जिस युवा जोश की लहर पर नरेंद्र मोदी 2014 से ही सवार थे, वो कमज़ोर पड़ती जा रही है. मोदी सरकार के छह वर्षों के कार्यकाल के बाद अब, हमारे पास मौजूद नवीनतम सर्वे आंकड़ों के अनुसार, भारत के युवा निराश और अधीर दिखाई दे रहे हैं.
आर्थिक विकास और नौकरियों के बिना, युवाओं में मोदी की अपील कितनी प्रबल रह गई है? क्या युवा सिर्फ हिंदुत्व और अंतहीन सांस्कृतिक संघर्षों की राजनीति मात्र से संतुष्ट होंगे?
युवाओं में मोदी की राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता 2013 में दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में उनके संबोधन से शुरू हुई थी. वह युवाओं की तमाम हसरतों को पूरा करने वाले आर्थिक विकास के नए युग के वादे के साथ उनके दिलों में उतर गए. लेकिन अब, भरोसे की दीवार दरक चुकी है.
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क्यों हुआ युवाओं का मोहभंग?
मिंट यूगव सीपीआर सर्वे के मुताबिक अधिकांश युवाओं मानते हैं कि अर्थव्यवस्था गलत दिशा में जा रही है. इस सदी में जन्मे जेन ज़ेड वर्ग के युवाओं का 46 प्रतिशत और पिछली सदी के आखिर में पैदा मिलेनियल वर्ग के युवाओं का 44 प्रतिशत अर्थव्यवस्था की दिशा को लेकर चिंतित है. इसके विपरीत सर्वे में अर्थव्यवस्था की दिशा से संतुष्ट जेन ज़ेड और मिलेनियल क्रमश: 31 और 26 प्रतिशत ही हैं. उम्रदराज वयस्कों की सोच इससे अलग है जो बहुत थोड़े अंतर से ही सही, लेकिन अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं.
आम अनुभवों में भी, पूर्व में मोदी का समर्थन करने वाले बहुत से युवा, अब अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन और ध्रुवीकरण के मुद्दों पर निरंतर ज़ोर दिए जाने को लेकर खुलकर अपनी निराशा व्यक्त करते पाए गए हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि दिल्ली के विधानसभा चुनावों में वोटरों के सबसे कम उम्र के समूह (18-25 वर्ष) के युवाओं के भाजपा की नितांत सांप्रदायिक राजनीति की तुलना में आम आदमी पार्टी (आप) को वोट देने की सर्वाधिक संभावना थी.
देश की मौजूदा स्थिति को लेकर युवाओं का यह असंतोष काफी समय से बन रहा था. इसके दो कारण हैं.
मुख्य बात अर्थव्यवस्था की है
सर्वप्रथम, अर्थव्यवस्था की स्थिति. पिछले साल जारी एक सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार भारत के कुशल युवाओं में से 33 प्रतिशत बेरोज़गार है. यह मार्च 2019 के लोकनीति सर्वेक्षण में भी परिलक्षित हुआ था, जिसमें बेरोज़गारी को मतदाताओं के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा पाया गया था. लेकिन उसके बाद बालाकोट पर हमला हुआ, जिसने युवाओं को दोबारा भारतीय जनता पार्टी के खेमे में ला खड़ा किया.
कोविड-19 और लॉकडाउन के कारण मची आर्थिक तबाही ने उन युवाओं को और भी अधिक प्रभावित किया है, जो मुख्यतया कम सुरक्षित अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं. सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार अकेले अप्रैल महीने में, 20 से 30 वर्ष की आयु के 27 मिलियन युवाओं के रोज़गार छिन गए. आज भारत के अधिकांश युवा अनिश्चितता के भंवर में फंसे हुए हैं. उन्होंने अपने कॉलेजों को बंद होते तथा नए अवसरों, और उत्तरोत्तर गहराते संकट के कारण मौजूदा अवसरों को भी, गायब होते देखा है.
विभाजनकारी विचारधारा
दूसरी बात उन वैचारिक मुद्दों की है जिन पर कि भाजपा ने, खासकर पिछले साल भर के दौरान, अपना ध्यान केंद्रित किया है, जोकि युवाओं में उतने प्रतिध्वनित नहीं हुए हैं. नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी), अनुच्छेद 370, तथा जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विरोध प्रदर्शनों से जुड़े सवालों पर हम पाते हैं, मिंट यूगव सीपीआर सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक, कि वोटरों के सबसे युवा समूह यानि जेन ज़ेड के मोदी सरकार के रुख से सर्वाधिक असहमत होने की संभावना है. हालांकि मिलेनियल और जेन ज़ेड, दोनों ही वर्गों के वोटरों ने इनमें से अधिकांश मुद्दों पर मोदी सरकार का समर्थन किया था लेकिन अधिक उम्र के वोटरों की तुलना में उनके समर्थन का अनुपात बहुत कम था. दूसरे शब्दों में, विचारधारा संबंधी इन सवालों पर अधिक उम्र के वयस्कों की तुलना में युवा अधिक समान रूप से बंटे हैं.
युवा वोटरों में से अधिकांश का ये भी मानना है कि हिंदू-मुस्लिम संबंध गलत दिशा में बढ़ रहे हैं. सर्वे के आंकड़ों के अनुसार जेन ज़ेड इस विचार का मिलेनियल समूह के मुक़ाबले अधिक मज़बूती से समर्थन करता है.
प्रमुख वैचारिक मुद्दों को लेकर जेन ज़ेड के संशय में इस तथ्य की भी भूमिका हो सकती है कि इस समूह के अधिकांश युवा या तो कॉलेज के छात्र हैं या सेकेंडरी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वाले हैं. अधिकांश जेन ज़ेड मतदाता (33 के मुक़ाबले 42 प्रतिशत) जामिया और जेएनयू में पुलिस कार्रवाई से असहमत हैं.
हालांकि, इस प्रवृति को पश्चिम वाली स्थिति के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए कि अधिक उम्र वाले रूढ़िवादी और युवा उदारवादी होते हैं. क्योंकि युवा मतदाता और उनकी वैचारिक सोच के बारे में उपलब्ध आंकड़े अस्पष्ट हैं. कुछ सर्वेक्षणों के अनुसार सामाजिक मुद्दों पर भाजपा के युवा वोटर उतने ही उदारवादी या रूढ़िवादी होते हैं जितना ग़ैर-भाजपाई, वहीं अन्य सर्वेक्षणों के अनुसार विभिन्न मुद्दों पर युवा वोटरों के विचारों में उदारवाद और रूढ़िवाद का घालमेल होता है. इसलिए भले ही पूर्व के सर्वेक्षणों में सामाजिक मुद्दों (विवाह, डेटिंग, मदिरापान) पर भारतीय युवाओं को कम रूढ़िवादी नज़रिया रखता पाया जा चुका हो, लेकिन इसके राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की धुरी बनने की संभावना नहीं है.
ताज़ा सर्वे के अनुसार विभिन्न आयु समूह के युवा मतदाताओं का प्रवृति सूचक इन शब्दों से कोई खास जुड़ाव नहीं है. इसके विपरीत सर्वे में शामिल सबसे कम आयु वर्ग के युवाओं के ‘उदारवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ या ‘नारीवादी’ जैसे खास राजनीतिक पहचान वाले शब्दों से सबसे कम जुड़ाव महसूस करने की संभावना हैं.
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पर असंतोष हमेशा वोट में नहीं बदलता
ये रुझान असंतोष के संकेत मात्र हैं, और इसका ये मतलब नहीं है कि कांग्रेस या कोई अन्य विपक्षी दल अचानक आगे बढ़कर इन्हें अपने वोट में शामिल कर पाएगा. ना ही इसमें मोदी पर किसी तात्कालिक ख़तरे का ही संकेत है. असंतोष के चुनावी बदलावों का स्रोत बनने के लिए वोटरों के पास विश्वसनीय विकल्पों का होना ज़रूरी है. इस बात का कोई सबूत नहीं है, वर्तमान सर्वे के आंकड़ों में भी नहीं, कि युवाओं ने अभी भी कांग्रेस को एक विश्वसनीय विकल्प के रूप में देखना शुरू किया है.
हालांकि, भाजपा राजनीतिक बहुसंख्यक वोट से जितना अधिक लाभांवित होती है, उसके मद्देनज़र उम्र आधारित दरार का उभरना, जोकि पार्टी की जातीय बहुसंख्यक आधारित दरार को प्रतिसंतुलित करती दिखती है, चिंता का एक उचित कारण है.
साथ ही, चूंकि जेन ज़ेड में से अधिकांश ने मोदी काल में ही युवावस्था में कदम रखा है, उन्हें 2011-14 के दौर की उतनी याद नहीं है जब भ्रष्टाचार के कई घोटालों के कारण कांग्रेस बदनाम हो गई थी. इसलिए ये एक ऐसा वर्ग है जो सही से लक्षित किए जाने पर भाजपा से दूर जा सकता है. लेकिन जब तक विरोधी दल सक्रियता और सजगता के साथ सतर्क मेसेजिंग और एक आकर्षक वैकल्पिक मंच प्रदान करते हुए युवाओं की निराशा और आकांक्षाओं को साधने की कोशिश नहीं करते, उन्हें कोई खास फ़ायदा नहीं मिलने वाला है.
यूपीए 2 के आखिरी दिनों में युवा जब कांग्रेस से विमुख हो गए थे, तो उस दौरान मोदी के रूप में एक नया सम्मोहक किरदार अवतरित हुआ जिसने उन्हें अपने आकर्षण में बांध लिया. उस किरदार की नवीनता और चमक दोनों गायब हो चुकी है, और युवा फिर से असंतुष्ट दिखाई देते हैं, लेकिन उन्हें आकर्षित करने वाला कोई नया किरदार सामने मौजूद नहीं है.
(आसिम अली और अंकिता बर्थवाल नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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Madrsha chap padai bale Asim tum kitana b modi ko Gali do..kitna b dusprachar karo…..tmhre bahkabe Mai tumhre jaise madrsha chap hi sunge or koi nahi ayag…..