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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतमोदी-शाह भी ‘बांटो और राज करो’ की कांग्रेसी नीति पर, वही हाल भाजपा का भी होगा

मोदी-शाह भी ‘बांटो और राज करो’ की कांग्रेसी नीति पर, वही हाल भाजपा का भी होगा

मोदी और शाह इतने ताकतवर तो हैं ही कि भाजपा के अंदरूनी झगड़ों को शांत कर सकें लेकिन खतरा यह है कि पार्टी में गुटबाजी कहीं उनकी वजह से ही न पनपने लगे.

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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने राजनीतिक और चुनावी प्रतिद्वंद्वी को जिस तरह पीछे छोड़ दिया है और जनमत पर हावी होने की होड़ में भी उसे जिस तरह मात दे दी है, उसके बाद उसे कांग्रेस से, खासकर उसके मौजूदा अवतार में, शायद ही कुछ सीखने की जरूरत है. लेकिन ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने कांग्रेस से एक बड़ा सबक जरूर सीखा है—‘बांटो और राज करो’ वाला सबक.

कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश और असम तक भाजपा की कई प्रादेशिक इकाइयों में दबी-खुली गुटबाजी और अंदरूनी झगड़े बेकाबू जारी हैं और ऐसा लगता है कि पार्टी के ये दो सर्वेसर्वा इन झगड़ों को जारी रखने की खुशी-खुशी छूट दिए हुए हैं. यह कांग्रेस की पुरानी चाल रही है, उसका आलाकमान यानी गांधी परिवार अपने मातहत नेताओं में आपसी टक्कर से खुश होता रहा है ताकि वे परिवार की मेहरबानी के मोहताज बने रहें, कोई भी उनके लिए खतरा बनकर न उभरे और उनकी स्थिति मजबूत बनी रहे.

मोदी-शाह ने भी यही रणनीति अपना ली है. वे इतने ताकतवर तो हैं ही और पार्टी पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत तो है ही कि वे आपस में भिड़ रहे गुटों पर लगाम कस सकें और अंदरूनी टकरावों को शांत कर सकें. लेकिन ये झगड़े जारी हैं तो इसका मतलब यही लगाया जा सकता है कि ये उनकी मर्जी से जारी हैं.

लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी या तो यह भूल रही है या जानबूझकर इस बड़े सबक की अनदेखी कर रही है कि यह रणनीति फौरी तौर पर भले कुछ फायदा दिला दे, दीर्घकालिक तौर पर नुकसान ही पहुंचाती है. कांग्रेस के पतन के लिए इसी रणनीति को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. इस रणनीति ने गांधी परिवार को अपना दबदबा बनाए रखने में भले मदद की हो, इसने पार्टी को चिंताजनक गिरावट के कगार पर ला खड़ा किया है.


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मध्य प्रदेश से…

भाजपा केंद्र में तो बेशक मजबूत है, मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ भी ऊपर बना हुआ है, शाह की चुनावी चालों के बूते पार्टी अच्छी चुनावी फसल काटती रही है. फिर भी लगता है कि सत्ता को लेकर वे इतनी असुरक्षा महसूस करते हैं कि कई अंदरूनी टकरावों को शह देते नज़र आते हैं. मसलन, मध्य प्रदेश को ही लीजिए. 2018 में भाजपा वहां कांटे की टक्कर देने के बाद राज्य को अपने हाथ से गंवा बैठी, लेकिन वहां उसके आला नेता शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता कायम है और पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सारी सीटें जीत ली.

लेकिन भाजपा के केंद्रीय आलाकमान ने इसे कांग्रेस में नाखुश ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी में बाजे-गाजे के साथ लाने का माकूल मौका मान लिया, और उसने यह नहीं सोचा कि इससे सिंधिया और शिवराज के बीच कैसा असहज संबंध बनेंगे. महीनों बाद शिवराज का कद घटा दिया गया, सिंधिया को वह सब दिया गया जो वे चाहते थे. इस तरह मोदी-शाह ने इस प्रतिद्वंद्विता की आग में और घी ही डाला. केंद्रीय आलाकमान इस नाजुक मसले को ज्यादा संवेदनशीलता से निपटा सकता था ताकि किसी खेमे की शिकायत बाकी न रह जाए. यह कहना जितना आसान है उतना करना आसान नहीं है, फिर भी हर चीज पर पकड़ रखने की काबिलियत का दावा करने वाली इस जोड़ी के लिए यह असंभव नहीं था.

लेकिन जिस राज्य में भाजपा के अंदर कोई बड़ा झगड़ा नहीं था वहां, ऐसा लगता है कि मोदी और शाह ने एक झगड़े के बीज डाल दिए हैं.

…असम तक

भाजपा के हाथों में आए नये राज्य असम में मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल और कांग्रेस से आयातित वरिष्ठ मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के बीच प्रतिद्वंद्विता कोई रहस्य नहीं है. 2015 में भाजपा में शामिल हुए सरमा ने पार्टी में तेजी से अपना दबदबा बनाया है और असम ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर-पूर्व में पार्टी के लिए संकटमोचन बनकर उभरे हैं. असम में वे सोनोवाल पर बराबर हावी रहे हैं और सीधे पार्टी आलाकमान से निरंतर संपर्क में रहकर यह आभास देते रहे हैं कि तमाम संकट का समाधान वे ही करते रहे हैं, चाहे वह नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन हो या कोविड संकट.

यहां सोनोवल बनाम सरमा द्वंद्व मोदी-शाह की नज़रों के सामने जारी है.

कर्नाटक और उससे आगे भी

भाजपा शासित कर्नाटक वह राज्य है जहां 2018 में विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद अमित शाह ने उसे कांग्रेस के हाथ से छीनने के लिए जी-जान लगा दी थी. वहां भी पार्टी के अंदर गुटबाजी की अपनी ही कहानी है. प्रदेश पार्टी इकाई में नये और पुराने धड़ों के बीच झगड़ा निरंतर जारी है. नया गुट कांग्रेस और जनता दल (एस) से आए दलबदलुओं का है, जो मंत्री की कुर्सी पाने के लिए भाजपा के तंबू के नीचे आए, जबकि पुराना गुट मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के खेमे वालों का है. कर्नाटक में गुटबाजी तब खुल कर सामने आ गई जब कुछ नेताओं के एक गुट ने केंद्रीय आलाकमान से मुख्यमंत्री के बारे में यह शिकायत की कि वे ‘एकतरफा’ फैसले कर रहे हैं.

मोदी-शाह ने इस कड़वाहट को भी गहरा होने दिया है और ताकतवर मुख्यमंत्री को कई तरह की चालों से कमजोर करने की कोशिश की है, जिनमें ताजा यह है कि राज्यसभा चुनाव के लिए येदियुरप्पा के सुझाए गए उम्मीदवारों को खारिज कर दिया गया.

गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपानी और नितिन पटेल के बीच तनातनी की खबर पुरानी पड़ चुकी है. राजस्थान भाजपा में 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले जो अंदरूनी गुटबाजी खुल कर सामने आई थी उसे सबने देखा ही था.


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खतरनाक रणनीति

मोदी-शाह इस तरह एक जोखिम भरे रास्ते पर चल रहे हैं. ‘बांटो और राज करो’ की कांग्रेसी नीति का इतिहास बताता है कि फौरी, छोटे-छोटे लाभों के लिए पार्टी में गुटबाजी को प्रश्रय देना आगे चलकर संगठन को ही कमजोर करता है. इसने कांग्रेस को कई राज्यों में कमजोर ही किया है, मसलन हरियाणा (हुड्डा बनाम अशोक तंवर), मध्य प्रदेश (कमलनाथ-दिग्विजय बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया), असम (गोगोई बनाम हिमंत, जिसके चलते हिमंत पार्टी छोड़कर चले गए), राजस्थान (अशोक गहलोत बनाम सचिन पाइलट विवाद जो अपनी सत्ता वाले राज्य में ही नुकसान पहुंचा सकता है).

मोदी-शाह के लिए यह नीति कुछ फौरी फायदे भले दिला सकती है, उनके रास्ते से चुनौतियों को हटा सकती है. आखिर, मोदी कई वर्षों तक एक राज्य को संभालने के बाद, लालकृष्ण आडवाणी सरीखे दिग्गजों को किनारे करके दिल्ली पहुंचे.
लेकिन इस तरह की नीति आगे चलकर संगठन को कमजोर ही करती है. अपने पीछे विरासत के रूप में एक शक्तिशाली संगठन छोड़ जाने के सपने देखने वाले के लिए यह कोई रास्ता नहीं हो सकता. ऐसा लगता है, कांग्रेस को बेदखल करने के बावजूद मोदी और शाह खुद ही कांग्रेस बनने के रास्ते पर चल पड़े हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. मोदी शाह विरोधी सोच से प्रेरित होकर लिखा गया है क्योंकि कुछ लोग देश को आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकते हैं,मोदी शाह अगर मजबूत होते हैं तो भाजपा खुद मजबूत होती है जहां अपने आप ऐसे लोगों पर लगाम कसने लगी है जो राजनीति को व्यापार करने की जगह मानते हैं।

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