पीढ़ी (मिलेनियल) इसे बहिष्कार की संस्कृति या ‘कैंसल कल्चर’ कहती है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक नवोदित बुद्धिजीवी ने एक बार मुझे बताया था कि आरएसएस किस तरह अपने उद्देश्यों के प्रति लोगों को राज़ी करने की कोशिश करता है. ‘हम अपने विरोधियों को हमारे प्रति तटस्थ बनाने, तटस्थ लोगों को समर्थकों में बदलने और समर्थकों को स्वयंसेवकों के रूप में ढालने की कोशिश करते हैं.’
इस त्रिस्तरीय प्रक्रिया में, सिद्धांतत: ही सही, हर किसी को– प्रत्येक व्यक्ति को उनके उद्देश्यों को लेकर समझाने की कोशिश की जाती है. वाशिंग मशीन की तरह, अंत में पूरी सफाई होनी चाहिए. कोई भी विरोधी नहीं रह जाएगा क्योंकि हर किसी को राज़ी कर लिया जाएगा. कभी-कभार की हिंसा उनके पक्ष में सर्वसम्मति बनाने के लिए ही होती है.
ध्यान रहे कि आरएसएस/भाजपा गैर-हिंदुओं पर हिंदुओं के वर्चस्व के अपने उद्देश्य के लिए अपनी घृणा के केंद्रीय पात्र मुसलमानों का भी साथ लेना चाहते हैं.
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आलोचकों को बेअसर करना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में, भाजपा और उसकी सहयोगी हिंदूवादी ताकतें अपने दलित विरोधी रुख को छिपाने में असमर्थ रही थीं. हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा की घटनाएं सामने आई थीं: 2016 में गुजरात के ऊना में दलितों पर हमला, 2018 में महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव प्रकरण और अप्रैल 2018 में उत्तर प्रदेश और राजस्थान सहित विभिन्न उत्तर भारतीय राज्यों में हिंसा.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कमजोर किए जाने के विरोध में नरेंद्र मोदी सरकार शुरू में मुखर नहीं थी और काफी दबाव के बाद ही वह कोर्ट के फैसले को पलटने के वास्ते कानूनी उपायों के लिए बाध्य हुई.
नरेंद्र मोदी और भाजपा को दलित विरोधी घोषित किए जाने पर चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि वैसे भी बहुत कम दलित भाजपा को वोट देते हैं— 2019 में 34 प्रतिशत. सहज राजनीतिक समझ तो यही रही होगी कि ‘जब वे हमें वोट देते ही नहीं तो दलितों की चिंता क्यों करें? उच्च जातियों और ओबीसी के वोट ही बहुमत के लिए पर्याप्त हैं.’
क्या दलितों के पांव धोने की वजह से मोदी को उनके वोट मिलेंगे?
फिर भी, प्रधानमंत्री मोदी जानते थे कि दलित विरोधी की छवि से उन्हें नुकसान हो सकता है, भले ही दलित वोट अधिक महत्वपूर्ण नहीं हों. दलित विरोधी छवि उनके द्वारा गढ़े गए कथानक के लिए खतरा थी. ‘दलित मोदी के खिलाफ हैं’ का लोकप्रिय भाव व्यापक एंटी-इनकंबेंसी की भावना को हवा दे सकता था. इसलिए अपने चुनाव अभियान में मोदी ने भाजपा के खिलाफ दलितों के गुस्से को अप्रभावी बनाने या कम-से-कम हिंदुत्व की दलित विरोधी छवि से खुद को दूर रखने के लिए कई तरह से प्रयास किए थे.
इन पहलकदमियों में प्रमुख थी 2019 के कुंभ मेले के दौरान प्रधानमंत्री का दलित सफाईकर्मियों के पांव धोना. आपको शायद ही कोई दलित ऐसा मिले जिसने कुछ दलितों के पांव धोने की वजह से मोदी को वोट दिया हो. उलटे आपको दिखावे के उस कार्यक्रम की निंदा करने वाले अनेक दलित मिल सकते हैं. लेकिन मोदी की उस पहल ने ‘विरोधियों को बेअसर’ करने का काम किया था. यदि किसी गांव का कोई दलित मोदी को दलित विरोधी बताता, तो एक भाजपा समर्थक उससे सवाल कर सकता था कि यदि ऐसा होता तो फिर मोदी दलितों के पांव क्यों धोते?
आखिरकार कुछ दलितों ने मोदी को वोट भी दिए जो निचले तबके के लोगों के लिए उनके कल्याणकारी कार्यक्रमों (जैसे, आवास संबंधी योजना) से प्रभावित थे या उन्हें लगा कि हर कोई वैसे भी मोदी को ही वोट देने जा रहा है.
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दिशा बदलने की विनम्रता
मोदी हमेशा ऐसा करते हैं, वे ऐसे किसी मुद्दे को अप्रभावी बनाने के लिए कदम उठाने से हिचकते नहीं जो कि उनकी आलोचना की वजह बन सकता है. 2014 से पहले, उन्होंने उन लोगों को चुप कराने के लिए एक विशाल प्रोपेगेंडा अभियान चलाया था जो कि उन्हें 2002 के गुजरात दंगों के लिए ज़िम्मेदार ठहराते थे. जब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध शुरू हुआ तो प्रधानमंत्री ने खुद को एनआरसी से अलग कर लिया और एक रैली में लोगों से ‘विभिन्नता में एकता, भारत की विशेषता ’ के नारे लगवाए.
जब मोदी को लगा कि ऊंची जातियों को लगता है कि वे उन्हें गंभीरता से नहीं लेते, तो उन्होंने उनके लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था की. जब उन्होंने देखा कि कृषि ऋण माफी के वादे से कांग्रेस को राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में जीत में मदद मिली है, तो उन्होंने छोटे किसानों के लिए नकदी हस्तांतरण योजना की घोषणा की.
ये सब सर्वविदित हैं. जिस बात पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता वो ये है कि मोदी कैसे आलोचकों और आलोचनाओं को बेअसर करते हुए लगातार कमजोरियों और चुनौतियों से लड़ते रहते हैं. यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है, जब आप कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियों को ऐसा करने में असमर्थ पाते हैं. जब मोदी को अपने नाम की बुनाई वाला महंगा सूट पहनने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी, तो उन्होंने उस सूट को चैरिटी के लिए नीलाम करा दिया. अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता, तो वो सूट 2019 में भी चुनावी मुद्दा बन सकता था. लेकिन आलोचकों को तुरंत चुप करा दिया गया था.
मोदी के आलोचक अक्सर उन्हें अहंकारी बताते हैं. बेशक वह एक सख्त नेता के रूप में देखा जाना पसंद करते हैं जो हर हाल में अपनी बात मनवा लेता है. लेकिन सच तो ये है कि वह आलोचना को लेकर अतिसंवेदनशील हैं और इस बारे में शीघ्रता से कदम उठाते हैं. बड़ी से बड़ी भूलों का मोदी पर असर नहीं पड़ने यानि उनकी ‘टेफ्लॉन कोटिंग’ की इस वजह को उतना महत्व नहीं मिल पाया है. इसका बिल्कुल विपरीत उदाहरण हैं राहुल गांधी, जो लगता नहीं कि ये मानते हैं कि उनसे भी कोई भूल हो सकती है क्योंकि शायद ही कभी वे अपने रवैये को बदलते हैं. आलोचना से निपटने के लिए आलोचना को स्वीकार करने की विनम्रता होनी चाहिए.
हर आलोचना से निपटा जाना चाहिए
नरेंद्र मोदी जब 2014 में सत्ता में आए, तो तत्काल उन्होंने विदेश नीति को लेकर आश्चर्यजनक जुनून दिखाया और उसमें विदेश यात्राएं भी शामिल थीं. इसमें धारणाओं संबंधी एक जोखिम था कि मतदाताओं को ये लगेगा कि ‘वह हमेशा विदेश घूमते रहते हैं’. इससे निपटने के लिए, जवाब तुरंत तैयार कर लिया गया: प्रधानमंत्री दुनिया में भारत की छवि मज़बूत करने के लिए विदेश यात्राएं करते हैं. इस तरह जो बात आलोचना की वजह बन सकती थी, उसे सफलता के मानदंड में बदल दिया गया.
राहुल गांधी भी अक्सर विदेश यात्राएं करते हैं और नरेंद्र मोदी के विपरीत उनके पास आधिकारिक काम का बहाना भी नहीं होता. राहुल गांधी की इस बात के लिए इतनी अधिक आलोचना होती है कि भाजपा के प्रवक्ताओं ने अब उनके लिए ‘बैंकाक’ को एक विशेषण के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.
मोदी और भाजपा के विपरीत, राहुल गांधी और कांग्रेस के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि वह इतनी बार विदेश यात्राएं क्यों करते हैं. कभी-कभी वे इसके पीछे पारिवारिक कारण या अनिवासी भारतीयों से मेलजोल की बात का उल्लेख कर सकते हैं लेकिन ये पूरे साल की दर्जनों यात्राओं और लंबे समय तक गायब होने के बारे में संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं हो सकता. यह उन आलोचनाओं में से एक है जिन्हें कि कांग्रेस पार्टी गंभीरता से लेते हुए ‘बेअसर’ करने का प्रयास नहीं करती है.
यदि कांग्रेस का नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे होते तो वह अपना समय, संसाधन और ऊर्जा सर्वप्रथम उन आलोचनाओं के जवाब में लगाते जिनका कि पार्टी को सामना करना पड़ रहा है. 1984 के सिख विरोधी दंगों से लेकर राहुल गांधी की छुट्टियों तक, वह पार्टी की तमाम आलोचनाओं के विरुद्ध विश्वसनीय प्रतीत होते जवाबों के साथ सामने आते– भले ही वो बयानबाज़ी मात्र होती. और वह ये भी सुनिश्चित करते कि उनके जवाब सभी मतदाताओं तक पहुंचें– हर किसी को उनकी जानकारी हो.
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प्रसार पर नियंत्रण
मोदी का इस तरह ‘जवाब देना’ विरोधियों के साथ संवाद की प्रक्रिया की तरह है, जिसे तर्क-वितर्क कहा जाता है यानि दलीलों और विचारों के साथ बहस करना. इसका मकसद है किसी भी रूप में मोदी के समक्ष आ सकने वाले विरोध को कमज़ोर करना. विरोधी तो हमेशा होंगे लेकिन वे उन्हें किस हद तक उखाड़ फेंकना चाहते हैं? उनको हटाने के लिए वे कितने बेताब हैं? गुस्सा जितना ही अधिक होगा– भले ही समाज के एक छोटे से तबके में– आगे चलकर एक दिन पूरे समाज में उसके फैलने का जोखिम उतना ही बड़ा होगा.
इस विचार का अनुसरण केवल प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि उन्हें प्रशिक्षित करने वाला संगठन आरएसएस भी करता है. उदाहरण के लिए, याद करें 2018 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा ‘उदारवादियों’ तक पहुंचने का प्रयास, जिसके जरिए उन्होंने आरएसएस को एक क्रियाशील संगठन के रूप में दिखाने का प्रयास किया था जो कि अपने रवैये पर पुनर्विचार करने और समय के साथ बदलने के लिए तैयार है. एक बार फिर, यह आरएसएस का उदारवादियों द्वारा उसकी प्रखर आलोचना को ‘बेअसर’ करने का प्रयास था.
क्या आप कांग्रेस द्वारा हिंदुत्व समर्थक बुद्धिजीवियों के साथ बैठक करने की कल्पना भी कर सकते हैं?
(लेखक दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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