अब भारतीय जनता पार्टी के बारे में कुछ लिखते या बात करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का जिक्र एक साथ करना आम बात हो चुकी है. मसलन, यह मोदी-शाह की भाजपा है, मोदी-शाह की चुनावी जीत है या फिर केंद्र में मोदी-शाह की सरकार है. इसका निहितार्थ है, जनता के बीच मोदी की व्यापक लोकप्रियता और कुशल रणनीतिकार के तौर पर शाह की प्रतिभा को एक साथ जोड़कर या एक-दूसरे की पूरक मानकर व्यक्त करना.
मोदी-शाह की अटूट जोड़ी बनने की शुरुआत संभवत: अगस्त 2014 में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की उसी बैठक में हुई थी जिसमें अपने भाषण के दौरान मोदी ने लोकसभा चुनाव में जीत का सेहरा शाह के सिर बांधते हुए उन्हें ‘मैन ऑफ द मैच’ बताया था.
उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव के तौर पर शाह ने राज्य में भाजपा को 80 संसदीय सीटों में से 71 पर जीत दिलाई थी. उन्होंने जुलाई 2014 में बतौर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की जगह ली. और इसके बाद फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा क्योंकि पार्टी लगातार नए मुकाम हासिल करती रही. हर चुनावी जीत के साथ ये जोड़ी और भी मजबूत होती गई.
पार्टी के थिंक टैंक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के अनिर्बान गांगुली और शिवानंद द्विवेदी ने 2019 में अपनी किताब अमित शाह एंड द मार्च ऑफ बीजेपी में लिखा है, ‘कोई भी एकदम दावे के साथ मोदी की अद्वितीय लोकप्रियता को भाजपा की ताकत में बदलने की इस प्रक्रिया को ‘शाह नीति’ की संज्ञा दे सकता है. मोदी भी जानते हैं और यह तथ्य स्वीकारते हैं कि यदि कोई ऐसा व्यक्ति है जो उनकी नीतियों और राजनीतिक विचारों को आकार दे सके और उन्हें हकीकत में बदल सके, तो वह उनके सबसे विश्वसनीय रणनीतिकार अमित शाह ही हो सकते हैं. शाह ने दिखा दिया है कि कैसे किसी नेता की लोकप्रियता को पूरी सफलता के साथ पार्टी की ताकत में बदला जा सकता है.’
भाजपा के एक विशाल पार्टी बनाने में अमित शाह का महत्वपूर्ण योगदान रहा है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. 24×7 सक्रिय राजनेता के तौर पर उन्होंने पार्टी मशीनरी को अच्छी तरह चलाया है और ये सुनिश्चित किया है कि पार्टी और सरकार का कार्यकर्ताओं और आम लोगों के साथ जुड़ाव टूटने न पाए. राष्ट्रीय स्तर पर और कई राज्यों में विपक्षी दलों को उन्होंने जिस तरह धराशायी किया, वो उनके राजनीतिक कौशल का प्रमाण है. उनकी इस सफलता का श्रेय काफी कुछ मोदी को भी जाता है.
प्रधानमंत्री की लोगों के बीच अपील के बारे में बहुत कुछ बोला-लिखा गया है लेकिन इस तथ्य को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं मिली कि गुजरात और कई अन्य राज्यों में भाजपा को सत्ता में लाने में निभाई भूमिका ने उन्हें बहुत पहले से ही घर-घर में एक चर्चित नाम बना दिया था. अजय सिंह की लिखी एक नई किताब द आर्किटेक्ट ऑफ द न्यू बीजेपी- हाउ नरेंद्र मोदी ट्रांसफॉर्म्ड द पार्टी, बतौर शानदार पार्टी रणनीतिकार मोदी के योगदान को ही रेखांकित करती है. अमित शाह ने उसी रणनीति को अपनाया और आगे बढ़ाया है जिसकी शुरुआत चार दशक पहले मोदी ने की थी.
यह भी पढ़ें: LAC पर ITBP को ‘प्रमुख भूमिका’ देने के दो मकसद हो सकते हैं? लेकिन शायद ही कोई काम करे
शाह अपनी ‘व्यावहारिक’ राजनीति का श्रेय मोदी को ही देते हैं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक के तौर पर काम करने के समय से ही मोदी एक अच्छे संगठनकर्ता रहे हैं, इसके बारे में बातें की गई और कुछ-बहुत लिखा भी गया. लेकिन व्यापक तौर पर नहीं. अजय सिंह की काफी शोधपरक किताब बताती है कि कैसे भाजपा को अभूतपूर्व ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए शाह ने दरअसल उसी खाके का इस्तेमाल किया है, जिसे कभी मोदी ने तैयार किया था. उदाहरण के तौर पर भाजपा निकाय चुनावों का इस्तेमाल पार्टी के कदम मजबूती के साथ जमाने के लिए करती है.
अक्टूबर-नवंबर 2020 में ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनावों के दौरान जब भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रचार करने के लिए मैदान में उतरा, तो इसे राजनीतिक कौशल पर एक सवालिया निशान की तरह देखा गया. इससे पहले, तब भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई थीं जब भाजपा ने 2017 में पश्चिम बंगाल नगरपालिका चुनावों और 2019 में ओडिशा पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर प्रचार किया था, जबकि भाजपा इन राज्यों में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर उभरी.
इससे बहुत पहले 1987 में ही गुजरात भाजपा महासचिव (संगठन) के रूप में मोदी ने अहमदाबाद नगर निगम (एएमसी) चुनावों का इस्तेमाल भाजपा के कदमों को जमाने के लिए किया था. उससे पहले कभी भी भाजपा या जनसंघ को एएमसी की सत्ता हासिल नहीं हो पाई थी, यहां तक गुजरात में भी 1977-80 में जनता पार्टी का हिस्सा रहने के दौरान को छोड़ दें, तो इसे कोई सफलता नहीं मिली थी.
जैसा कि अजय सिंह अपनी किताब में लिखते हैं, 1980 के दशक में अहमदाबाद में कई सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसमें एक गैंगस्टर अब्दुल लतीफ बहुत ताकतवर बनकर उभरा. एएमसी चुनावों में उसने पांच वार्डों से एक निर्दलीय उम्मीदवार (चुनाव चिह्न शेर) के तौर पर चुनाव लड़ा. उस समय वह जेल में ही था. उसके कई गुर्गे पिंजरे में बंद एक शेर को लेकर प्रचार करने निकलते थे. मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने इसका बखूबी इस्तेमाल किया और हिंदुओं के बीच भय और असुरक्षा का माहौल बनाकर निगम में बहुमत हासिल करना सुनिश्चित किया. हालांकि, लतीफ को सभी पांच वार्डों में जीत हासिल हुई लेकिन उनमें से चार को खाली करना पड़ा और वहां दूसरे नंबर पर रहे प्रत्याशियों को विजेता घोषित किया गया. उनमें से दो भाजपा के थे जबकि एक निर्दलीय ने पार्टी को समर्थन देने की घोषणा कर दी. बताया जाता है कि आरएसएस का एक वर्ग अन्य दलों के नेताओं को ‘इंपोर्ट’ करने और उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठाने को लेकर असहज था. लेकिन यह सारी कवायद सीधे तौर पर मोदी की पुरानी प्लेबुक का हिस्सा थी. 1987 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता जयेंद्र पंडित को एएमसी मेयर के तौर पर चुना.
1996 में मोदी को गुजरात से बाहर लाया गया और उन्हें हरियाणा और हिमाचल प्रदेश का प्रभार मिला. उन्होंने हरियाणा विकास पार्टी (एचवीपी) नेता बंसीलाल के साथ गठबंधन का फैसला किया. संजय गांधी के विश्वस्त रहे बंसीलाल आपातकाल के दौरान रक्षा मंत्री थे लेकिन इस बात ने मोदी को हरियाणा में भाजपा का जनाधार बढ़ाने की कोशिश के तहत उनके साथ हाथ मिलाने से नहीं रोका.
हिमाचल प्रदेश में भी उनकी रणनीति का असर साफ दिखा, जहां 1998 के विधानसभा चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस को 31 सीटें मिलीं और भाजपा को 29, जो पार्टी के एक प्रत्याशी की मौत के बाद 28 रह गईं. चुनाव जीतने के बाद भाजपा के एक बागी ने कांग्रेस का समर्थन कर दिया और 64 सदस्यीय विधानसभा (चार खाली सीटों को छोड़कर) में कांग्रेस का आंकड़ा 32 हो गया.
अजय सिंह लिखते हैं कि इसके बाद मोदी ने एक कांग्रेस विधायक को विधानसभा अध्यक्ष पद के लिए पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार के खिलाफ चुनाव लड़ने पर राजी कर लिया. उसकी जीत के साथ कांग्रेस विधायकों का आंकड़ा 31 हो गया. वीरभद्र सिंह को इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया और विधानसभा निलंबन की स्थिति में रही. बाद में भाजपा ने चारों सीटों पर जीत हासिल की और सरकार बनाई. मोदी ने भाजपा का पूर्व संचार मंत्री सुख राम के साथ गठबंधन कराया, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में कांग्रेस ने निष्कासित कर दिया था.
बूथ स्तर पर पार्टी कार्यकर्ता तैयार करना, उनके कांटेक्ट नंबरों के साथ एक रजिस्टर मेंटेन करना, उन्हें पार्टी कार्यक्रमों के आयोजन में मदद के लिहाज से प्रभावशाली, दो-पहिया वाहन मालिक आदि के तौर पर वर्गीकृत करना, ब्राह्मणों और बनियों के दायरे से आगे निकल पार्टी का जनाधार बढ़ाना, दलबदल की इंजीनियरिंग, छोटे दलों के साथ गठबंधन करना आदि— ये सब कदम मोदी की प्लेबुक का हिस्सा रहे हैं जिसका इस्तेमाल आज भाजपा कर रही है. उन्होंने चिंतन बैठकों की अवधारणा पेश की जब उन्होंने गिर के जंगल में पार्टी के 25 नेताओं को तीन दिन बिताने को कहा, वो भी किसी टेलीफोन या न्यूजपेपर के बिना. ये अभियान भी मोदी के मार्गदर्शन में ही चला कि भाजपा ने चाय-पान की दुकानों और ट्रेनों और बसों में पार्टी कार्यकर्ताओं को तैनात करना शुरू किया जो पार्टी के अजेय होने की चर्चा करते और इस तरह पार्टी को लेकर हमेशा सुगबुगाहट बनी रहती.
अमित शाह 1982 में जब पहली बार मोदी से मिले थे, तब उनकी उम्र बमुश्किल 18 साल थी. चार साल बाद वह भाजपा में शामिल हो गए. उन्होंने भाजपा के रणनीतिकार के तौर पर मोदी के कामकाज को बेहद करीब से देखा होगा, शायद यही वजह है कि उनकी रणनीतियों पर मोदी की छाप स्पष्ट नजर आती है. जाहिर तौर पर उनकी भूमिकाओं— मोदी एक लोकप्रिय चेहरा और शाह एक रणनीतिकार— को अलग-अलग करके आंकना निर्रथक होगा.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: INS विक्रांत का जश्न मनाइए लेकिन इसकी ज़रूरत को लेकर भारत के नेतृत्व से 3 सवाल