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Sunday, 22 December, 2024
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मंडल और मंदिर युग खत्म, ये मोदी काल की शुरुआत है

मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में भाजपा के मंदिर मंत्र ने मंडलवाद को बेअसर करके अखिल हिंदू वोट बैंक को जन्म दिया, मोदी से टक्कर लेने के लिए अब नई राजनीति का आविष्कार करना होगा

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ठीक तीन दशक बाद भारतीय राजनीति के एक युग का पटाक्षेप हो गया. और एक नया युग शुरू हो गया. हम बेशक नेहरू-गांधी परिवार के पतन की बात नहीं कर रहे हैं. न ही हम भारतीय राजनीति के एकमात्र ध्रुव के तौर पर नरेंद्र मोदी के उत्थान की बात कर रहे हैं.

भारत में जो गहरा राजनीतिक परिवर्तन हो रहा है उसे समझने के लिए यह तो बहुत संकीर्ण नज़रिया होगा. हम देख रहे हैं कि मंडल-मंदिर की राजनीति का अवसान हो रहा है और मोदी युग शुरू हो रहा है.

राजीव गांधी ने 1984 में जिस भाजपा को लोकसभा में दो सीटों पर सिमटा दिया था, वह भाजपा 1989 में साल के लगभग इन्हीं दिनों में राजीव के प्रधानमंत्रित्व के आखिरी वर्ष में अपनी वापसी की संभावना देखने लगी थी. राजीव के विश्वस्त रक्षा मंत्री वी.पी. सिंह ने बगावत कर दी थी और वे एक ऐसे गठजोड़ के स्वाभाविक नेता के तौर पर उभर रहे थे, जो राजीव की जगह ले सकें. लेकिन भाजपा के संख्याबल के बिना वे ऐसा नहीं कर सकते थे.


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उधर, भाजपा के सबसे प्रखर नेता लालकृष्ण आडवाणी सत्ता में भागीदारी को कबूल करने के लिए तैयार नहीं थे. वे चाहते थे कि भाजपा अपने दम पर सत्ता हासिल करे. इसके लिए भाजपा को उस समय के पसंदीदा मुद्दे ‘भ्रष्ट राजीव को हटाओ’ से आगे जाकर कोई एजेंडा तय करना था. आडवाणी ने हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद को उभारने वाले अयोध्या के एजेंडा को चुना. यह उनका मंदिर-मंत्र था.

उस साल आगे चलकर आडवाणी ने राजीव को रोकने में विपक्ष की मदद की. वी.पी. सिंह के जनता दल ने 143 सीटें जीतीं (अधिकतर हिंदी पट्टी में) और नवगठित राष्ट्रीय मोर्चा के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बने. मोर्चे को बहुमत के लिए जरूरी 272 से कम सीटें मिली थीं. इसकी अप्रत्याशित रूप से भरपाई की वामदलों और भाजपा ने, सरकार को बाहर से समर्थन देकर. एक-दूसरे से घोर वैचारिक मतभेद रखने वाले ये दो राजनीतिक दुश्मन किसी एक मकसद के लिए न तो कोई पहली बार साथ आए थे और न यह आखिरी बार था.

जनता दल और इसके छोटे सहयोगियों को अधिकतर सीटें पुराने समाजवादियों और बागी कांग्रेसियों के कारण हासिल हुई थीं. ये सब आम तौर पर भाजपा से नफरत करते थे. कश्मीर में अलगावाद के उभार, और वी.पी. सिंह सरकार के गृह मंत्री तथा कश्मीर के वरिष्ठ नेता मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण और उन्हें छुड़ाने के लिए अलगाववादियों के सामने सरकार के घुटने टेकने के बाद आपसी मतभेद बुरी तरह बढ़ गए. वी.पी. सिंह और उनके अधिकतर समाजवादी/लोहियावादी थिंक टैंक को पता था कि यह व्यवस्था टिकाऊ नहीं है इसलिए वे भाजपा और काँग्रेस विरोधी नई राजनीति तैयार करने में जुट गए. अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को आरक्षण देने की सिफ़ारिश करने वाली करीब दशक भर पुरानी मंडल रिपोर्ट को ठंडे बस्ते से बाहर निकालकर हड़बड़ी में लागू कर दिया गया.


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अनुसूचित जतियों तथा जनजातियों को पहले से प्राप्त 22.5 प्रतिशत आरक्षण से नाराज ऊंची जातियों ने वी.पी. सिंह के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, जिसके चलते हिंसक वारदात हुए. इनमें अगड़ी जातियों के 159 छात्रों ने आत्महत्या की कोशिश की, जिनमें से दुर्भाग्य से 63 सफल हो गए. हिंदू जमात में एक जातीय युद्ध छिड़ गया. इस प्रक्रिया में वी.पी. सिंह और उनके समाजवादी साथियों ने एक नया ओबीसी वोट बैंक बना लिया. इसने भाजपा के हिंदू वोट बैंक में विभाजन का खतरा पैदा कर दिया. पूरी आबादी का हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने में जुटे आडवाणी इसे भला कैसे बर्दाश्त कर सकते थे.

वी.पी. सिंह की मंडलवादी रणनीति आडवाणी की मंदिरवादी रणनीति से सीधे टकराती थी. इस ‘मंडल बनाम मंदिर’ राजनीति ने जो द्वंद्व पैदा किया वही अब तक भारतीय राजनीति को परिभाषित करता रहा- जाति के नाम पर जो विभाजित है उसे क्या आस्था के नाम पर एकजुट किया जा सकता है? जब-जब यह संभव हो सका, तब-तब भाजपा सत्ता में आई. लेकिन ज़्यादातर तो जातीय समीकरण ही मजबूत रहे, खासकर इसलिए कि हिंदी पट्टी के पुराने नेता अपनी-अपनी जाति के वोट बैंक बनाते रहे. कांशीराम और मायावती ने भी अपना दलित वोट बैंक बनाया. इन जातीय समीकरणों की ताकत मुस्लिम वोट से बढ़ती रही, तो कभी इसका उलटा भी हुआ.

दोनों मिलकर अक्सर भाजपा को हिंदी पट्टी में परास्त करते रहे. और राष्ट्रीय स्तर पर ये काँग्रेस के साथ ऐसा असंभव गठजोड़ बनाते रहे, जो भाजपा को सत्ता से वंचित करती रही.

2019 के जनादेश ने इसे खत्म कर दिया है. यह कहना सही नहीं होगा कि अब मंदिर ने मंडल को परास्त कर दिया है. बल्कि ज्यादा सही यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मंदिर-मंत्र ने मंडल को हड़प लिया. भारत में पूरे कार्यकाल तक पूरे बहुमत से राज करने वाले पहले ओबीसी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की वापसी ने मंडलवादी वोट बैंक को तोड़ कर रख दिया है. मोदी ने मंडल और मंदिर, दोनों का चोगा धारण किया है.


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यह राजनीति में, भूगर्भ विज्ञान की भाषा में कहें तो, केवल ढांचागत बदलाव नहीं है बल्कि एक महादेश ही खिसक गया है. यह कैसे हुआ? इसके नतीजे क्या होंगे? और आगे इसका मुक़ाबला कैसे किया जाएगा, भारतीय राजनीति में एक नए ध्रुव का निर्माण कैसे किया जाएगा?

इसे समझने के लिए मोदी के उस जोशीले भाषण पर गौर कीजिए, जो उन्होंने चुनाव नतीजों वाली शाम को दिया था. उन्होंने दो बातें ऐसी कही, जो गौरतलब हैं. एक तो उन्होंने यह कहा कि भारत में अब दो ही जातियां हैं— एक गरीबों की और दूसरी गरीबों की मदद के लिए संसाधन जुटाने की कोशिश करने वालों की. दूसरी बात उन्होंने यह कही कि ‘सेकुलर’ का चोगा धारण करने वाले पराजित हुए हैं. इसका राजनीतिक संदेश यह है कि वह समय अब खत्म हो चुका जब नेता लोग हिंदुओं को जाति के आधार पर बांट देते थे और मुस्लिम वोटरों के साथ मिलकर सत्ता में बने रहते थे.

यह मोदी ने अपने अकेले दम पर किया है. इसके लिए विपक्ष को दोष देने की कोई वजह नहीं है. चुनाव से पहले के गठजोड़ तभी काम करते हैं जब आप किसी विचारधारा या दल से मुक़ाबला कर रहे होते हैं. लेकिन आज जैसे मोदी लोकप्रिय हैं या 1971 में जैसे इंदिरा गांधी थीं, वैसी हस्तियों से मुक़ाबला हो तो ऐसे गठजोड़ों को आसानी से भुला दिया जा सकता है.

मोदी और शाह ने भाजपा को ऐसे मुकाम पर ले जाने का साहस किया जिसकी कल्पना आडवाणी और उनकी पीढ़ी ने की भी नहीं होगी. उन्होंने मंदिर-मंत्र से जिस ध्रुवीकरण की कोशिश की, उसे हिंदी पट्टी के मतदाताओं ने मंडल के विरोध में आत्महत्या पर उतारू अगड़ी जातियों के प्रति उनकी सहानुभूति के तौर पर देखा. लेकिन मोदी और शाह ने ओबीसी और दलितों तक सीधी पहुंच बनाने के प्रयास किए. उत्तर प्रदेश में उन्होंने मायावती और मुलायम के वोट बैंक में सेंध लगाई, उन्हें क्रमशः जाटव और यादव जाति के नेताओं के तौर पर सीमित कर दिया.

बाकी जातियां भाजपा की तरफ झुक रही हैं. चूंकि इसके पास राष्ट्र्वादी हिंदू अगड़ी जातियों का वोट बैंक पहले से मौजूद था, इन अतिरिक्त संख्याओं ने इसे जबरदस्त ताकत दे दी है. बिहार को एक गैर-भाजपाई ओबीसी नेता नीतीश कुमार के सुपुर्द कर दिया गया है, और बड़े तथा ताकतवर दलित समूह के नेता राम विलास पासवान को भी जगह दी गई है. पिछले तीन में से करीब दो दशकों तक भाजपा को सत्ता से दूर रखने वाली मंडलवादी चुनौती को 2019 में दफन कर दिया गया है.

अब मोदी के पास खेल के अपने नियम तय करने का मौका है. एक संभावना यह है कि चूंकि वे अगड़ी जातियों के समर्थन के प्रति फिलहाल आश्वस्त रह सकते हैं, वे केंद्र तथा राज्यों में अब और ज्यादा ओबीसी एवं दलित नेताओं को ताकत दे सकते हैं. बिहार में वे पहले ही यादव नेताओं का एक मजबूत गुट तैयार कर रहे हैं, यूपी में भी वे ऐसा ही करेंगे.

हिंदू उनके कारण खुद को काफी मजबूत मानने लगे हैं, तो अब वे मुसलमानों की ओर भी रुख कर सकते हैं. संदेश साफ है-सत्ता हासिल करने के लिए आप वोटों का जो गणित बनाते थे उसका समय अब खत्म हुआ, आपको चुनावों में ताकत देने वाली उस राजनीति के दिन लद गए! इसलिए अब मेरे तम्बू के नीचे आ जाइए. और मैं कह ही चुका हूं कि मेरे भारत में अब दो ही जातियां रह गई हैं- गरीबों की, और संपदा बनाने वालों की. ज़्यादातर मुसलमान उनके तम्बू में नहीं जाएंगे मगर कुछ तो जाएंगे ही.


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इसे भारत में राजनीति का अंत मत मान लीजिए. बस इतना हुआ है कि मंडल-मंदिर युग अब खत्म हुआ. मोदी को अब जो चुनौती देना चाहेगा उसे नई राजनीति का आविष्कार करना होगा. बेशक, कुछ लोग अभी भी यह उम्मीद लगाएंगे कि आस्था ने जिसे एकजुट किया था उसे जाति फिर से विभाजित कर देगी. लेकिन मेरा मानना है कि इस उम्मीद का आधा अंत 2014 में हो गया था, बाकी का अंत इस बार हो गया है.

इस नई राजनीति को किस तरह स्वरूप दिया जाएगा? और कौन देगा? इसके लिए इस चुनाव के नतीजों की गहराई में जाकर देखें. भाजपा की 303 और कांग्रेस की 52, ये दो महत्वपूर्ण संख्याएं हैं. भाजपा के वोट 2014 में 17.1 करोड़ थे, जो अब बढ़कर 22.6 करोड़ हो गए हैं. कांग्रेस के वोट 10.69 करोड़ से बढ़कर 11.86 हो गए. दोनों के संयुक्त वोट इस बीच 27.79 करोड़ से बढ़कर 34.46 करोड़ हो गए. प्रतिशत के आंकड़े में देखें तो दोनों का वोट प्रतिशत 2014 के 50.3 से बढ़कर 57 प्रतिशत हो गया.

मंडलवादी और क्षेत्रीय ताक़तें जो वोट खींच ले जा रही थीं, वे वोट अब राष्ट्रीय दलों के पाले में लौट रहे हैं. इसलिए, काँग्रेस को आप भले हल्के में ले रहे हों, मोदी-शाह की जोड़ी उसे कतई हल्के में नहीं लेगी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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