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Monday, 25 November, 2024
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हिंदू दक्षिणपंथ का रुख अमेरिका विरोधी हो गया, मगर भारत को नारों के बदले हकीकत पर गौर करने की दरकार

कुछ साल पहले तक हिंदू दक्षिणपंथ मोटे तौर पर अमेरिका का हिमायती था, अब जो बाइडन को भारत का नहीं तो उस भारत का शर्तिया विरोधी माना ताजा है जिसे मोदी के समर्थक बनाना चाहते हैं

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अमूमन मैं विदेश नीति के बारे में ज्यादा नहीं लिखता हूं क्योंकि सैकड़ों-शायद उससे भी ज्यादा-लेखक हैं, जिन्होंने अपना जीवन भारतीय विदेश नीति को समझने में लगाया है और अपनी राय जाहिर करने से कभी हिचकते नहीं. मैं दुविधा में हूं कि क्या अब मैं ऐसा कुछ कहने जा रहा हूं जो विशेषज्ञ पहले ही नहीं कह चुके हैं?

लेकिन कई बार विदेश नीति और दुनिया के मामले हमें अपने देश की दशा-दिशा के बारे में बहुत ही मामूली-सा बता पाते हैं. आज कुछ वैसा ही दौर है. पिछले हफ्तों में मैं यूक्रेन में रूसी आक्रमण के प्रति सत्तारूढ़ बिरादरी के तबकों की प्रतिक्रिया से चकित हो गया.

मोटे तौर पर तीन राय है.पहली प्रतिक्रिया तो बिलकुल पश्चिम जैसी ही है कि व्लादिमीर पुतिन भला यूक्रेन पर आक्रमण करने वाले कौन होते हैं, कि उनकी जायज शिकायतें थीं तो विवाद ताकत के बल पर नहीं सुलझाए जा सकते और यूक्रेन के लोगों ने एक परमाणु ताकत को आगे बढऩे से रोकने में बहादुरी (कम से कम अभी तक) का परिचय दिया है.

इसके अलावा एक दूसरी प्रतिक्रिया है. हां, यह सब सच हो सकता है, मगर भारत की विदेश नीति तो अपने राष्ट्रीय हित से जुड़ी होनी चाहिए, न कि सही या गलत देखकर. (जैसा कि शेखर गुप्ता ने यहां कुछ दिन पहले बड़े अच्छे ढंग से पेश किया कि विदेश नीति नैतिकता के बारे में नहीं, बल्कि भारत के लोगों के हित को ध्यान में रखकर कार्रवाई करने की होती है)

जब मामला इस टकराव पर आता है तो हमारे हाथ बंध जाते हैं. रूस हमारे हथियारों का बड़ा सप्लायर है. हम रूस से सिर्फ हथियार ही नहीं खरीदते, बल्कि कल-पुर्जे और गोला-बारूद भी खरीदते हैं और हमारे मौजूदा उपकरणों की मरम्मत भी वही करता है. रूस के खिलाफ खड़े होने से हमारे सशस्त्र बल पंगु हो जाएंगे. हमारे पास रूस की आलोचना से परहेज करने के अलावा कोई चारा नहीं है.

इन मोटे नजरियों में कुछ महीन फर्क भी हेै. जैसा शशि थरूर बताते हैं कि हम अपने राष्ट्रहित को सिर्फ हथियारों की खेप के संदर्भ में ही परिभाषित नहीं कर सकते. अगर भारत दूसरे देश पर आक्रमण का विरोध करने में नाकाम रहता है तो क्या हम अपने लंबे समय के हित का बलिदान नहीं करते हैं? क्या होगा, अगर चीन अरुणाचल प्रदेश में घुस आता है और उस पर कब्जा जमा लेता है? क्या तब हमारे पास दुनिया से यह कहने का अधिकार रहेगा कि हमें मदद करो? या, क्या हमने अब यूक्रेन पर हमले की आलोचना करने से इनकार करके उस अधिकार से हाथ झाड़ लिया है?

लेकिन अतीत से एकदम अलग नजरिए वाला तीसरा रुख है. यह रुख खूब मुखर होकर उस मीडिया ने अपनाया है, जिसे मोटे तौर पर भाजपा समर्थक कहा जाता है. उसके खुले अमेरिका विरोध और राष्ट्रपति पुतिन के समर्थन पर गौर किया जाना चाहिए. यह भारत सरकार का आधिकारिक रुख नहीं है, लेकिन यह समझना वाकई मुश्किल है कि कैसे मीडिया में लगभग सभी सरकार समर्थक बिना आधिकारिक शह के यह रुख अपना सकते हैं.


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अमेरिका के खिलाफ हिंदू दक्षिणपंथ

तीसरी आलोचना की बुनियादी दलील यह है कि दूसरे देशों में लोगों के अधिकारों के समर्थन का अमेरिकी इतिहास खराब रहा है, कि उसने रूस को यूक्रेन पर हमले के लिए ‘उकसाया’ वगैरह-वगैरह. अमरीका का असली इरादा यूक्रेन के लोगों की मदद करने का नहीं है. वह बस रूस को नुकसान पहुंचाना चाहता है. कुछ दूसरे कह रहे हैं कि रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया है. वे लोग सुविधाजनक तरीके से सोवियत संघ के साथ रूस को जोड़ देते हैं.

आप टीवी न्यूज की चीख-चिल्लाहट और कुछ ज्यादा ही उछाले गए नारों-जुमलों से अलग हटिए, तो अमेरिका की कुछ आलोचना तो एकदम जायज है. तू-तू, मैं-मैं की बहस खतरनाक हो सकती है, मगर यह तो वाकई सच है कि नैतिक मायने में जॉर्ज डब्लू. बुश का इराक पर हमला पुतिन के यूक्रेन पर हमले से बहुत अलग नहीं था. इसलिए, क्यों पुतिन इतना बुरा है और बुश नहीं? इसके अलावा, भारत से अमेरिका की कुछ अपेक्षाएं वाजिब नहीं हैं. जब नाटो देश रूस से ईंधन खरीदना जारी रखते हैं तो हम रूस से तेल क्यों नहीं खरीद सकते?

अमेरिका की इस निंदा के बारे में सबसे दिलचस्प यह है कि यह किस खेमे से आ रही है. कुछ साल पहले तक, हिंदू दक्षिणपंथ (बेहतर शर्तों के खातिर) मोटे तौर पर अमेरिका समर्थक था. आज जिस सोवियत संघ को भारत का महान दोस्त बताया जा रहा है, उसे तिरस्कृत नेहरू-गांधी खानदान के सहयोगी के रूप में देखा जाता था.

दरअसल दक्षिणपंथ नहीं, वामपंथ परंपरा से अमेरिका से किसी तरह के रिश्ते के खिलाफ था और उसने भारत-अमेरिका परमाणु करार का भी विरोध किया था, जो साफ-साफ भारत के हित में था. (अब यह आपके नजरिए पर निर्भर है कि उस करार के वामपंथी विरोध को कम्युनिस्ट आंदोलन का आखिरी हल्ला बोल कहें या राष्ट्रीय मंच पर अंधियारे की दिशा में बढ़ते जाने का आखिरी कदम).

जब जॉर्ज बुश ने 1990 में कुवैत को आजाद करने के लिए पहला खाड़ी युद्ध शुरू किया तो भारत के वामपंथ ने उसी तरह तीखा विरोध किया था, जैसा आज दक्षिणपंथ जो बाइडन का कर रहा है.

तो, क्यों अचानक हिंदू दक्षिणपंथ अपने जीवन भर के पूर्वाग्रहों को छोड़कर इस कदर अमेरिका विरोधी हो गया? और क्यों हिंदू दक्षिणपंथ के ही अधीन भारत सरकार इस अमेरिका विरोध में सुर नहीं मिला रही है?

मेरी समझ में भारत अमेरिका विरोधी विदेश नीति बर्दास्त नहीं कर सकता. जैसा कि लगता है, देश को जब तक हथियारों की दरकार है, वह रूस से अलग नहीं हो सकता, भारतीय विदेश मंत्रालय सोचता है कि वॉशिंगटन को नाराज करना ठीक नहीं है. लेकिन भाजपा नेतृत्व में अमरिका के खिलाफ भारी गुस्सा है, जिसका यूक्रेन से काई लेनादेना नहीं है.

समस्या भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर हाल के हमले और देश के बहुलवादी चरित्र में गिरावट के लिए अमेरिकी आलोचना है. हिंदू दक्षिणपंथ की ज्यादा नाराजगी अमेरिकी मीडिया से है (अगर आप दक्षिणपंथी मीडिया को पढ़ें-सुनें तो आपको लगेगा कि शैतान अपने खाली वक्त में द न्यूयॉर्क टाइम्स का संपादन करता है). अमेरिकी अखबारों को नस्ली, हिंदू विरोधी, अज्ञानी और हिंदू दक्षिणपंथ के मुताबिक दुनिया में भारत के बढ़ते दबदबे के खिलाफ बताया जाता है.

यह धारणा डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव हार जाने के बाद बदतर हुई है, जिनकी नरेंद्र मोदी ने गुजरात और ह्यूस्टन में भारी आवभगत की थी. जो बाइन को भारत का नहीं तो, शर्तिया तौर पर उस भारत का विरोधी बताया जाता है, जिसे हिंदू दक्षिणपंथ बनाना चाहता है. इसलिए है अमेरिका विरोध.

यह नरेंद्र मोदी सरकार को मुफीद लगता है. वह आलोचना की ओर ध्यान दिलाकर वाशिंगटन से कह सकती है: ‘हम आपके दोस्त हैं, लेकिन युद्ध का हमारे देश में भारी विरोध है इसलिए हम ज्यादा अमेरिका समर्थक रवैया नहीं अपना सकते.’


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भारत के पास दो स्पष्ट विकल्प

जब यूक्रेन में युद्ध छिड़ा हुआ है, तब भी हमें गहरे सवालों से रू-ब-रू होना चाहिए. कुछ दिन पहले मुंबई में एबीपी आइडियाज ऑफ इंडिया समिट में मैंने फरीद जाकरिया का इंटरव्यू किया. फरीद की राय यह थी कि लगभग एक दशक से भारत इस कदर अपने अंदर देखू बन गया है और अपने ही मसलों तथा मतभेदों में उलझा हुआ है कि वह दुनिया में अपनी जगह तलाशने, आगे बढऩे की फुर्सत ही नहीं निकाल पा रहा है.

हम हिजाब, टोपी और जाति गणित में उलझे हैं और दुनिया में अहम बदलाव हो रहे हैं. यूक्रेन में चाहे जो नतीजा निकले, रूस युद्ध के बाद कमजोर होगा. अगर वह शांति की सुलह कर लेता है, तब पश्चिम के लगाए कुछ प्रतिबंधों में ढील मिल सकती है लेकिन यह तो नहीं ही लगता है कि रूस लंबे समय तक वैश्विक अर्थव्यवस्था का दमदार सदस्य बना रहेगा.

ऐसे में, उसके पास चीन के प्रभुत्व वाले दायरे में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. एक परिदृश्य यह है कि रूस चीन के लिए सप्लायर देश बन जाएगा, चीन की सेना और उसके औद्योगिक परिसरों के लिए ऊर्जा और कच्चे माल की सप्लाई करता रहेगा. पाकिस्तान और चीन लंबे समय से दोस्त हैं, अब शायद यह धुरी रूस-चीन-पाकिस्तान बन जाए.
भारत के पास तब दो विकल्प होंगे. हम पूरब में चीन का दबदबा स्वीकार कर लें. या हम दूसरे विकल्प तलाशें.

क्या हमें दूसरे विकल्प की ओर जाना चाहिए (मेरी सोच में तो हमें जाना ही होगा), वैसे में पश्चिम की ओर जाने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है. फिलहाल, पश्चिम यह समझता है कि भारत अपने हथियारों के लिए रूस पर किस कदर निर्भर है. लेकिन लंबी अवधि में बड़े सहयोग की मांग करेगा. क्या हमने इस बात पर गौर किया है? या हम हिंदू विरोधी अमेरिका और पाखंडी वाशिंगटन के जुमलों से अंधे हो गए हैं?

जितनी जल्दी हो, हमें जुमलों से सच्चाई को बचा लेने की दरकार है.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @virsanghvi .विचार निजी हैं)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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