आक्रोशित छात्र. रक्षात्मक मुद्रा में कुलपति. कैंपस में पुलिसकर्मी. नहीं, यह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 2016 के ‘टुकड़े-टुकड़े’ विवाद का दृश्य नहीं है, जब कन्हैया कुमार और उमर खालिद को ‘आज़ादी’ जैसे खतरनाक शब्दों के कथित इस्तेमाल पर गिरफ्तार किया गया था. ये 2019 का दृश्य है और जेएनयू नरेंद्र मोदी के भारत में फिर से विद्रोह का प्रतीक बन गया है.
वामपंथी बुद्धिजीवियों के खिलाफ नए भारत का युद्ध नई दिल्ली के जेएनयू कैंपस से हट नहीं पा रहा है.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसके पूर्व छात्रों में इस सरकार के दो प्रमुख स्तंभ निर्मला सीतारमण और एस जयशंकर, नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत और नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी शामिल रहे हैं. फिर भी, यह दिन-प्रतिदिन सरकार के साथ और उत्तरोत्तर उम्रदराज छात्रों और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से पढ़े लोगों के साथ टकराव की राह पर दिखता है.
समाचार चैनलों के एंकरों द्वारा टुकड़े-टुकड़े का अड्डा घोषित और रियायती शुल्क पर बेहतरीन शिक्षा का मौका पाने वाले छात्रों द्वारा जेएनयू असहमति के मुख्य केंद्र के रूप में या अर्नब गोस्वामी की मानें तो करदाताओं के पैसे पर मौज करने वाले राष्ट्रविरोधियों और ‘शहरी नक्सलियों’ के केंद्र के रूप में उभरा है. कन्हैया कुमार, उमर खालिद और शेहला रशीद जैसे अपने ऊर्जावान और विवादास्पद छात्रों के कारण यह संभवत, पहला संस्थान था जिसने नरेंद्र मोदी के उदय के बाद के भारत में बढ़ते राष्ट्रवादी विमर्श पर सवाल उठाया था.
कभी वीडियो में छेड़छाड़ कर तो कभी लंबे एकालापों के जरिए जेएनयू के युवा छात्रों को न सिर्फ दुत्कारा जाता है बल्कि जेल की हवा भी खिलाई जाती है. शिक्षकों को अनुशासन के नाम पर नियम-कायदों का अक्षरश: पालन करने पर विवश किया जाता है तथा बौद्धिक विकास के लिए ज़रूरी स्वतंत्रता से वंचित करते हुए उनके साथ छोटे-मोटे सरकारी नौकरों जैसा व्यवहार किया जाता है.
उदारवादी
ब्रांड जेएनयू, जो कभी गर्व के साथ विविधता और लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करता था, आज प्राइम टाइम की पक्षपाती बहसों, जहरीले ट्वीटों और अगंभीर चर्चाओं में बदनाम हो रहा है और स्थिति ये हो गई है कि जेएनयू में 30 वर्षों तक समाजशास्त्र पढ़ा चुकी शिक्षाविद मैत्रेयी चौधरी के शब्दों में, ‘हमारे छात्र नौकरी के वास्ते साक्षात्कार के लिए जाते हैं, तो उन्हें अक्सर जेएनयू के नाम पर तंग किया जाता है.’
जेएनयू विचारधारा के नाम पर धौंस जमाने वालों के निशाने पर क्यों रहता है? क्या ऐसा जेएनयू के कथित वाम-उदारवादी एजेंडे के कारण है, जिसे कि रोमिला थापर जैसे शिक्षाविदों के उदाहरण से साबित किया जाता है, जोकि लंबे समय तक संघ परिवार के आंखों का काटा रही हैं और जिनसे हाल ही में विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनका बायोडाटा मांगा जो कि उनकी वेबसाइट पर पहले से पड़ा है? क्या ऐसा अपने प्रतिनिधि के रूप में जेएनयू के छात्रों के वामपंथी-उदारवादियों को चुनने के कारण है? या क्या ऐसा विश्वविद्यालय परिसर के अंदर विमर्श के प्रधान कथानक के निरंतर बाहर के कथानक के उलट रहने के कारण है? या ये तीनों ही वजहें हैं?
जेएनयू की स्थापना से जुड़े जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अधिनियम 1966 में जिन कुछेक शब्दों की प्रधानता है वे हैं राष्ट्रीय एकीकरण, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक जीवन शैली, अंतरराष्ट्रीय समझ और समाज की समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण. चौधरी ने दिप्रिंट को बताया ‘परिसर का दौरा करने पर आपको राष्ट्रीय एकीकरण का अहसास होता है. आपको मिलेंगे कालाहांडी से लेकर दिल्ली के शीर्ष कॉलेजों से आए पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी, पूर्वोत्तर के सुदूरवर्ती इलाकों और मध्य प्रदेश के गांवों के छात्र और अत्यंत सहजता से खुद को अभिव्यक्त करने वाली नेत्रहीन युवा लड़की. बहुत ही अलग पृष्ठभूमि और विचारों वाले ये छात्र छात्रावासों में, कक्षाओं में, ढाबों में और सेमिनारों में साथ-साथ होते हैं.‘
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उन्होंने कहा, ‘यह सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक जीवनशैली का एक निरंतर अनुभव है, क्योंकि लोकतंत्र कोई अमूर्त विचार नहीं होता. यह इसे दिन-प्रतिदिन जीने के अनुभव के बारे में है. यह पूर्वाग्रहों को सीखने और भुलाने तथा दूसरों के समक्ष खुलने के बारे में है. यह जानकारियों पर आधारित तर्क-वितर्क से संबंधित है. किसी राष्ट्र-राज्य के बराबरी के हक वाला नागरिक होने का आशय मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे से सीखने से है.’
‘क्योंकि इस शासन को गिनती पसंद है’ इसलिए चौधरी ने अंतरराष्ट्रीय छात्रों और विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त विद्वानों की बड़ी संख्या की बात की, जो आइवी लीग संस्थानों समेत भारत के भीतर और बाहर विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ाते हैं और जिन्होंने सामाजिक विज्ञान की पहली सीख जेएनयू में प्राप्त की थी.
पहले एसोसिएट और फिर फिर प्रोफेसर के रूप में 1990 से 2018 तक जेएनयू में पढ़ा चुके कमल मित्रा चेनॉय कहते हैं कि सही मायनों में समस्या जनवरी 2016 में तब शुरू हुई जब एम.जगदेश कुमार कुलपति बनाए गए. चेनॉय ने दिप्रिंट को बताया ‘2016 से पहले तक जेएनयू को कुलपतियों और प्रशासन ने सुरक्षित रखा था, जो अपनी कमियों के बावजूद अकादमिक उत्कृष्टता, विचारों और रचनात्मकता की स्वतंत्रता, भले ही वो प्रचलित विचारों के खिलाफ हो, विश्वविद्यालय के व्यापक मानदंडों के भीतर छात्रों और शिक्षकों के लिए विकल्प संबंधी स्वायत्तता, कामकाज का लोकतांत्रिक तरीका, जहां चर्चा, सहमति और असहमति तक की स्थापित संस्थागत प्रक्रिया थी, विकेंद्रीकृत शैली, एससी, एसटी, महिलाओं, निर्धनों और ओबीसी के लिए सकारात्मक संरक्षण की सामाजिक नीति, समावेशी और पारदर्शी कामकाज तथा सामाजिक और लैंगिक समानता के मूल्यों की समालोचना और स्वीकृति के लिए प्रतिबद्ध थे.’ गुजरात के 2002 के दंगों को ‘जातीय नरसंहार’ और प्रशासन को ‘मुस्लिम विरोधी’ बताने के कारण चेनॉय को नरेंद्र मोदी सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा है.
जेएनयू में पढ़ने वाले
जेएनयू को उसके प्रथम कुलपति के रूप में राजनयिक जी. पार्थसार्थी ने स्थापित किया था. उन्होंने प्रमुख बुद्धजीवियो को जुटाया और उन्हें विश्वविद्यालय के विभिन्न केंद्रों में नियुक्त किया. बाद के कुलपतियों में के.आर. नारायणन ने भी ऐसा ही किया था, और जो आगे चलकर भारत के राष्ट्रपति बने.
उस दौर में किसी संस्थान को तैयार करने का यही मान्य तरीका था, पर, चेनॉय के अनुसार, नए कुलपति और उनकी टीम ने सबकुछ बदल डाला है. उन्होंने कहा, ‘उन्हें (कुलपति को) मानव संसाधन मंत्रालय और संघ परिवार के कुछ वर्गों का साथ मिला हुआ है. इस तरह, अब फैसले लेने की प्रक्रिया केंद्रीकृत हो गई है. किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि का कुलपति से संपर्क नहीं है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी कोई वास्तविक भूमिका नही है. फैसले ऊपर से थोपे जाते हैं.’
चेनॉय ने बताया कि जनसंपर्क का एक माहौल निर्मित किया गया है जिसमें जेएनयू को एक महान विश्वविद्यालय दिखाया जाता है, पर असल में इसकी तमाम परंपराओं को लगातार कमज़ोर किया जाता है.
इन्हीं परंपराओं के चलते बेगूसराय के किसान और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के बेटे कन्हैया कुमार और कश्मीरी मुसलमान परिवार की बेटी शेहला रशीद को लोकतंत्र के युवा चैंपियन बनने का अवसर मिल पाया. इन्होंने ही कोलकाता के दो अर्थशास्त्रियों के बेटे अभिजीत बनर्जी को नोबेल पुरस्कार जीतने और पत्रकार पी. साईनाथ को भुला दिए गए भारत के किसानों की दशा का ईमानदार लेखाजोखा रखने के काबिल बनाया. इन परंपराओं ने ही थॉमस आइजक के रूप में एक राज्य को निर्मला सीतारमण के रूप में केंद्र को वित्तमंत्री दिए हैं और इन्होंने ये सुनिश्चित किया कि राजनीतिक दलों के पास चुनने के लिए पर्याप्त प्रतिभा उपलब्ध हो, चाहे वह माकपा के प्रकाश करात हों या स्वराज इंडिया के योगेंद्र यादव. पत्रकार और लेखक संजया बारू ने दिप्रिंट को बताया कि जेएनयू ने न केवल उनमें विवेचनात्मक सोच विकसित की बल्कि अपने दम पर सोचने का आत्मविश्वास भी दिया. उन्होंने कहा, ‘ये एक महान संस्थान है जिसने कम सुविधा प्राप्त छात्रों की कई पीढ़ियों को शिक्षा पाने का मौका दिया है.’
जेएनयू इस मामले में विशिष्ट है कि यहां एक मंत्री की बेटी और एक स्वीपर का बेटा, दोनों एक ही टेबल पर खाते हैं, एक ही बेंच पर बैठते हैं और उनके लिए समान अवसर होते हैं. सरकार समर्थकों का कहना है कि जेएनयू में सिर्फ ‘गरीब परिवार’ के बच्चों को ही दाखिला मिलना चाहिए. जेएनयू की पूर्व छात्रा शेहला रशीद ने दिप्रिंट से कहा, ‘उन्हें ये बिल्कुल नहीं पता कि ऐसा करने से गरीबों के लिए सामाजिक गतिशीलता के दरवाजे बंद हो जाएंगे, क्योंकि धनवानों और निर्धनों के बीच समाजीकरण के अवसर नहीं रहेंगे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘हॉस्टल फीस बढ़ाए जाने की मौजूदा बहस वास्तव में शुल्क की मात्रा के बारे में नहीं है, बल्कि यह शिक्षा के अधिकार और देश के गरीबों एवं वंचितों के लिए इस अधिकार के भविष्य के बारे में है. कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि केवल गरीबी रेखा से नीचे के छात्रों को जेएनयू में दाखिला देना चाहिए – यह सरकार संचालित स्कूलों के समान ही एक नस्लभेदी मॉडल है, जिसमें वर्गभेद किया जाता है.’
रशीद के अनुसार इससे भी अधिक उल्लेखनीय बात ये है कि एक महिला के रूप में, भले ही आप गरीब पृष्ठभूमि से नहीं हैं, लेकिन अपनी शिक्षा जारी रखना चाहते हैं, महिलाओं की शिक्षा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण संभव है आपके माता-पिता आपका समर्थन नहीं करें. इसलिए सरकारी विश्विद्यालय ही एकमात्र उम्मीद हैं. चूंकि विश्वविद्यालय के नियम छात्रों को बाहर काम करने की अनुमति नहीं देते हैं, इसलिए वे अपना खर्च भी नहीं उठा सकते. रशीद ने कहा, ‘इसलिए, अगर आप लैंगिक नजरिए से देखें तो बात सिर्फ वर्गों की नहीं है. ये परिवार के दबाव के खिलाफ प्रतिरोध के बारे में भी है,’
इन्हीं खासियतों को जेएनयू के आलोचक विश्वविद्यालय की दुर्गति की वजहों के रूप में गिनाते हैं.
‘नौकरी के नाकाबिल’
मधु किश्वर ने 1970 के दशक में जेएनयू से पोस्ट-ग्रेजुएशन किया था और 2017 में उन्हें दो वर्षों के लिए एकेडेमिक काउंसिल में स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स का प्रतिनिधित्व करने के लिए बाहरी विशेषज्ञ के रूप में नामित किया गया. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘आरक्षण की बहुत ही अलग तरह की नीति लागू किए जाने के बाद जेएनयू का चरित्र नाटकीय रूप से बदल गया, क्योंकि इसके तहत न केवल जाति को बल्कि पिछड़े क्षेत्र और आय को भी आरक्षण का आधार माना गया है. इस नीति को लागू किए जाने के बाद ना सिर्फ भारत के छोटे कस्बों से बल्कि शैक्षिक रूप से कमजोर गांवों के छात्रों को भी यहां दाखिला मिला. विविध सामाजिक संरचना एक सकारात्मक विशेषता हो सकती थी, बशर्ते इन छात्रों को स्कूल स्तर पर अच्छी शिक्षा मिली होती या उन्हें अपनी मातृभाषा में पढ़ाई का विकल्प मिलता. लेकिन उनमें से कइयों को अच्छी शिक्षा नहीं मिलती है और उनके पास जेएनयू के पाठ्यक्रमों के लायक भाषाई कौशल नहीं होता है.’
किश्वर के अनुसार बहुत कम अंकों के बावजूद जेएनयू में दाखिला पाने वाले छात्रों में से बहुतों को अतिरिक्त कोचिंग की आवश्यकता है ताकि वे समझ सकें कि क्या पढ़ाया जा रहा है. उन्होंने कहा, ‘लेकिन ‘आज़ादी’ का मतलब कक्षा से अनुपस्थित रहना, पूरी रात खुले रहने के लिए मशहूर ढाबों पर अड्डेबाज़ी करते हुए रातें बिताना, घिसे-पिटे नारों पर आधारित अपरिपक्व किस्म की राजनीति में उलझे रहना हो गया है. उनमें से कई अपने अकादमिक बोझ को सहन करने में असमर्थ हैं.’ उन्होंने ये भी कहा कि बहुत से छात्र जेएनयू के सामाजिक विज्ञान केंद्रों में सिर्फ इसलिए दाखिला लेते है ताकि वे कोचिंग सेंटरों के माध्यम से सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर सकें. अत्यधिक रियायती सुविधाओं के कारण वे जब तक संभव हो यहां टिके रहना चाहते हैं. नतीजतन, कक्षाएं ज्यादा महत्व नहीं रखती हैं.
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हालांकि आज भी मधु किश्वर मानती हैं जेएनयू कुछेक अत्यंत प्रतिभाशाली छात्रों को आकर्षित करता है. उन्होंने कहा, ‘लेकिन जो लोग अपनी पढ़ाई के बारे में गंभीर हैं, वे राजनीति से सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं. जेएनयू की राजनीति न केवल बचकानी है, बल्कि यह उत्तरोत्तर विध्वंसकारी भी होते जा रही है. ये सर्वविदित है कि जेएनयू में सभी प्रकार के विध्वंसककारी राष्ट्रविरोधी राजनीतिक संगठनों के स्लीपर सेल मौजूद हैं. छात्रों के समूह कम्युनिस्ट पार्टियों, माओवादियों, कश्मीरी अलगाववादियों, पूर्वोत्तर के विद्रोही संगठनों और भारत के टुकड़े चाहने वाली अन्य ताकतों के प्रतिनिधि संगठन हैं, आदी हो जाने के कारण जेएनयू के छात्र समाज से तालमेल नहीं बिठा पाते हैं.’ किश्वर ने आगाह किया कि अगर विश्वविद्यालय के तौर-तरीके नहीं बदले तो जेएनयू के छात्र जल्द ही खुद को रोजगार के नाकाबिल लोगों की जमात में शामिल पाएंगे.
शाश्वत विरोधी
जेएनयू के राजनीतिक स्पेक्ट्रम के विपरीत छोर पर मौजूद लोगों को विश्वविद्यालय में परिवर्तन के विरोध को लेकर चिंता है. जेएनयू के स्पेशल सेंटर फॉर मॉलिक्यूलर मेडिसिन में प्रोफेसर आनंद रंगनाथन का कहना है कि पढ़ाई के जिस संस्थान में सिर्फ एक जैसी विचारधारा स्वीकार्य हो, वह यूनिवर्सिटी नहीं बल्कि ‘कंफॉर्मिटी’ है. वह स्वामी विवेकानंद की अनावरण के लिए तैयार मूर्ति के अपमान किए जाने को एक ‘हृदयविदारक’ घटना बताते हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘अविश्वसनीय गुंडागर्दी और जेएनयू के प्रमुख भवनों की दीवारों को विकृत किया जाते देखना हैरान करने वाला और दुखद अनुभव है.
यह असहमति से निपटने का तरीका नहीं है और यह कानून विरुद्ध भी है. विश्वविद्यालय सीखने का स्थान होता है. ये एक ऐसी जगह होती है जहां भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किए जाने चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए और उन पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए.’
निश्चय ही जेएनयू जैसा था, वैसा बना रहना चाहिए. जैसा कि चौधरी कहती हैं, ‘जो हो रहा है वो एक ऐसे विश्वविद्यालय का विनाश है, जिसने ऐसे नागरिकों का विकास और निर्माण किया है जो सोच-विचार और चिंतन कर सकते हैं. यहां अभी तक भारतीय मध्य वर्ग का गरीबों और हाशिए पड़े लोगों से अलगाव नहीं हुआ है. भारतीय समाज की समस्याओं और विश्वविद्यालय के बीच जुड़ाव अभी कायम है. यह शासन इस बात को पसंद नहीं करता है और बौद्धिकतावाद-विरोधी और दक्षिणपंथ-समर्थक ताकतों के वर्तमान युग में इसकी सबसे बड़ी उपयोगिता यही है.’ एक मजबूत राजनीतिक विपक्ष की अनुपस्थिति में जेएनयू एक शाश्वत विरोधी के रूप में अकेला खड़ा है.
(लेखिक वरिष्ठ पत्रकार हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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