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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतमोदी मनरेगा को तो खत्म ही कर देना चाहते थे मगर अब यही उनके लिए आर्थिक मंदी से लड़ने का हथियार है

मोदी मनरेगा को तो खत्म ही कर देना चाहते थे मगर अब यही उनके लिए आर्थिक मंदी से लड़ने का हथियार है

हाल में मनरेगा को लेकर एक के बाद एक जितनी घोषणाएं की गई हैं उन्हें देखकर तो यही लगता है कि इस योजना पर मोदी सरकार की निर्भरता तेजी से बढ़ रही है और वह इसे व्यापक ग्रामीण संकट और बेरोजगारी के एक अन्तरिम समाधान के रूप में देखती है.

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इस साल जुलाई में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा को बताया था कि नरेंद्र मोदी सरकार महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को ज्यादा दिनों तक ‘चलाने के पक्ष में नहीं है.’ तोमर ने कहा था कि मनरेगा ग्रामीण गरीबों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, लेकिन मोदी सरकार का बड़ा लक्ष्य तो सबकी गरीबी मिटाना है. लेकिन अब ग्रामीण विकास एवं कृषि मंत्रालय संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में इस योजना के लिए अतिरिक्त 20,000 करोड़ रुपए की मांग पेश करने की तैयारी कर रहा है. यह 2019-20 के केंद्रीय बजट में इसके लिए रखे गए 60,000 करोड़ रुपए के अलावा होगा.

अगर इस आशय की रिपोर्ट पर यकीन किया जाए, तो मूल आवंटन में से 50,000 करोड़ रुपए के अलावा पिछले साल के बकाया भुगतान के 15,000 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं. इस अग्रणी ग्रामीण रोजगार योजना के तहत श्रमिकों की बढ़ती मांग भी एक वजह है जिसके चलते सरकार पूरक अनुदानों की मांग कर रही है.


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मनरेगा पर निर्भरता

पिछले कुछ सप्ताहों में मनरेगा को लेकर एक के बाद एक जितनी घोषणाएं की गई हैं उन्हें देखकर तो यही लगता है कि इस योजना पर मोदी सरकार की निर्भरता तेजी से बढ़ रही है. वह इसे व्यापक ग्रामीण संकट और बेरोजगारी के एक अन्तरिम समाधान के रूप में देखती है. मनरेगा को अचानक ग्रामीण विकास में गतिरोध के संकेतक और इसके प्रस्तावित समाधान के रूप में भी देखा जाने लगा है. रिपोर्टों से पता चलता है कि शुरुआती रोजगार के लिए श्रमिक नियमित रोजगार के बदले इस योजना के तहत रोजगार गारंटी को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं. इसका मतलब यह है कि रोजगार केवल आबादी के इस वर्ग को ही उपलब्ध नहीं है.

इस बीच, एक ताज़ा रिपोर्ट कहती है कि मोदी सरकार मनरेगा का इस्तेमाल अपनी दो स्वीकृत योजनाओं— प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) और जल आपूर्ति योजना— को लागू करने के लिए करना चाहती है. लेकिन मनरेगा के दिशा-निर्देशों में कुछ अंतर्निहित सीमाएं हैं, मसलन यह कि इसके तहत श्रमिकों को प्रति ग्रामीण परिवार केवल 100 दिनों के लिए ही रोजगार दिया जा सकता है, वह भी योजना के तहत केवल अकुशल मजदूरों के लायक कामों में.

दरारें और भी हैं

इस योजना की मुख्य आलोचना इस बात को लेकर की जाती है कि इसमें काम के लिहाज से कम मजदूरी मिलती है, राज्यों द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम. भुगतान के मानदंड के दिशा-निर्देश मनरेगा में ही निर्धारित फार्मूले से तय होते हैं. इसमें सुधार करने के बारे में एक कमिटी ने इस साल के शुरू में विचार किया था लेकिन अभी तक किसी परिवर्तन की घोषणा नहीं की गई है. इस बीच, असंगठित मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी से संबन्धित कानून 2019 के ‘कोड ऑन वेजेज़’ के जरिए पास किया गया, जिसे मोदी सरकार ने अधिसूचित कर दिया है.

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भारत में मनरेगा के तहत औसत अधिसूचित मजदूरी 2018-19 में 207.62 रुपये थी, जिसे 2019-20 में बढ़ाकर 210.86 रु., और औसत न्यूनतम कृषि मजदूरी 2018-19 में 244.38 रु. थी जिसे 2019-20 में 14.59 प्रतिशत बढ़ाकर 280.04 रु. किया गया.

अब विभिन्न राज्यों में न्यूनतम कृषि मजदूरी और 2019-20 के लिए मनरेगा की दैनिक मजदूरी में अंतर इस प्रकार है— अंडमान में यह अंतर 201 रु. (451 बनाम 250 रु.) का है, तो निकोबार में 187 रु., गोवा में 115 रु., बिहार में 75 रु., गुजरात में 113 रु., केरल में 16 रु., महाराष्ट्र में 41 रु. और उत्तर प्रदेश में 10 रु. का है. जहां अंतर सबसे कम का है वहां इसकी वजह यह है कि मजदूरी की दोनों दरें ऊंची हैं (केरल में) या दोनों दरें नीची (यूपी में) हैं. मनरेगा में दैनिक मजदूरी की दर सबसे ऊंची हरियाणा में (284 रु.) है, तो न्यूनतम कृषि मजदूरी दर 339 रु. है.

मनरेगा के लिए मजदूरी दरों की अधिसूचना और वार्षिक संशोधन केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित उपभोक्ता कीमत सूचकांक- कृषि मजदूर (सीपीआई-एएल) के आधार पर होता है और यह मनरेगा कानून (2005) की धारा 6(1) के मुताबिक किया जाता है. संशोधित मजदूरी दर हर साल 1 अप्रैल से लागू होती है. फिलहाल मोदी सरकार में इस बात को लेकर विवाद चल रहा है कि मनरेगा मजदूरी दर को सीपीआई-एएल के आधार पर तय किया जाए या सीपीआई-ग्रामीण के आधार पर.

वक़्त की मांग

इस मसले से कन्नी काटने के लिए मोदी सरकार ने सितंबर में घोषणा की कि वह रोजगार गारंटी एक्ट के तहत मनरेगा की मजदूरी दरों को ताज़ा मुद्रास्फीति सूचकांक से जोड़ेगी, जिसे हर साल संशोधित किया जाएगा. लेकिन क्या इससे इन दरों को न्यूनतम मजदूरी की दरों से कम रखने की भरपाई हो सकेगी?


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नोबल विजेता अभिजीत बनर्जी ने हाल में कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के उनके सुझावों की सूची में मनरेगा की मजदूरी दरों को बढ़ाना दूसरे नंबर पर आता है. सरकार ने भी घोषणा की है कि मनरेगा में शामिल किए गए अस्थायी मजदूर को अब हुनर सीखने के लिए रोजाना 250 रु. का भत्ता दिया जाएगा ताकि वह बेहतर रोजगार के अवसर का लाभ उठा सके और राजमिस्त्री या प्लम्बर या फसल भंडारण में प्रशिक्षित व्यक्ति के तौर पर ज्यादा कमाई कर सके.
रोजगार गारंटी योजनाओं में मजदूरी दरें इसलिए भी कम हैं क्योंकि मनरेगा में किए गए काम की नाप-जोख के मुताबिक मजदूरी दी जाती है, मजदूरी पीस रेट भुगतान सिस्टम से दी जाती है. हर राज्य ने अपनी दरों की अनुसूची तैयार की है, जिसके आधार पर ही किए गए काम को परिभाषित किया जाता है और मनरेगा के लाभार्थियों की मजदूरी तय की जाती है.

इस योजना के तहत काम कर रहे बदनसीब मजदूरों को राज्यों में प्रायः देर से भुगतान किया जाता है. ‘पीआईबी’ की 7 जनवरी की विज्ञप्ति बताती है ‘मजदूरी के भुगतान में देरी राज्यों में इसे लागू करने की समस्याओं के कारण होती है, जिनमें कर्मचारियों की कमी; हाज़िरी, नाप-जोख, डाटा इंट्री, मजदूरी सूची, फंड ट्रांसफर ऑर्डर (एफटीओ) आदि को समय पर जारी न करना जैसे मामले शामिल हैं.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक पत्रकार, शोधकर्ता और दिहूट.ओरआरजी की संस्थापक संपादक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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