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रविवार, 20 अप्रैल, 2025
होममत-विमतमोदी को आफत लाने की राजनीतिक कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी, क्योंकि उनकी हैसियत ईरान के अली खमेनई वाली है

मोदी को आफत लाने की राजनीतिक कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी, क्योंकि उनकी हैसियत ईरान के अली खमेनई वाली है

आत्मनिर्भर भारत संबोधन में मोदी द्वारा प्रवासी मज़दूरों के संकट का ज़िक्र तक नहीं किए जाने से बहुतों को हैरत हुई है. फिर भी, उनके खिलाफ गुस्सा नहीं दिख रहा.

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यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक सामान्य राजनेता होते, तो उनकी लोकप्रियता अब तक गर्त में पहुंच चुकी होती. एक सर्वे के मुताबिक, तीन में से दो कामकाजी भारतीयों को 24 मार्च को घोषित कठोर लॉकडाउन के कारण अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है. सरकार दो महीने से अधिक समय कायम प्रवासी संकट को दूर करने में बुरी तरह विफल रही है, लॉकडाउन के बाद से आधे भारतीय परिवारों को अपनी खुराक कम करने को बाध्य होना पड़ा है. फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से, मोदी के खिलाफ कोई गुस्सा नहीं दिखता है, वे हमेशा की तरह लोकप्रिय नज़र आते हैं.

इस बात पर बहुतों को हैरत हुई होगी कि 12 मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मोदी ने प्रवासी मज़दूरों के संकट का एक बार भी जि़क्र नहीं किया, सहानुभूति व्यक्त करने की बात तो छोड़ ही दें. उन्होंने ना तो अभूतपूर्व संख्या में लोगों की नौकरियां जाने की चर्चा की, ना ही आवश्यक वस्तुओं की निरंतर अनुपलब्धता और गंभीर हताशा के माहौल की. ठीक उसी तरह, जैसे उन्होंने 2016 में नोटबंदी के कारण बड़ी संख्या में लोगों की रोजी-रोटी छिनने की बात नहीं मानी थी. उस आपदा को झेल जाना भी किसी दूसरे राजनेता के लिए संभव नहीं होता.


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ऐसा क्या है कि आफत लाने पर भी मोदी को कोई राजनीतिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती है? और क्यों जान-बूझकर जनता की पीड़ा की उपेक्षा करने के बावजूद अधिकांश लोगों के मन में उनकी अहंकारी, असलियत से बेखबर, या एक निष्ठुर नेता की छवि क्यों नहीं बन पाती है?

मोदी सामान्य राजनीतिक विश्लेषण के दायरे में नहीं आते हैं क्योंकि उनका आकर्षण केवल राजनीतिक नहीं है. लोगों के बीच उनकी अपील को अर्ध-धार्मिक कहा जा सकता है, किसी मसीहाई शख्सियत वाला आकर्षण. राजनीतिक विज्ञानी मॉरिस जोन्स के शब्दों का उपयोग करें तो महात्मा गांधी की ही तरह मोदी भारतीय राजनीति की सात्विक धारा के प्रतिनिधि हैं. वह एक स्वघोषित ‘फकीर‘ हैं, जिसे परिवार और भौतिक संपत्ति का कोई मोह नहीं है, जो हमारे बीच भारत को न केवल राजनीतिक, बल्कि सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक नेतृत्व देने के लिए भी मौजूद है. यही कारण है कि वह केवल समर्थक भर नहीं बनाते हैं, बल्कि भक्ति भाव पैदा करते हैं. और इस भक्ति में उनकी अगुआई वाली सरकार का प्रदर्शन आड़े नहीं आता है.

जनता का कष्ट मोदी में उनकी आस्था की परीक्षा

जब आप कष्ट में होते हैं, तो आप अपने मसीहा को खारिज नहीं करते, जैसे आप भगवान को खारिज नहीं करते. इसके विपरीत उनमें आपका भरोसा दुगुना हो जाता है, क्योंकि भगवान आपको बताते हैं कि आपका दुख एक बड़े उद्देश्य के लिए है, मोक्ष के कंटीले पथ पर सिर्फ भगवान ही आपका सहारा बन सकते हैं. एक बार जब मोदी ने दिहाड़ी मजदूरों की पीड़ा का उल्लेख किया, तो उन्होंने इसे ‘तपस्या’ की संज्ञा दी – एक बड़े उद्देश्य के लिए तपस्या, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने नोटबंदी के अपने फैसले का ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ यज्ञ’ बताया था. जब उन्होंने 14 अप्रैल को पहला लॉकडाउन बढ़ाया, तो उन्होंने एक बार फिर आध्यात्मिकता से प्रेरित शब्दों का इस्तेमाल किया और लोगों से ‘त्याग’ और ‘तपस्या’ की अपेक्षा की. गांधी ने लोगों से कहा था कि भारत बलिदान एवं आत्मशुद्धि के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करेगा, जोकि सत्याग्रह का आधार था. मोदी भी लोगों से यही कह रहे हैं कि वह उनके त्याग और तपस्या के सहारे ‘आत्मनिर्भर राष्ट्र’ का निर्माण करेंगे.

यही कारण है कि उन्होंने भारत के गौरवशाली अतीत के उल्लेख के साथ अपना भाषण शुरू किया. मोदी एक खास नैतिक आयाम में एक मसीहा हैं. इस आयाम में भारत महान था और उसके बाद, उनके शब्दों में, ‘1200 वर्षों की गुलामी’ का दौर (जिसमें ‘स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की गुलाम मानसिकता का काल’ भी शामिल है) आया, जब तक कि मोदी हमें दोबारा महानता की ओर ले जाने के लिए सामने नहीं आ गए. कोरोनावायरस वैसा संकट नहीं है जिसमें नुकसान को सीमित करने के उपायों की ज़रूरत हो, जैसा कि दुनिया के अन्य नेता कर रहे हैं; बल्कि ये भारत को एक महान राष्ट्र के रूप में पुनर्स्थापित करने के उनके सपने को पूरा करने का एक एक ‘अवसर’ है.


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लेकिन इसके लिए वह बिलाशर्त श्रद्धा चाहते हैं. उनके हिसाब से, लोगों का कष्ट उनकी आस्था की परीक्षा है. उसी तरह की परीक्षा जिससे कि लोग नोटबंदी के समय गुजरे थे. लोगों की आस्था भारत में, और मोदी के नेतृत्व में. ये अस्वाभाविक नहीं है कि बहुत से हताश लोग निराशा के भंवर में डूबने के बजाय इस आस्था का दामन थामना चाहेंगे. मोदी ने उनका आह्वान किया है कि वे तुच्छ और उत्तरोत्तर निराशामय अस्तित्व से ऊपर उठते हुए खुद को एक बड़े उद्देश्य से जोड़ें. कष्ट से आस्था कमज़ोर नहीं बल्कि मज़बूत होती है, क्योंकि मुसीबत में ही तो उसकी सर्वाधिक ज़रूरत होती है.

इस आस्था को हाल ही में अनुष्ठानों के ज़रिए प्रतिष्ठापित किया गया जब करोड़ों लोगों ने थाली पीटने और दीया जलाने के कार्यक्रमों में भागीदारी की. मोदी ने लोगों को सात शपथ भी दिलायी जिनमें बुजुर्गों की देखभाल, गरीबों की मदद और अपने कामगारों के प्रति करुणा जैसी बातें शामिल थीं. साथ ही, उन्होंने योग करते हुए अपना एनिमेटेड वीडियो भी जारी किया, जिसे लाखों लोगों ने देखा. इन कदमों से वह भारत को सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक नेतृत्व देने के अपने दावे को पुख्ता कर रहे हैं.

राहत उपाय उनके परोपकारी कार्य हैं

इसी तरह मोदी अपने भाषणों को दिव्य ज्ञान की आभा से दमकाते हैं. संकट की इस घड़ी में अपेक्षानुरूप लगभग रोज़ संवाद करने वाले अन्य लोकतांत्रिक नेताओं के विपरीत मोदी कुछ सप्ताह के अंतराल पर अपनी बात सामने रखते हैं. वह नए दिव्य ज्ञान के लिए लोगों से इंतजार कराते हैं, और इसीलिए संवाद के अपने कार्यक्रम की घोषणा वह एक या दो दिन पहले कर देते हैं. इंतजार की इस अवधि में जमकर अटकलें लगाई जाती हैं, लोग अपनी इच्छाओं और उम्मीदों का इजहार करते हैं, मानो पूर्वानुमानों से ना बंधने वाले किसी देवता से प्रार्थना की जा रही हो.

इसके बाद वह नियत समय पर प्रकट होते हैं. उनका भाषण थोड़ा उपदेश और थोड़ा दैवीय आदेश के रूप में होता है. अक्सर भाषण के दौरान कोई बड़ी घोषणा सामने आती है, जिसे स्तब्ध करने या चौंकाने के लिहाज से शामिल किया गया होता है. जहां दुनिया के अन्य नेताओं ने संकट के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए राहत पैकेज की गंभीरतापूर्वक घोषणा की थी, वहीं मोदी ने उसे ऐसे प्रकट किया मानो सत्य साई बाबा सोने का अंडा निकाल रहे हों. पैकेज के आकार से दर्शकों को चकचौंध करने के उद्देश्य से मोदी ’20 लाख करोड़ रुपये’ के जुमले को बारंबार दोहराते रहे. उन्होंने इसे ‘मोदी पैकेज’ कहा तो नहीं (इस तरह का नामकरण खुशामदी मीडिया के लिए छोड़ दिया जाता है) लेकिन उसे पेश करने का उनका अंदाज़ वैसा ही था, मानो जनता पर उन्होंने व्यक्तिगत उपकार किया हो, इतना बड़ा उपकार कि जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी.


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सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया में उनके मिशनरी प्रचारक गुणगान करने लगे, ‘मोदी का पैकेज पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के बराबर/ से बड़ा’ है. जबकि पता चला कि वास्तविक राजकोषीय पैकेज कुछेक लाख करोड़ का ही है, जोकि अन्य देशों की तुलना में या खुद भारत की ज़रूरतों के हिसाब से बहुत कम है. पैकेज मुख्यतया सरकार समर्थित कर्ज़ों और सरकारी बकाया राशि के भुगतान से निर्मित है. ये मोदी की पुरानी तरकीब है जिसमें उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए महारत हासिल की थी. वह वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलनों के ज़रिए लाखों करोड़ के निवेश का ढोल पीटते थे, जोकि कभी-कभार ही कार्यान्वित समझौता ज्ञापनों के आंकड़े मात्र होते थे, आखिर मोदी धार्मिक पुरुषों की तरह सिर्फ बड़े और सांकेतिक प्रतीकों के ज़रिए ही संवाद जो करते हैं.

जवाबदेही मंत्रियों की होती होगी, मोदी की नहीं

‘आत्मानिर्भर भारत’ की उनकी कल्पना को साकार करने के लिए नीतियां बनाने का बोझिल काम वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर छोड़ दिया गया. मोदी किसी नीति की घोषणा नहीं करते हैं या उससे संबंधित विस्तृत ब्यौरा देने के चक्कर में नहीं पड़ते हैं, क्योंकि वह नहीं चाहते कि उन्हें उन नीतियों की कसौटी पर परखा जाए. उन्हें खुद को अपनी परिकल्पनाओं मात्र से जोड़ा जाना पसंद है. जब नीतियां उम्मीदों पर खरा नहीं उतरती हैं, तो कमियों और असफलताओं का ठीकरा उनके मंत्रियों के सिर पर फूटता है. जब प्रवासी मज़दूरों से ट्रेन टिकट के पैसे लिए जाते हैं, तो यह रेल मंत्री पीयूष गोयल की गलती मानी जाती है. यहां तक कि दक्षिणपंथी समर्थक भी निर्मला सीतारमण की आलोचना करते हैं, जैसे वे उनके पूर्ववर्ती अरुण जेटली को आडे़ हाथों लेते थे, न केवल उन्हें बल्कि मोदी को भी निराश करने के लिए. मोदी के मंत्री मानव हैं जिनसे भूल हो सकती है, और इसलिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इसके विपरीत मोदी की छवि कभी भी गलती नहीं करने वाले और दायित्वों से रहित देवपुरुष की है.

मोदी ने अपनी स्थिति ईरान के सर्वोच्च नेता अली खमनेई जैसी बना ली है. ईश्वरीय निर्देश प्राप्त और गलतियों से परे एक और नेता जो तमाम सरकारी योजनाओं पर अंतिम निर्णय करता है, देश की राजनीतिक दिशा तय करता है, राष्ट्र के नैतिक मूल्यों की प्रतिबिंबित और उद्घोषित करता है. लेकिन साथ ही वह सरकार की नाकामियों की राजनीतिक जवाबदेही से भी ऊपर है, और गलतियों की ज़िम्मेदारी उनके मातहत निर्वाचित अधिकारियों की होती है. मोदी बीच-बीच में चुनावों के ज़रिए लोकतांत्रिक वैधता हासिल करते हैं, लेकिन चुनावों के बीच वह अपनी लोकेत्तर वैधता के कारण संवाददाता सम्मेलनों, पारदर्शिता तथा लोकतंत्र की तमाम बाध्यकारी एवं छानबीन वाली प्रक्रियाओं से ऊपर होते हैं. वह समर्थकों की मौन सहमति के साथ इन प्रक्रियाओं को कोई तवज्जो नहीं देते हैं.

वह प्रवासी मज़दूरों और गरीबों की दुर्दशा को नजरअंदाज़ करते हैं क्योंकि वह किसी दोष या कमजोरी या भूल को स्वीकार नहीं कर सकते. उनकी अर्ध-धार्मिक छवि के मूल में यही बात है कि वह कभी गलत नहीं हो सकते. भले ही आप उनकी योजनाओं को समझ नहीं पा रहे हों, पर आप उन पर भरोसा करते हैं. वास्तव में ये अच्छा ही है कि आप उनकी योजनाओं को नहीं समझ पाते हैं क्योंकि इससे उनकी रहस्यमयी और दुर्बोध अस्पष्टता का भाव, जोकि धार्मिक नेताओं की विशेषता है, और भी गहरा हो जाता है. इसीलिए तो वह वास्तविक संवाद से दूर रहते हुए सिर्फ प्रेरणादायक उपदेशों में रुचि लेते हैं. यहां तक कि सरकारी योजनाओं का उल्लेख करते हुए भी मोदी तुकबंदियों को तरजीह देते हैं और लोगों को जाप के मंत्रों की तरह संकेताक्षर बांटते हैं. उनके प्रस्ताव न केवल अस्पष्ट होते हैं, बल्कि उनके कार्यान्वयन की समयसीमा भी तय नहीं होती है. आपको बस आस्था रखनी होती है.

मूल में है हिंदुओं का धर्म

मोदी की यह अर्ध-धार्मिक अपील राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दशकों से जारी प्रोपेगंडा के कारण संभव हो पाई है. इस प्रोपेगंडा में ‘राष्ट्रीय उपासना’ के पंथ की स्थापना करने, असंतोष को अवैध करार देकर उसे ईशनिंदा के समानांतर स्थापित करने और भाजपा-आरएसएस के विरोधियों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार देते हुए नैतिक-राष्ट्रीय समुदाय से बहिष्कृत करने के लिए हिंदू धर्म का इस्तेमाल किया जाता है. मोदी ने भारत की इस पौराणिक, धार्मिक अवधारणा में खुद को राष्ट्रीय मसीहा के रूप में स्थापित किया है, जिसे जनता के एक बड़े वर्ग ने आगे बढ़कर स्वीकृति दे रखी है.


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परिणामस्वरूप, लगभग निरंकुश ताकत रखने वाले और वास्तविकता के अनुरूप कार्य की जवाबदेही से मुक्त एक नेता के अधीन हमारा लोकतंत्र एक भयावह संकट का सामना कर रहा है. असल स्थिति की बात करें तो नोटबंदी और जीएसटी के कारण पहले से ही लड़खड़ाती हमारी अर्थव्यवस्था को एक बड़ा झटका लगा है, जिसका प्रभाव शायद दशकों तक रहेगा. भुखमरी की खबरें आने भी लगी हैं और शायद ऐसी बहुत सी घटनाओं की रिपोर्टिंग हो भी नहीं रही है. लेकिन, नई राष्ट्रीय आस्था की अफीम का सेवन कर हम ‘आत्मनिर्भर भारत’ की ओर अग्रसर हैं. यदि मोदी वास्तव में झूठे नबी हैं, तो निश्चय ही उन्होंने नर्क की राह को अत्यंत ही दैदीप्यमान प्रकाश से आलोकित कर रखा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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